ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ४३

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ४३ ऋषिः भौमोऽत्रिः देवता - विश्वेदेवा । छंद त्रिष्टुप, १६ एकपदा विराट् आ धेनवः पयसा तूर्ण्यर्था अमर्धन्तीरुप नो यन्तु मध्वा । महो राये बृहतीः सप्त विप्रो मयोभुवो जरिता जोहवीति ॥१॥ द्रुत वेग से प्रवाहित होने वाली, (जल से परिपूर्ण) नदियाँ अनुकूल होकर हमारे निकट आगमन करें। ज्ञान सम्पन्न स्तोतागण धन प्राप्ति की कामना से सुखदायिनी सप्त महानदियों का आवाहन करते हैं ॥१॥ आ सुष्टुती नमसा वर्तयध्यै द्यावा वाजाय पृथिवी अमृधे । पिता माता मधुवचाः सुहस्ता भरेभरे नो यशसावविष्टाम् ॥२॥ हम अन्न प्राप्ति के लिए उत्तम स्तुतियों और नमन-अभिवादन द्वारा अहिंसक आकाश और पृथिवी का आवाहन करते हैं। वे मधुर वचन वाले, कुशल हाथों वाले और यशस्वी पिता रूप आकाश और माता पृथिवी प्रत्येक युद्ध में हमारी रक्षा करें ॥२॥ अध्वर्यवश्चकृवांसो मधूनि प्र वायवे भरत चारु शुक्रम् । होतेव नः प्रथमः पाह्यस्य देव मध्वो ररिमा ते मदाय ॥३॥ हे अध्वर्युगण ! आप मधुर सोमरस का अभिषव करते हुए सुन्दर और दीप्तिमान् रस सर्वप्रथम वायुदेव को अर्पित करें। हे वायुदेव ! आप होता रूप में हमारे द्वारा प्रदत्त सोमरस का सर्वप्रथम पान करें। हम आपको हर्षित करने के लिए यह मधुर सोमरस निवेदित करते हैं ॥३॥ दश क्षिपो युज्ञ्जते बाहू अद्रिं सोमस्य या शमितारा सुहस्ता । मध्वो रसं सुगभस्तिर्गिरिष्ठां चनिश्चदद्‌दुदुहे शुक्रमंशुः ॥४॥ ऋत्विजों की दसों अँगुलियाँ और दोनों भुजाएँ पाषाण से युक्त होकर सोमरस-अभिषव में प्रयुक्त होती हैं। कुशल हाथों वाले ऋत्विज् अत्यन्त हर्षयुक्त मन से पर्वत पर उत्पन्न सोम वल्ली से रसों का दोहन करते हैं, जिससे दीप्तिमान् सोमरस की धारा बहती है ॥४॥ असावि ते जुजुषाणाय सोमः क्रत्वे दक्षाय बृहते मदाय । हरी रथे सुधुरा योगे अर्वागिन्द्र प्रिया कृणुहि हूयमानः ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! आपकी परिचर्या के लिए, पराक्रमयुक्त कार्य के लिए, बल के लिए और महान् हर्ष के लिए हम सोमाभिषव करते हैं। है इन्द्रदेव ! हमारे द्वारा आवाहन किये जाने पर आप उत्तम धुरी वाले रथ से योजित प्रिय अश्वों के साथ हमारे यज्ञ में आएँ ॥५॥ आ नो महीमरमतिं सजोषा ग्नां देवीं नमसा रातहव्याम् । मधोर्मदाय बृहतीमृतज्ञामाग्ने वह पथिभिर्देवयानैः ॥६॥ हे अग्निदेव ! हमारे द्वारा प्रीतिपूर्वक सेवित होकर आप सर्वत्र व्याप्त, यज्ञ को जानने वाली महान् तेजस्विनी 'ग्ना' देवी को देवों द्वारा गन्तव्य मार्ग से हमारे पास लाएँ। वह देवी हमारे द्वारा नम्रतापूर्वक निवेदित हव्य पदार्थों और मधुर सोमरस को ग्रहण करके हर्षित हों ॥६॥ अज्ञ्जन्ति यं प्रथयन्तो न विप्रा वपावन्तं नाग्निना तपन्तः । पितुर्न पुत्र उपसि प्रेष्ठ आ घर्मो अग्निमृतयन्नसादि ॥७॥ रूपवान् शरीर को अलंकारों से पूर्ण करने के समान ज्ञानी पुरुष यज्ञ कुण्ड को यज्ञ-साधन व्यादि से पूर्ण करते और अग्नि से तपाते हैं । यह यज्ञकुण्ड यज्ञ सम्पन्न करने के लिए अपने भीतर अग्नि को उसी प्रकार धारण करता है, जिस प्रकार पिता अपने प्रिय पुत्र को गोद में धारण करता है ॥७॥ अच्छा मही बृहती शंतमा गीर्दूतो न गन्त्वश्विना हुवध्यै । मयोभुवा सरथा यातमर्वाग्गन्तं निधिं धुरमाणिर्न नाभिम् ॥८॥ पूज्य, महान् और सुखप्रद हमारी वाणी अश्विनीकुमारों को इस यज्ञ- स्थल पर बुलाने के लिए दूत रूप में सीधी गमन करे हे सुखदायक अश्विनीकुमारो ! गमनशील रथ की धुरी की नाभि में लगी हुई कील के समान आप हमारे यज्ञ के मुख्य आधार हैं। अतएव आप रथ पर आरूढ़ होकर हमारे यज्ञ में निधि के रूप में दर्शनीय हों ॥८॥ प्र तव्यसो नमउक्तिं तुरस्याहं पूष्ण उत वायोरदिक्षि । या राधसा चोदितारा मतीनां या वाजस्य द्रविणोदा उत त्मन् ॥९॥ अत्यन्त बलशाली और वेगपूर्वक गमन करने वाले पूषा और वायुदेव के लिए हम नमस्कारपूर्वक स्तुति वचनों को कहते हैं। ये पूषा और वायुदेव आराधना किए जाने पर बुद्धि को प्रेरित करते हैं और आराधक को उत्तम अन्न एवं बल से युक्त करते हैं ॥९॥ आ नामभिर्मरुतो वक्षि विश्वाना रूपेभिर्जातवेदो हुवानः । यज्ञं गिरो जरितुः सुष्टुतिं च विश्वे गन्त मरुतो विश्व ऊती ॥१०॥ प्राणिमात्र को जानने वाले हे अग्निदेव ! हमारे आवाहन किये जाने पर आप विभिन्न नामों वाले और विभिन्न रूपों वाले मरुतों के साथ उपस्थित हों । हे मरुतो ! आप सब स्तोताओं की वाणी युक्त उत्तम स्तुतियों को श्रवण कर उत्तम रक्षण-साधनों सहित हमारे यज्ञस्थल पर पधारें ॥१०॥ आ नो दिवो बृहतः पर्वतादा सरस्वती यजता गन्तु यज्ञम् । हवं देवी जुजुषाणा घृताची शग्मां नो वाचमुशती शृणोतु ॥११॥ हम सभी लोगों द्वारा पूजनीय सरस्वती देवी द्युलोक से और पर्वतों से हमारे यज्ञ में पहुँचे। घृत सदृश कान्तिमती वे देवी हमारी हवियों को स्वीकार करती हुई स्वेच्छा से हमारे सुखकारी वचनों का श्रवण करें ॥११॥ आ वेधसं नीलपृष्ठं बृहन्तं बृहस्पतिं सदने सादयध्वम् । सादद्योनिं दम आ दीदिवांसं हिरण्यवर्णमरुषं सपेम ॥१२॥ अत्यन्त मेधावी, नील वर्ण प्रभायुक्त शरीर वाले, महान् बृहस्पतिदेव हमारे यज्ञगृह में अधिष्ठित हों। यज्ञगृह के मध्य श्रेष्ठ स्थान में प्रतिष्ठित दीप्तिमान, स्वर्णिम आभा सम्पन्न, प्रकाशक देव बृहस्पति की हम सब सेवा करें ॥१२॥ आ धर्णसिबृहद्दिवो रराणो विश्वभिर्गन्त्वोमभिहुवानः । ग्ना वसान ओषधीरमृध्रस्त्रिधातुशृङ्गो वृषभो वयोधाः ॥१३॥ सम्पूर्ण जगत् को धारण करने वाले अग्निदेव, सम्पूर्ण रक्षण साधनों के साथ हमारे यज्ञस्थल पर आगमन करें। वे अत्यन्त दीप्तिमान्, आनन्दप्रद और सबके द्वारा आवाहन किये जाने वाले हैं। वे अग्निदेव प्रज्वलित शिखावाले, ओषधि से आच्छादित होने वाले, अबाधगति वाले, त्रिवर्ण (रोहित, शुक्ल और कृष्ण वर्ण) ज्वालाओं वाले हैं। वे अभीष्टवर्धक और अन्नों के धारणकर्ता हैं ॥१३॥ मातुष्पदे परमे शुक्र आयोर्विपन्यवो रास्पिरासो अग्मन् । सुशेव्यं नमसा रातहव्याः शिशुं मृजन्त्यायवो न वासे ॥१४॥ सम्पूर्ण होता और ऋत्विग्गण मातृरूप पृथ्वी के शुभ और अत्यन्त उच्च स्थान (उत्तर वेदी) पर गमन करते हैं। जैसे कोमल शिशु को वस्त्रों से आच्छादित करते हैं, वैसे हीं नवजात सुखकारक अग्नि पर हविदाता यजमान स्तुतियों के साथ हविष्यान्न का आवरण बनाते हैं ॥१४॥ बृहद्वयो बृहते तुभ्यमग्ने धियाजुरो मिथुनासः सचन्त । देवोदेवः सुहवो भूतु मह्यं मा नो माता पृथिवी दुर्मतौ धात् ॥१५॥ हे अग्निदेव ! आप अत्यन्त महान् स्वरूप वाले हैं। आपकी स्तुति करते हुए बुढ़ापे को प्राप्त ये दम्पती (पति-पत्नी) एक साथ आपको विपुल अन्न देते रहे हैं। हे देवों के देव अग्निदेव ! आप हमारे उत्तम आवाहन से बुलाए जाते हैं। मातृरूप पृथ्वी हमें दुर्बुद्धि में स्थापित न करे ॥१५॥ उरौ देवा अनिबाधे स्याम ॥१६॥ हे देवो ! हम आपके अनुग्रह से निर्बाधित रहकर अतिशय विस्तृत सुखों में निमग्न रहें ॥१६॥ समश्विनोरवसा नूतनेन मयोभुवा सुप्रणीती गमेम । आ नो रयिं वहतमोत वीराना विश्वान्यमृता सौभगानि ॥१७॥ हम लोग अश्विनीकुमारों के मंगलकारी, सुखकारी अनुग्रहों और उनके रक्षण-साधनों से संयुक्त हों, जो अतिशय नूतन हों । हे अविनाशी अश्विनीकुमारो ! आप हमें उत्तम ऐश्वर्य, वीर सन्तान और सम्पूर्ण सौभाग्य प्रदान करें ॥१७॥

Recommendations