ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १६१

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १६१ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता- ऋभवः । छंद - जगती, १४ त्रिष्टुप किमु श्रेष्ठः किं यविष्ठो न आजगन्किमीयते दूत्यं कद्यदूचिम । न निन्दिम चमसं यो महाकुलोऽग्ने भ्रातर्दुण इद्भूतिमूदिम ॥१॥ (सुधन्वा के पुत्रों के पास जब अग्निदेव पहुँचते हैं, तो वे कहते हैं-) हमारे पास ये कौन आये हैं? ये हमसे श्रेष्ठ या कनिष्ठ ? (पहचान लेने पर कहते हैं) हे भाता अग्निदेव ! हम इस श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न हुव्यान्न को दूषित न करें; आप कृपया इसके उपयोग का उपाय बतलायें ॥१॥ एकं चमसं चतुरः कृणोतन तद्वो देवा अब्रुवन्तद्व आगमम् । सौधन्वना यद्येवा करिष्यथ साकं देवैर्यज्ञियासो भविष्यथ ॥२॥ (अग्निदेव ने कहा:-) हे सुधन्वा पुगे! आप इस अन्न को चार भागों में विभक्त करें, ऐसा देवशक्तियों का आपके लिए निर्देश है। इसी निवेदन के लिए हम आपके समीप आये हैं। यदि आप इस प्रकार करेंगे तो आप भी देवताओं के परमपद के अधिकारी बनेंगे ॥२॥ अग्निं दूतं प्रति यदब्रवीतनाश्वः कर्तो रथ उतेह कर्वः । धेनुः कर्त्या युवशा कर्ता द्वा तानि भ्रातरनु वः कृत्येमसि ॥३॥ हे ऋभुदेवो ! आपने हव्यवाहक अग्निदेव से जो निवेदन किया है कि अश्वों, गौओं एवं रथों को उत्तम बनायें। दोनों वृद्ध (माता-पिता) को तरुण बनायें। इन सभी कर्मों का निर्वाह करने वाले हे बन्धु अग्निदेव ! हम आपका अनुगमन करते हैं॥३॥ चकृवांस ऋभवस्तदपृच्छत क्वेदभूद्यः स्य दूतो न आजगन् । यदावाख्यच्चमसाञ्चतुरः कृतानादित्त्वष्टा ग्नास्वन्तर्यानजे ॥४॥ है ऋभुदेवो ! कार्य करने के बाद आपने पूछा कि जो दूतरूप में हमारे समीप आये हैं, वे कहाँ चले गये? जब त्वष्टा ने चार भागों में विभक्त अन्न उन अग्निदेव को अर्पित किया, तभी वे दूत स्त्रियों (मंत्र प्रकट करने वाली वाणियों) में समाहित हो गये ॥४॥ हनामैनाँ इति त्वष्टा यदब्रवीच्चमसं ये देवपानमनिन्दिषुः । अन्या नामानि कृण्वते सुते सचाँ अन्यैरेनान्कन्या नामभिः स्परत् ॥५॥ त्वष्टादेव ने निर्देशित किया कि जो देवताओं के लिए उपयुक्त हविष्यान्नों की निन्दा करते हैं, उनका संहार करें। परस्पर सहयोग से अभिषुत सोम को विभिन्न नामों से सम्बोधित किया जाता है, तब (त्वष्टा की) कन्या (वाणी) भी उन्हीं नामों से संबोधित करती हैं॥५॥ इन्द्रो हरी युयुजे अश्विना रथं बृहस्पतिर्विश्वरूपामुपाजत । ऋभुर्विभ्वा वाजो देवाँ अगच्छत स्वपसो यज्ञियं भागमैतन ॥६॥ इन्द्रदेव अपने अश्वों को जोतकर, अश्विनीकुमार अपने रथ को तैयार करके यज्ञ में जाने के लिए प्रस्तुत हैं। बृहस्पतिदेव ने भी विभिन्न स्तोत्ररूप वाणियों को प्रारम्भ कर दिया है, अतएव ऋभु, विभ्वा और वाज भी देवताओं के समीप गये और यज्ञ भाग प्राप्त किया ॥ ६॥ निश्चर्मणो गामरिणीत धीतिभिर्या जरन्ता युवशा ताकृणोतन । ी सौधन्वना अश्वादश्वमतक्षत युक्त्वा रथमुप देवाँ अयातन ॥७॥ हे सुधन्वा पुत्रो ! आपके श्रेष्ठ प्रयासों से चर्मरहित गौ को पुनर्जीवन मिला। अतिवृद्ध माता-पिता को आपने तरुण बनाया। एक घोड़े से दूसरे घोड़े को उत्पन्न करके उनको अपने रथ में जोतकर देवों के समीप उपस्थित हुए ॥७॥ इदमुदकं पिबतेत्यब्रवीतनेदं वा घा पिबता मुज्ञ्जनेजनम् । सौधन्वना यदि तन्नेव हर्यथ तृतीये घा सवने मादयाध्वै ॥८॥ (देवों ने कहा-) हे सुधन्वा के पुत्रो ! आप जल पान करें, अथवा मूज्ज से अभिषुत सोमरस का पान करें। यदि आपकी अभी इसे पीने की इच्छा न हो तो तीसरे पहर तो इसे अवश्य ही पीकर आनन्दित हों ॥८॥ आपो भूयिष्ठा इत्येको अब्रवीदग्निर्भूयिष्ठ इत्यन्यो अब्रवीत् । वधर्यन्तीं बहुभ्यः प्रैको अब्रवीदृता वदन्तश्चमसाँ अपिंशत ॥९॥ किसी ने जल की, दूसरे ने अग्नि की तथा किसी तीसरे ने भूमि की सर्व श्रेष्ठता को सिद्ध किया, इस प्रकार से सभी (भुदेवों) ने तीनों तत्त्वों की उपयोगिता को सत्यापित (सत्य सिद्ध करते हुए ऐश्वर्यों का विभाजन किया ॥९॥ श्रोणामेक उदकं गामवाजति मांसगेकः पिंशति सूनयाभृतम् । आ निमुचः शकृदेको अपाभरत्किं स्वित्पुत्रेभ्यः पितरा उपावतुः ॥१०॥ एक पुत्र ने गौ (किरणों-इन्द्रियों) को जल (रसों) की ओर प्रेरित किया। दूसरे ने उन्हें मांसादि (अंग अवयव, फलों के गूदे आदि) के संवर्धन में नियोजित किया। तीसरे ने सूर्यास्त (अंतिम चरण) के समय उनके अवशेषों (विकारों) को हटा दिया ऐसे पुत्रों वाले पिता और क्या अपेक्षा करें ? ॥१०॥ - उद्वत्स्वस्मा अकृणोतना तृणं निवत्स्वपः स्वपस्यया नरः । अगोह्यस्य यदसस्तना गृहे तदद्येदमृभवो नानु गच्छथ ॥११॥ (सूर्य किरणों में संव्याप्त) हे ऋभु देवो! आपने अपने श्रेष्ठ पुरुषार्थ से ऊंचे स्थानों में उपयोगी तृण आदि उगाये तथा निचले भागों में जल को संगृहीत किया। आप अब तक सूर्य मण्डल में विश्रामरत रहे, अब इस (उत्पादक) प्रक्रिया का अनुगमन क्यों नहीं करते ? ॥११॥ सम्मील्य यद्भुवना पर्यसर्पत क्व स्वित्तात्या पितरा व आसतुः । अशपत यः करस्नं व आददे यः प्राब्रवीत्प्रो तस्मा अब्रवीतन ॥१२॥ सूर्य किरणों में संव्याप्त हे ऋभुओ ! जब आप लोकों को आच्छादित करके चारों ओर संचरित होते हैं, तब आपके मात पिता दोनों कहाँ छिप जाते हैं ? जो लोग आपके हाथों (किरणों) को रोकते हैं, उपयोग नहीं करते, वे शापित होते हैं। जो प्रेरक वचन बोलते हैं, उन्हें आप प्रगति प्रदान करते हैं॥१२॥ सुषुप्वांस ऋभवस्तदपृच्छतागोह्य क इदं नो अबूबुधत् । श्वानं बस्तो बोधयितारमब्रवीत्संवत्सर इदमद्या व्यख्यत ॥१३॥ हे सूर्य किरणो (ऋभुओं) ! (जाग्रत् होने पर) आपने सूर्य से पूछा कि हमें किसने सोते से जगाया ? तब सूर्य में वायु को जाग्रत् करने वाला बतलाया। आपने संवत्सर बदल जाने पर विश्व को प्रकाशमान किया है॥१३॥ दिवा यान्ति मरुतो भूम्याग्निरयं वातो अन्तरिक्षण याति । अद्भिर्याति वरुणः समुद्रैर्युष्माँ इच्छन्तः शवसो नपातः ॥१४॥ हे शक्तिशाली ऋभुओ (किरणो) ! आपको पाने की कामना करते हुए मरुद्गण देवलोक से चलते हैं। भूमि पर अग्निदेव और वायुदेव आकाश में चलते हैं तथा वरुणदेव जल प्रवाहों के रूप में आपसे मिलते हैं॥१४॥

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