ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त ७

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त ७ ऋषिः- सोमाहुतिभार्गव देवता- अग्निः । छंद- गायत्री, श्रेष्ठं यविष्ठ भारताग्ने ह्युमन्तमा भर । वसो पुरुस्पृहं रयिम् ॥१॥ हे अतीव बलशाली अग्निदेव! आप सभी के पालक तथा सुख प्रदान करने वाले आश्रयदाता हैं, अतः महान् तेजस्वी तथा बहुतों द्वारा चाहा गया ऐश्वर्य हमें भरपूर मात्रा में प्रदान करें ॥१॥ मा नो अरातिरीशत देवस्य मर्त्यस्य च । पर्षि तस्या उत द्विषः ॥२॥ हे अग्निदेव ! देवताओं तथा मनुष्यों के दुश्मन हमारे ऊपर स्वामित्व स्थापित न करें। अपितु आप उन शत्रुओं से हमें बचायें ॥२॥ विश्वा उत त्वया वयं धारा उदन्या इव । अति गाहेमहि द्विषः ॥३॥ हे अग्निदेव ! जिस तरह जल की धारायें बड़ी चट्टानों को पार कर जाती हैं, उसी तरह आपका संरक्षण पाकर द्वेष करने वाले सम्पूर्ण शत्रुओं को हम पार कर जायें ॥३॥ शुचिः पावक वन्द्योऽग्ने बृहद्वि रोचसे । त्वं घृतेभिराहुतः ॥४॥ हे पवित्रता प्रदान करने वाले अग्निदेव ! आप पवित्र तथा वन्दना के योग्य हैं। आप घृत की आहुतियों से अत्यन्त प्रकाशित होते हैं ॥४॥ त्वं नो असि भारताग्ने वशाभिरुक्षभिः । अष्टापदीभिराहुतः ॥५॥ हे मनुष्यों के हितकारी अग्निदेव! आप हमारी सुन्दर गौओं, बैलों तथा गर्भिणी गौओं द्वारा पूजित हैं॥५॥ गवन्नः सर्पिरासुतिः प्रत्नो होता वरेण्यः । सहसस्पुत्रो अद्भुतः ॥६॥ इन अग्निदेव का भोजन समिधा रूपी अन्न हैं, जिनमें घृत का सिंचन किया जाता है, जो सनातन तथा होता रूप में वरण के योग्य हैं। बल से उत्पन्न ऐसे अग्निदेव अद्भुत गुणों के कारण रमणीय हैं॥६॥

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