ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १००

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १०० ऋषि – वार्षागिराः ऋज़ाश्वा अम्बरीष, सहदेव, भयमान सुराधसः देवता-इन्द्र, । छंद-त्रिष्टुप स यो वृषा वृष्ण्येभिः समोका महो दिवः पृथिव्याश्च सम्राट् । सतीनसत्वा हव्यो भरेषु मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥१॥ जो बलशाली इन्द्रदेव बलवर्धक साधनों से संयुक्त रहने वाले, महान् आकाश और पृथ्वी के स्वामी हैं, जो जलों को प्राप्त कराने वाले, संग्राम में आवाहन के योग्य हैं, वे इन्द्रदेव मरुद्गणों सहित हमारे रक्षक हों ॥१॥ यस्यानाप्तः सूर्यस्येव यामो भरेभरे वृत्रहा शुष्मो अस्ति । वृषन्तमः सखिभिः स्वेभिरेवैर्मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥२॥ सूर्य की गति के समान दुर्लभ गति वाले वृत्तनाशक इन्द्रदेव प्रत्येक संग्राम में शत्रुओं को प्रकम्पित करने वाले हैं। ये मित्र रूप आक्रामक मरुतों के साथ मिलकर अतीव बलशाली हैं। ये इन्द्रदेव मरुद्गणों सहित हमारे रक्षक हों ॥२॥ दिवो न यस्य रेतसो दुघानाः पन्थासो यन्ति शवसापरीताः । तरद्द्वेषाः सासहिः पौंस्येभिर्मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥३॥ इन इन्द्रदेव के निर्विघ्न मार्ग सूर्य किरणों के सदृश अन्तरिक्ष के नलों का दोहन करने वाले हैं। ये अपने पराक्रम से द्वेषियों का नाश करने वाले, शत्रुओं का पराभव करने वाले और बलपूर्वक आगे-आगे गमन करने वाले हैं, ये इन्द्रदेव मरुद्गणों के साथ हमारे रक्षक हों ॥३॥ सो अङ्गिरोभिरङ्गिरस्तमो भूदृषा वृषभिः सखिभिः सखा सन् । ऋग्मिभिक्रग्मी गातुभिर्येष्ठो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥४॥ वे इन्द्रदेव अंगिरा ऋषियों में अतिशय पूज्य, मित्रों में श्रेष्ठ मित्र, बलवानों में अतीव बलवान्, ज्ञानियों में अतिज्ञान सम्पन्न और सामादिगान करने वालों में वरिष्ठ हैं। वे इन्द्रदेव मदरुद्गणों के साथ हमारे रक्षक हों ॥४॥ स सूनुभिर्न रुद्रेभिक्रभ्वा नृषाद्ये सासह्वाँ अमित्रान् । सनीळेभिः श्रवस्यानि तूर्वन्मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥५॥ महान् इन्द्रदेव ने पुत्रों के समान प्रिय सहायक मरुतों के साथ मिलकर शत्रुओं को पराजित किया। साथ रहने वाले मरुद्गणों के साथ मिलकर आपने अन्नों की वृद्धि के निमित्त जलों को नीचे प्रवाहित किया। वे इन्द्रदेव मरुतों के साथ हमारे रक्षक हों ॥५॥ स मन्युमीः समदनस्य कर्तास्माकेभिनृभिः सूर्यं सनत् । अस्मिन्नहन्त्सत्पतिः पुरुहूतो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥६॥ शत्रुओं के प्रति मन्यु (क्रोध) प्रदर्शित करने वाले, हर्ष युक्त होकर युद्ध में प्रवृत्त रहने वाले, सत्प्रवृत्तियों के पालक, बहुतों द्वारा आवाहनीय इन्द्रदेव आज के दिन हमारे वीरों को लेकर वृत्र का नाश करें। सूर्य देव को प्रकट करें। वे इन्द्रदेव मरुतों के साथ मिलकर हमारे रक्षक हों ॥६॥ तमूतयो रणयञ्छ्ररसातौ तं क्षेमस्य क्षितयः कृण्वत त्राम् । स विश्वस्य करुणस्येश एको मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥७॥ सहायक मरुतों ने इन्द्रदेव को युद्ध में उत्तेजित किया । प्रजाओं ने अपनी रक्षा के निमित्त उन वीर मरुद्गणों को रक्षक बनाया। वे इन्द्रदेव अकेले ही सम्पूर्ण श्रेष्ठ कर्मों के नियन्ता हैं। ऐसे वे इन्द्रदेव मरुद्गणों के साथ हमारी रक्षा करें ॥७॥ तमप्सन्त शवस उत्सवेषु नरो नरमवसे तं धनाय । सो अन्धे चित्तमसि ज्योतिर्विदन्मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥८॥ बलशाली वीरों द्वारा युद्धों में उन श्रेष्ठ वीर इन्द्रदेव को धन और रक्षा के निमित्त बुलाया जाता है। उन इन्द्रदेव ने गहन तमिस्रा में भी प्रकाश को प्राप्त किया। ऐसे वे इन्द्रदेव मरुतों के साथ हमारी रक्षा करें ॥८॥ स सव्येन यमति व्राधतश्चित्स दक्षिणे संगृभीता कृतानि । स कीरिणा चित्सनिता धनानि मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥९॥ वे इन्द्रदेव बायें हाथ से हिंसक शत्रुओं को रोकते हैं और दाँयें हाथ से याजकों की हवियों को ग्रहण करते हैं। वे स्तुतियों से प्रसन्न होकर उन्हें धन देते हैं। ऐसे वे इन्द्रदेव मरुद्गणों के साथ हमारे रक्षक हों ॥९॥ स ग्रामेभिः सनिता स रथेभिर्विद विश्वाभिः कृष्टिभिर्वद्य । स पौंस्येभिरभिभूरशस्तीर्मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥१०॥ इन्द्रदेव मरुतों के सहयोग से रथों द्वारा धनों को देने वाले हैं, ऐसा सम्पूर्ण प्रजाजन जानते हैं। वे इन्द्रदेव अपनी सामथ्यों से निन्दनीय शत्रुओं का पराभव करने वाले हैं। ऐसे वे इन्द्रदेव मरुद्गणों के साथ हमारे रक्षक हों ॥१०॥ स जामिभिर्यत्समजाति मीळ्ळ्हेऽजामिभिर्वा पुरुहूत एवैः । अपां तोकस्य तनयस्य जेषे मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥११॥ बहुतों के द्वारा बुलाये जाने वाले वे इन्द्रदेव जब बन्धु अथवा अबन्धु वीरों के साथ युद्ध में जाते हैं, तो वे उनके पुत्र-पौत्रादि की विजय के लिए यत्नशील रहते हैं। ऐसे वे इन्द्रदेव मरुद्गणों के साथ हमारे रक्षक हों ॥११॥ स वज्रभृद्दस्युहा भीम उग्रः सहस्रचेताः शतनीथ ऋभ्वा । चम्रीषो न शवसा पाञ्चजन्यो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥१२॥ वे वज्रधारी, दुष्ट नाशक, विकराल, पराक्रमी, सहस्र ज्ञान की धाराओं से युक्त, शतनीति युक्त, प्रकाशवान्, सोम के सदृश पूज्य इन्द्रदेव अपनी सामर्थ्य से पाँचजन्य (पाँचों प्रकार के मनुष्यों के हितकारी हैं। ऐसे वे देव इन्द्र मरुद्गणों के साथ हमारे रक्षक हों ॥१२॥ तस्य वज्रः क्रन्दति स्मत्स्वर्षा दिवो न त्वेषो रवथः शिमीवान् । तं सचन्ते सनयस्तं धनानि मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥१३॥ उन इन्द्रदेव का वज्र बहुत तीव्र गर्जना करता है। वह द्युलोक के सूर्यदेव की भाँति तेजस्विता सम्पन्न है। स्तोताओं की स्तुतियों से वे उन्हें उत्तम सुख और उत्तम धनादि दान देकर सन्तुष्ट करते हैं। ऐसे वे इन्द्रदेव मरुतों के साथ हमारे रक्षक हों ॥१३॥ यस्याजस्रं शवसा मानमुक्थं परिभुजद्रोदसी विश्वतः सीम् । स पारिषत्क्रतुभिर्मन्दसानो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥१४॥ उन इन्द्रदेव का प्रशंसनीय बल आकाश और पृथिवी दोनों लोकों का सभी ओर से निरन्तर पोषण कर रहा है। वे हमारे यज्ञादि कर्मों से हर्षित होकर हमें दुःखों से दूर करें। ऐसे वे इन्द्रदेव मरुतों के साथ हमारे रक्षक हों ॥१४॥ न यस्य देवा देवता न मर्ता आपश्चन शवसो अन्तमापुः । स प्ररिक्वा त्वक्षसा क्ष्मो दिवश्च मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥१५॥ जिन इन्द्रदेव के बल का अन्त दान-प्रवृत्ति वाले देवगण, मनुष्य तथा जल भी नहीं पा सकते, वे इन्द्रदेव अपनी तेजस्वी सामर्थ्य से पृथ्वी और द्युलोक से भी महान् हैं। ऐसे वे इन्द्रदेव मरुतों के साथ हमारे रक्षक हों ॥१५॥ रोहिच्छ्यावा सुमदंशुर्ललामीयुक्षा राय ऋज्राश्वस्य । वृषण्वन्तं बिभ्रती धूर्षु रथं मन्द्रा चिकेत नाहुषीषु विक्षु ॥१६॥ रोहित और श्यामवर्ण के अश्व उत्तम तेजस्वी आभूषणों से सुशोभित इन्द्रदेव के रथ में नियोजित होकर प्रसन्नता पूर्वक गर्जना करते हुए चलते हैं। इन्द्रदेव "अज्राश्व" को ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। मानवी प्रजा भी धन के निमित्त निवेदन करती हुई दिखाई दे रही है॥१६॥ एतत्त्यत्त इन्द्र वृष्ण उक्थं वार्षागिरा अभि गृणन्ति राधः । ऋज्राश्वः प्रष्टिभिरम्बरीषः सहदेवो भयमानः सुराधाः ॥१७॥ हे इन्द्रदेव ! समीपस्थ ऋषियों के साथ बज्राश्व अम्बरीष, सहदेव, भयमान और सुराधस ये सब वृषागिर के पुत्र आप जैसे सामर्थ्यवान् के लिए प्रसिद्ध स्तोत्रों को गायन करते हैं॥१७॥ दस्यूञ्छिम्यूँश्च पुरुहूत एवैर्हत्वा पृथिव्यां शर्वा नि बर्दीत् । सनत्क्षेत्रं सखिभिः श्वित्येभिः सनत्सूर्यं सनदपः सुवज्रः ॥१८॥ बहुतों द्वारा बुलाये जाने पर इन्द्रदेव ने अपने सहायक मरुद्गणों के साथ मिलकर पृथ्वी के ऊपर दुष्टों और हिंसक शत्रुओं पर तीक्ष्ण वज्र से प्रहार करके उन्हें जड़ विहीन किया, तब उसे उत्तम वज्रधारी ने श्वेत वस्त्रों और अलंकारों से विभूषित मरुद्गणों के साथ भूमि प्राप्त की। जल समूह को प्राप्त किया और सूर्य भी प्राप्त किया ॥१८॥ विश्वाहेन्द्रो अधिवक्ता नो अस्त्वपरिवृताः सनुयाम वाजम् । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥१९॥ इन्द्रदेव प्रत्येक दिन हमारे लिए प्रेरक उपदेशक हों। कपट तजकर हम उन्हें अन्नादि अर्पित करें। मित्र वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथ्वी और द्यौ हमारे इस निवेदन का अनुमोदन करें ॥१९॥

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