ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १६

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १६ ऋषि - मेधातिथिः काण्व देवता- इन्द्र, । छंद- गायत्री आ त्वा वहन्तु हरयो वृषणं सोमपीतये । इन्द्र त्वा सूरचक्षसः ॥१॥ हे बलवान् इन्द्रदेव ! आपके तेजस्वी घोड़े सोमरस पीने के लिए आपको यज्ञस्थल पर लाएँ तथा सूर्य के समान प्रकाशयुक्त ऋत्विज् मन्त्रों द्वारा आपकी स्तुति करें ॥१॥ इमा धाना घृतस्रुवो हरी इहोप वक्षतः । इन्द्रं सुखतमे रथे ॥२॥ अत्यन्त सुखकारी रथ में नियोजित इन्द्रदेव के दोनों हरि (घोड़े) उन्हें (इन्द्रदेव को) घृत से स्निग्ध हवि रूप धाना (भुने हुए जौ) ग्रहण करने के लिए यहाँ ले आएँ ॥२॥ इन्द्रं प्रातर्हवामह इन्द्रं प्रयत्यध्वरे । इन्द्रं सोमस्य पीतये ॥३॥ हम प्रातःकाल यज्ञ प्रारम्भ करते समय मध्याह्नकालीन सोमयाग प्रारम्भ होने पर तथा सायंकाल यज्ञ की समाप्ति पर भी सोमरस पीने के निमित्त इन्द्रदेव का आवाहन करते हैं॥३॥ उप नः सुतमा गहि हरिभिरिन्द्र केशिभिः । सुते हि त्वा हवामहे ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आप अपने केसर युक्त अश्वों से सोम के अभिषव स्थान के पास आएँ। सोम के अभिषुत होने पर हम आपका आवाहन करते हैं ॥४॥ सेमं नः स्तोममा गह्युपेदं सवनं सुतम् । गौरो न तृषितः पिब ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! हमारे स्तोत्रों का श्रवण कर आप यहाँ आएँ। प्यासे गौर मृग के सदृश व्याकुल मन से सोम के अभिषव स्थान के समीप आकर सोम का पान करें ॥५॥ इमे सोमास इन्दवः सुतासो अधि बर्हिषि । ताँ इन्द्र सहसे पिब ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! यह दीप्तिमान् सोम निष्पादित होकर कुश-आसन पर सुशोभित है । शक्ति - वर्द्धन के निमित्त आप इसका पान करें ॥६॥ अयं ते स्तोमो अग्रियो हृदिस्पृगस्तु शंतमः । अथा सोमं सुतं पिब ॥७॥ हे इन्द्रदेव! यह स्तोत्र श्रेष्ठ, मर्मस्पर्शी और अत्यन्त सुखकारी है। अब आप इसे सुनकर अभिषुत सोमरस का पान करें ॥७॥ विश्वमित्सवनं सुतमिन्द्रो मदाय गच्छति । वृत्रहा सोमपीतये ॥८॥ सोम के सभी अभिषव स्थानों की ओर इन्द्रदेव अवश्य जाते हैं। दुष्टों का हनन करने वाले इन्द्रदेव सोमरस पीकर अपना हर्ष बढ़ाते हैं ॥८॥ सेमं नः काममा पृण गोभिरश्वैः शतक्रतो । स्तवाम त्वा स्वाध्यः ॥९॥ हे शतकर्मा इन्द्रदेव ! आप हमारी गौओं और अश्वों सम्बन्धी कामनायें पूर्ण करें । हम मनोयोगपूर्वक आपकी स्तुति करते हैं॥९॥

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