ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ४८

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ४८ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - इन्द्रः । छंद - त्रिष्टुप सद्यो ह जातो वृषभः कनीनः प्रभर्तुमावदन्धसः सुतस्य । साधोः पिब प्रतिकामं यथा ते रसाशिरः प्रथमं सोम्यस्य ॥१॥ ये इन्द्रदेव उत्पन्न होते ही जल बरसाने वाले और रमणीय बन गये । इन्होंने हविष्यान्न युक्त सोम-प्रदाताओं का रक्षण किया हे देव ! सोमपान की अभिलाषा करने पर पहले आप दुग्ध मिश्रित सोमरस का पान करते हैं॥१॥ यज्जायथास्तदहरस्य कामेंऽशोः पीयूषमपिबो गिरिष्ठाम् । तं ते माता परि योषा जनित्री महः पितुर्दम आसिञ्चदग्रे ॥२॥ हे इन्द्रदेव ! जिस दिन आप प्रकट हुए थे, उसी दिन तृषित होने पर आपने पर्यंतस्थ सोमलता के रस का पान किया था। आपकी तरुणी माता अदिति ने आपके महान् पिता के गृह में स्तनपान कराने से पूर्व आपके मुख में इसी सोमरस का सिंचन किया था ॥२॥ उपस्थाय मातरमन्नमैट्ट तिग्ममपश्यद्भि सोममूधः । प्रयावयन्नचरद्गृत्सो अन्यान्महानि चक्रे पुरुधप्रतीकः ॥३॥ इन इन्द्रदेव ने माता की गोद में जाकर पोषक आहार की याचना की। तब उन्होंने माता के स्तनों में दुग्ध रूपी दीप्तिमान् सोम को देखा । वृद्धि को प्राप्त करके वे अन्यान्य शत्रुओं को उनके स्थान से हटाने लगे । तदनन्तर विविध रूपों को धारण करके इन्द्रदेव ने महान् पराक्रम प्रदर्शित किया ॥३॥ उग्रस्तुराषाळभिभूत्योजा यथावशं तन्वं चक्र एषः । त्वष्टारमिन्द्रो जनुषाभिभूयामुष्या सोममपिबच्चमूषु ॥४॥ ये इन्द्रदेव शत्रुओं के लिए उग्ररूप, उन्हें शीघ्रता से पराजित करने वाले और विविध बलों को धारण करने वाले हैं। उन्होंने इच्छा के अनुरूप शरीर को बनाया। उन्होंने अपनी सामर्थ्य से त्वष्टा नामक असुर का पराभव किया और पात्रों में रखा सोम चुपचाप पी लिया ॥४॥ शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ । शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि संजितं धनानाम् ॥५॥ हम इस जीवन-संग्राम में अपने संरक्षण के लिए ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव का आवाहन करते हैं, क्योंकि वे देव पवित्रता प्रदान करने वाले, देवमानवों का नेतृत्व करने वाले, म, स्तुतियों को ध्यानपूर्वक सुनने वाले, युद्धों में शत्रुओं का विनाश करने वाले और धनों को जीतने वाले हैं॥५॥

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