ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त ४३

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त ४३ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः। देवता- शकुन्तः । छंद जगती, २ अतिशकरी अष्टिर्वा प्रदक्षिणिदभि गृणन्ति कारवो वयो वदन्त ऋतुथा शकुन्तयः । उभे वाचौ वदति सामगा इव गायत्रं च त्रैष्टुभं चानु राजति ॥१॥ स्तोताओं के समान समय-समय पर अन्न की खोज करने वालों की तरह शकुनिगण दायीं ओर (सम्मानपूर्वक) बैठकर उपदेश दें। जिस तरह साम गायक गायत्री और त्रिष्टुप् छन्द से युक्त दोनों वाणियों का उच्चारण करता है, उसी तरह यह शकुनि उत्तम वाणी बोलते हुए सुशोभित होता है॥१॥ उद्गातेव शकुने साम गायसि ब्रह्मपुत्र इव सवनेषु शंससि । वृषेव वाजी शिशुमतीरपीत्या सर्वतो नः शकुने भद्रमा वद विश्वतो नः शकुने पुण्यमा वद ॥२॥ हे शकुनि ! आप उद्गाता की तरह सामगान करते हैं तथा यज्ञ में ऋत्विक की भाँति स्तोत्रों का उच्चारण करते हैं। जिस प्रकार बलशाली अश्व घोड़ी के पास जाकर शब्दनाद करता है, उसी प्रकार हे शकुनि ! आप चारों ओर से हमारे लिए कल्याणकारक तथा पुण्यकारक वचन ही बोलें ॥२॥ आवदँस्त्वं शकुने भद्रमा वद तूष्णीमासीनः सुमतिं चिकिद्धि नः । यदुत्पतन्वदसि कर्करिर्यथा बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥३॥ हे शकुनि ! जिस समय आप बोलते हैं, उस समय हमारे कल्याण का संकेत करते हैं। जिस समय शान्त बैठते हैं, उस समय हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की और प्रेरित करते हैं। उड़ते समय कर्करी बाजे (वाद्ययंत्र के समान मधुर ध्वनि करते हैं। हम सुसन्तति युक्त होकर इस यज्ञ में आपका यशोगान करें ॥३॥ ॥ इति द्वितीय मण्डलं ॥

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