ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ८

ऋग्वेद–चतुर्थ मंडल सूक्त ८ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - अग्नि । छंद - गायत्री दूतं वो विश्ववेदसं हव्यवाहममर्त्यम् । यजिष्ठमृज्ञ्जसे गिरा ॥१॥ सम्पूर्ण ज्ञान से सम्पन्न हे अग्निदेव ! आप हविवाहक हैं। आप समस्त देव शक्तियों के प्रतिनिधि हैं, यज्ञ के साधनरूप हैं। हम आपसे स्तुति के माध्यम से अनुकूल होने की प्रार्थना करते हैं। आप सदा कृपावान् बने रहें ॥१॥ स हि वेदा वसुधितिं महाँ आरोधनं दिवः । स देवाँ एह वक्षति ॥२॥ महिमावान् वे अग्निदेव समस्त ऐश्वर्यों के ज्ञाता हैं। वे दिव्यलोक के श्रेष्ठतम स्थानों के भी ज्ञाता हैं। इसलिए वे समस्त इन्द्रादिदेवों का हमारे इस यज्ञ में आवाहन करें ॥२॥ स वेद देव आनमं देवाँ ऋतायते दमे । दाति प्रियाणि चिद्वसु ॥३॥ वे आलोकवान् अग्निदेव इन्द्रादिदेवों को नमन-वन्दन करने की विधि को जानते हैं। यज्ञ की कामना करने वालों को वे यज्ञ मण्डप में अभीष्ट ऐश्वर्य प्रदान करते हैं ॥३॥ स होता सेदु दूत्यं चिकित्वाँ अन्तरीयते । विद्वाँ आरोधनं दिवः ॥४॥ याजकों से प्राप्त हव्य को देवताओं तक पहुँचाने वाले वे होतारूप अग्निदेव दूत के कार्य को भली-भाँति जानने वाले हैं। वे स्वर्ग लोक के आरोहण-योग्य स्थान को जानने वाले तथा सब जगह विद्यमान रहते हैं ॥४॥ ते स्याम ये अग्नये ददाशुर्हव्यदातिभिः । य ईं पुष्यन्त इन्धते ॥५॥ जो याजक आहुति प्रदान करके उन अग्निदेव को हर्षित करते हैं; उन्हें समिधाओं द्वारा प्रज्वलित करते हुए समृद्ध करते हैं, ऐसे याजक के समान हम भी यज्ञादि श्रेष्ठ कर्म करते हुए अग्निदेव को प्रसन्न करें ॥५॥ ते राया ते सुवीर्यैः ससवांसो वि शृण्विरे । ये अग्ना दधिरे दुवः ॥६॥ जो याजक अग्निदेव को हवि प्रदान करते हुए उनकी सेवा करते हैं, वे समस्त ऐश्वर्यों से सम्पन्न होकर प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं। ऐसे याजक शक्तिशाली पुत्रों आदि से भी सम्पन्न होते हैं ॥६॥ अस्मे रायो दिवेदिवे सं चरन्तु पुरुस्पृहः । अस्मे वाजास ईरताम् ॥७॥ अनेकों द्वारा स्पृहणीय ऐश्वर्य नित्य हमारे समीप आए। वे अग्निदेव हमारे यज्ञों में विविध प्रकार से धन-धान्य प्रदान करें ॥७॥ स विप्रश्चर्षणीनां शवसा मानुषाणाम् । अति क्षिप्रेव विध्यति ॥८॥ वे मेधावी अग्निदेव अपनी सामर्थ्य द्वारा मानवों के कष्टों को द्रुतगामी बाणों के सदृश तीक्ष्ण प्रहार करके पूर्णरूपेण नष्ट कर देते हैं ॥८॥

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