Skanda Upanishad (स्कन्दोपनिषत्)

॥ श्री हरि ॥ ॥अथ स्कन्दोपनिषत्॥ ॥ हरिः ॐ ॥ यत्रासंभवतां याति स्वातिरिक्तभिदाततिः ।। संविन्मात्रं परं ब्रह्म तत्स्वमात्रं विजृम्भते ॥ ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ १९॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ हरिः ॐ ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ स्कन्दोपनिषत्॥ स्कन्द उपनिषद अच्युतोऽस्मि महादेव तव कारुण्यलेशतः । विज्ञानघन एवास्मि शिवोऽस्मि किमतः परम् ॥ १॥ हे महादेव! आपकी लेश मात्र कृपा प्राप्त होने से मैं अच्युत (पतित या विचलित न होने वाला) विशिष्ट ज्ञान-पुञ्ज एवं शिव (कल्याणकारी) स्वरूप बन गया हूँ, इससे अधिक और क्या चाहिए? ॥१॥ न निजं निजवद्भाति अन्तःकरणजृम्भणात् । अन्तःकरणनाशेन संविन्मात्रस्थितो हरिः ॥ २॥ जब साधक अपने पार्थिव स्वरूप को भूलकर अपने अन्तःकरण का विकास करते हुए सबको अपने समान प्रकाशमान मानता है, तब उसका अपना अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) समाप्त होकर वहाँ एक मात्र परमेश्वर का अस्तित्व रहता है॥२॥ संविन्मात्रस्थितश्चाहमजोऽस्मि किमतः परम् । व्यतिरिक्तं जडं सर्वं स्वप्नवच्च विनश्यति ॥ ३॥ इससे अधिक क्या होगा कि मैं आत्मरूप में स्थित हैं और अजन्मा अनुभव करता हैं। इसके अतिरिक्त यह सम्पूर्ण जड़-जगत् स्वप्नवत् नाशवान् है॥३॥ चिज्जडानां तु यो द्रष्टा सोऽच्युतो ज्ञानविग्रहः । स एव हि महादेवः स एव हि महाहरिः ॥ ४॥ जो जड़-चेतन सबका द्रष्टारूप है, वही अच्युत (अटल) और ज्ञान स्वरूप है, वही महादेव और वही महाहरि (महान् पापहारक) है॥४॥ स एव हि ज्योतिषां ज्योतिः स एव परमेश्वरः । स एव हि परं ब्रह्म तद्ब्रह्माहं न संशयः ॥ ५॥ वही सभी ज्योतियों की मूल ज्योति है, वही परमेश्वर है, परब्रह्म है, मैं भी वही हैं, इसमें संशय नहीं है॥५॥ जीवः शिवः शिवो जीवः स जीवः केवलः शिवः । तुषेण बद्धो व्रीहिः स्यात्तुषाभावेन तण्डुलः ॥ ६॥ जीव ही शिव है और शिव ही जीव है। वह जीव विशुद्ध शिव ही है। (जीव-शिव) उसी प्रकार है, जैसे धान का छिलका लगे रहने पर व्रीहि और छिलका दूर हो जाने पर उसे चावल कहा जाता है॥६॥ एवं बद्धस्तथा जीवः कर्मनाशे सदाशिवः । पाशबद्धस्तथा जीवः पाशमुक्तः सदाशिवः ॥ ७॥ इस प्रकार बन्धन में बँधा हुआ (चैतन्य तत्त्व) जीव होता है और वही (प्रारब्ध) कर्मों के नष्ट होने पर सदाशिव हो जाता है अथवा दूसरे शब्दों में पाश में बँधा जीव 'जीव' कहलाता है और पाशमुक्त हो जाने पर सदाशिव हो जाता है ॥७॥ शिवाय विष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णवे । शिवस्य हृदयं विष्णुः विष्णोश्च हृदयं शिवः ॥ ८॥ भगवान् शिव ही भगवान् विष्णुरूप हैं और भगवान् विष्णु भगवान् शिवरूप हैं। भगवान् शिव के हृदय में भगवान् विष्णु का निवास है और भगवान् विष्णु के हृदय में भगवान् शिव विराजमान हैं॥८॥ यथा शिवमयो विष्णुरेवं विष्णुमयः शिवः । यथान्तरं न पश्यामि तथा मे स्वस्तिरायुषि ॥ ९॥ जिस प्रकार विष्णुदेव शिवमय हैं, उसी प्रकार देव शिव विष्णुमय हैं। जब मुझे इनमें कोई अन्तर नहीं दिखता, तो मैं इस शरीर में ही कल्याणरूप हो जाता हूँ। 'शिव' और 'केशव' में भी कोई भेद नहीं है॥९॥ यथान्तरं न भेदाः स्युः शिवकेशवयोस्तथा । देहो देवालयः प्रोक्तः स जीवः केवलः शिवः ॥ १०॥ तत्त्वदर्शियों द्वारा इस देह को ही देवालय कहा गया है और उसमें जीव केवल शिवरूप है। जब मनुष्य अज्ञानरूप कल्मष का परित्याग कर दे, तब वह सोऽहं भाव से उनका (शिव का) पूजन करे ॥१०॥ त्यजेदज्ञाननिर्माल्यं सोऽहंभावेन पूजयेत् । अभेददर्शनं ज्ञानं ध्यानं निर्विषयं मनः । स्नानं मनोमलत्यागः शौचमिन्द्रियनिग्रहः ॥ ११॥ सभी प्राणियों में ब्रह्म का अभेदरूप से दर्शन करना यथार्थ ज्ञान है और मन का विषयों से आसक्ति रहित होना-यह यथार्थ ध्यान है। मन के विकारों का त्याग करना यह यथार्थ स्नान है और इन्द्रियों को अपने वश में रखना-यह यथार्थ शौच (पवित्र होना) है॥११॥ ब्रह्मामृतं पिबेन्द्रेक्ष्यमाचरेद्देहरक्षणे । ं वसेदेकान्तिको भूत्वा चैकान्ते द्वैतवर्जिते । इत्येवमाचरेद्धीमान्स एवं मुक्तिमाप्नुयात् ॥ १२॥ ब्रह्मज्ञान रूपी अमृत का पान करे, शरीर रक्षा मात्र के लिए उपार्जन (भोजन ग्रहण) करे, एक परमात्मा में लीन होकर द्वैतभाव छोड़कर एकान्त ग्रहण करे। जो धीर पुरुष इस प्रकार का आचरण करता है, वही मुक्ति को प्राप्त करता है॥१२॥ श्रीपरमधाम्ने स्वस्ति चिरायुष्योन्नम इति । विरिञ्चिनारायणशङ्करात्मकं नृसिंह देवेश तव प्रसादतः । चिन्त्यमव्यक्तमनन्तमव्ययं वेदात्मकं ब्रह्म निजं विजानते ॥ १३॥ श्री परमधाम वाले (ब्रह्मा, विष्णु, शिव देव) को नमस्कार है, (हमारा) कल्याण हो, दीर्घायुष्य की प्राप्ति हो। हे विरञ्चि, नारायण एवं शंकर रूप नृसिंह देव! आपकी कृपा से उस अचिन्त्य, अव्यक्त, अनन्त, अविनाशी, वेद स्वरूप ब्रह्म को हम अपने आत्म स्वरूप में जानने लगे हैं॥ १३॥ तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥ १४ ॥ ऐसे ब्रह्मवेत्ता उस भगवान् विष्णु के परम पद को सदा ही (ध्यान मग्न होकर) देखते हैं, अपने चक्षुओं में उस दिव्यता को समाहित किये रहते हैं ॥१४॥ तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं पदम् । इत्येतन्निर्वाणानुशासनमिति वेदानुशासनमिति वेदानुशासनमित्युपनिषत् ॥ १५॥ विद्वज्जन ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर जो भगवान् विष्णु का परमपद है, उसी में लीन हो जाते हैं। यह सम्पूर्ण निर्वाण सम्बन्धी अनुशासन है, यह वेद का अनुशासन है। इस प्रकार यह उपनिषद् (रहस्य ज्ञान) है॥१५॥ ॥ इति कृष्णयजुर्वेदीय स्कन्दोपनिषत्समाप्ता ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ शान्तिपाठ ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ १९॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ ॥ इति कृष्णयजुर्वेदीय स्कन्दोपनिषत्समाप्ता ॥ ॥ कृष्णयजुर्वेदीय स्कन्द उपनिषद समात ॥

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