ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १३८

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १३८ ऋषि - पुरूच्छेपो दैवोदासिः देवता- पूषा । छंद अत्यष्टि - प्रप्र पूष्णस्तुविजातस्य शस्यते महित्वमस्य तवसो न तन्दते स्तोत्रमस्य न तन्दते । अर्चामि सुम्नयन्नहमन्त्यूतिं मयोभुवम् । विश्वस्य यो मन आयुयुवे मखो देव आयुयुवे मखः ॥१॥ शक्ति के साथ उत्पन्न होने से पूषादेव की महिमा का सभी जगह गान होता है। इनकी सामर्थ्य को दबाना सम्भव नहीं तथा इनके प्रति स्तुतिगानों की कभी कमी नहीं रहती। जो देव यज्ञकर्ताओं के मनों में पारस्परिक सहयोग भावना जगाते हैं तथा जो तेजस्विता युक्त यज्ञों को सम्पन्न करते हैं ऐसे संरक्षण सामथ्र्यों से युक्त, सुख-प्रदायक पूषादेव से अभीष्ट सुखों की प्राप्ति के लिए हम अर्चना करते हैं॥१॥ प्र हि त्वा पूषन्नजिरं न यामनि स्तोमेभिः कृण्व ऋणवो यथा मृध उष्ट्रो न पीपरो मृधः । हुवे यत्त्वा मयोभुवं देवं सख्याय मर्त्यः । अस्माकमाङ्‌गुषान्‌युग्म्निनस्कृधि वाजेषु द्युम्निनस्कृधि ॥२॥ हे पूषादेव ! जिस प्रकार मनुष��य तीव्र गतिशील अश्व को प्रशंसा द्वारा प्रोत्साहित करते हैं अथवा जिस प्रकार संग्राम की ओर प्रयाण करने वाले वीर को प्रोत्साहित करते हैं, उसी प्रकार हम स्तोत्रवाणियों द्वारा आपको प्रोत्साहित करते हैं। आप मरुस्थल से ऊँट द्वारा यात्रियों को पार उतारने के समान ही हिंसक शत्रुओं से हमें सुरक्षित करें। आप हमारी वाणी में प्रखरता लायें, सभी संघर्षों में हमें तेजस्विता युक्त करें । मैत्री भावना के लिए सुखकारी आप (पूषादेव) को ही हम सभी मनुष्य आवाहित करते हैं ॥२॥ यस्य ते पूषन्त्सख्ये विपन्यवः क्रत्वा चित्सन्तोऽवसा बुभुज्रिर इति क्रत्वा बुभुज्रिरे । तामनु त्वा नवीयसीं नियुतं राय ईमहे । अहेळमान उरुशंस सरी भव वाजेवाजे सरी भव ॥३॥ हे पूषादेव ! आपकी मैत्री भावना के ज्ञाता वीर पुरुष अपनी पुरुषार्थ क्षमता एवं आपके संरक्षण से सभी उपभोग्य पदार्थों को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार से सभी मनुष्य अपने पुरुषार्थ से ही उपभोग्य सामग्री को प्राप्त करने के लिए किसी की दया के पात्र नहीं बनते। उस श्रेष्ठ बुद्धि के अनुशासन के अधीन रहकर आपसे हम धन की कामना करते हैं। हे बहुसंख्यकों से स्तुत्य पूषादेव! आप प्रत्येक संघर्षशील संग्राम में हमारा सहयोग करें ॥३॥ अस्या ऊषुण उप सातये भुवोऽहेळमानो ररिवाँ अजाश्व श्रवस्यतामजाश्व। ओ षु त्वा ववृतीमहि स्तोमेभिर्दस्म साधुभिः । नहि त्वा पूषन्नतिमन्य आघृणे न ते सख्यमपनुवे ॥४॥ हे पूषादेव ! आप हमें वैभव- सम्पन्न बनाने के लिए प्रेम भाव से दानदाता बनकर यहाँ पधारें। हे दर्शनयोग्य पूषादेव ! अन्न के इच्छुक आप हमारे पास आयें, हम श्रेष्ठ स्तवनों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं। हे जल वर्षक पूषादेव ! हम आपके द्वारा अनादर से परे रहें, आपकी मैत्री से कभी वञ्चित न हों ॥४॥

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