ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १३९

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १३९ ऋषि - पुरूच्छेपो दैवोदासिः देवता - १ विश्वदेवा, २ मित्रवरुणो, ३-५ आश्विनौ, ६ इन्द्र, ७ अग्नि, ८ मरुतः, ९ इंद्राग्नि, १० बृहस्पति, ११ विश्वेदेवा । छंद - अत्यष्टि, ५ बृहती, ११ त्रिष्टुप अस्तु श्रौषट् पुरो अग्निं धिया दध आ नु तच्छर्धी दिव्यं वृणीमह इन्द्रवायू वृणीमहे । यद्ध क्राणा विवस्वति नाभा संदायि नव्यसी । अध प्र सून उप यन्तु धीतयो देवाँ अच्छा न धीतयः ॥१॥ हमने अग्निदेव को बुद्धिपूर्वक धारण किया है। उस दिव्य प्रदीप्त ज्योति की हम आराधना करते हैं। नवीन याज्ञिक की यज्ञवेदी पर आकर, मनोरथ पूरे करने वाले इन्द्रदेव और वायुदेव की हम प्रार्थना करते हैं। हमारी स्तुति निश्चित ही देवताओं के पास पहुँचे । हमारी प्रार्थनाएँ देवों तक अवश्य पहुँचे ॥१॥ यद्ध त्यन्मित्रावरुणावृतादध्याददाथे अनृतं स्वेन मन्युना दक्षस्य स्वेन मन्युना । युवोरित्थाधि सद्मस्वपश्याम हिरण्ययम् । धीभिश्चन मनसा स्वेभिरक्षभिः सोमस्य स्वेभिरक्षभिः ॥२॥ हे मित्रावरुणो ! आप दोनों निज सामर्थ्य से सत्यवादिता द्वारा असत्यवादियों को अनुशासित करते हैं तथा अपनी शक्ति-सामर्थ्य से उनके ऊपर शासन करते हैं। अतएव आप दोनों की स्वर्णिम तेजस्विता को अपनी बुद्धि, मन, इन्द्रियशक्ति तथा ज्ञान सामर्थ्य के द्वारा हम प्रत्यक्ष देखते हैं॥२॥ युवां स्तोमेभिर्देवयन्तो अश्विनाश्रावयन्त इव श्लोकमायवो युवां हव्याभ्यायवः । युवोर्विश्वा अधि श्रियः पृक्षश्च विश्ववेदसा । प्रुषायन्ते वां पवयो हिरण्यये रथे दस्रा हिरण्यये ॥३॥ हे अश्विनीकुमारो ! देवताओं के प्रति श्रद्धा भावना से युक्त मनुष्य स्तवनों द्वारा आप दोनों का यशोगान करते हैं। श्रद्धावान् याजक आप दोनों का आवाहन करते हैं। आप दोनों के सर्वज्ञ होने से, समस्त वैभव सम्पदाएँ और अन्न आप दोनों के ही आश्रित हैं। हे मनोहारी देवो ! सुन्दर स्वर्णिम रथ के चक्र आपको वहन करते हैं॥३॥ अचेति दस्रा व्यु नाकमृण्वथो युञ्जते वां रथयुजो दिविष्टिष्वध्वस्मानो दिविष्टिषु । अधि वां स्थाम वन्धुरे रथे दस्रा हिरण्यये । पथेव यन्तावनुशासता रजोऽज्ञ्जसा शासता रजः ॥४॥ हे सुन्दर अश्विनीकुमारो ! आप दोनों सारथी रूप में स्वर्गस्थ मार्गों पर, तीव्र गतिशील अश्वों को रथ में नियोजित करके स्वर्ग पहुँचते हैं, ऐसा सभी का कथन है। हे उत्तम अश्विदेवो! आप दोनों को हम भली प्रकार बन्धन युक्त स्वर्णिम रथ में विराजित करते हैं। आप दोनों अपनी सामर्थ्य से सम्पूर्ण लोकों पर शासन करते हुए जल पर नियन्त्रण रखकर निजमार्गों से प्रस्थान करते हैं॥४॥ शचीभिर्नः शचीवसू दिवा नक्तं दशस्यतम् । मा वां रातिरुप दसत्कदा चनास्मद्रातिः कदा चन ॥५॥ हे पुरुषार्थयुक्त, वैभव सम्पन्न अश्विदेवो! आप दोनों हमारे श्रेष्ठ कर्मों से प्रसन्न होकर हमें अनवरत (रात-दिन) धन प्रदान करें। आपके द्वारा प्रदत्त ऐश्वर्यों में कभी कमी न आये। हमारे सार्थक अनुदानों में भी कभी कमी न आये ॥५॥ वृषन्निन्द्र वृषपाणास इन्दव इमे सुता अद्रिषुतास उद्भिदस्तुभ्यं सुतास उद्भिदः । ते त्वा मन्दन्तु दावने महे चित्राय राधसे । गीर्भिर्गिर्वाहः स्तवमान आ गहि सुमृळीको न आ गहि ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! यह पत्थर द्वारा कूटकर सामर्थ्य - शक्ति के निमित्त पानयोग्य सोमरस अभिषवण करके स्थापित है। यह स्थापित सोमरस आपके पीने के लिए शोधित किया गया है। सुन्दर महान् वैभव प्रदान करने के लिए यह (सोम) आपको उत्साहित करे। हे प्रशंसनीय इन्द्रदेव ! वाणी द्वारा की गई प्रार्थनाओं से आप यहाँ पधारें। प्रसन्नतापूर्वक आप हमारे यहाँ उपस्थित हों ॥६॥ ओ षू णो अग्ने शृणुहि त्वमीळितो देवेभ्यो ब्रवसि यज्ञियेभ्यो राजभ्यो यज्ञियेभ्यः । यद्ध त्यामङ्गिरोभ्यो धेनुं देवा अदत्तन । वि तां दुहे अर्यमा कर्तरी सचाँ एष तां वेद मे सचा ॥७॥ हे अग्निदेव ! हमारी प्रार्थनाओं से प्रसन्न होकर आप हमारे निवेदन पर ध्यान दें। अति पूजनीय देदीप्यमान देवों से कहें कि हे देवो ! आपने गौओं को अंगिराओं के लिए प्रदान किया, उन गौओं को इकट्ठा करते हुए अर्यमा ने उन्हें दुहा। ऐसी गौओं से अर्यमा और हम दोनों ही परिचित हैं॥७॥ मो षु वो अस्मदभि तानि पौंस्या सना भूवन्द्‌युम्नानि मोत जारिषुरस्मत्पुरोत जारिषुः । यद्वश्चित्रं युगेयुगे नव्यं घोषादमर्त्यम् । अस्मासु तन्मरुतो यच्च दुष्टरं दिधृता यच्च दुष्टरम् ॥८॥ हे मरुद्गणो ! पुरातनकाल की आपकी पराक्रमी सामथ्र्यों को हम कभी विस्मृत न करें । उसी प्रकार हमारी कीर्ति सदैव अक्षुण्ण रहे तथा हमारे नगरों का विध्वंस न हो। आश्चर्यप्रद, स्तुतियोग्य और अमृतरूपी रस प्रदान करने वाली गौओं से सम्बन्धित तथा मनुष्य मात्र के लिए जो धन सम्पदाएँ हैं, वे सभी युगों-युगों तक हमारे पास विद्यमान रहें । कठिनाई से प्राप्त होने योग्य जो सम्पदाएँ हैं, उन्हें भी आप हमें प्रदान करें ॥८॥ दध्य मे जनुषं पूर्वी अङ्गिराः प्रियमेधः कण्वो अत्रिर्मनुर्विदुस्ते मे पूर्वे मनुर्विदुः । तेषां देवेष्वायतिरस्माकं तेषु नाभयः । तेषां पदेन मह्या नमे गिरेन्द्राग्नी आ नमे गिरा ॥९॥ पुरातन कालीन दध्यङ्, अंगिरा, प्रियमेध, कण्व, अत्रि और 'मनु' ये सभी ऋषि हम मनुष्यों के सभी जन्मों को जानते हैं। वे मननशील ज्ञानी हमारे पूर्वजों को जानते हैं। उन ऋषियों का देवताओं के साथ अति निकटस्थ सम्बन्ध हैं। साधारण मनुष्य देवों से ही शक्ति - ऊर्जा प्राप्त करते हैं। उन्हीं देवों के अनुगामी बनकर, हम हृदय से उन्हें प्रणाम करते हैं। स्तोत्रों से हम इन्द्राग्नी की प्रार्थना करते हैं॥९॥ होता यक्षद्वनिनो वन्त वार्य बृहस्पतिर्यजति वेन उक्षभिः पुरुवारेभिरुक्षभिः । जगृभ्मा दूरआदिशं श्लोकमद्रेरध त्मना । अधारयदररिन्दानि सुक्रतुः पुरू सद्मानि सुक्रतुः ॥१०॥ यज्ञकर्ता यज्ञ द्वारा विभिन्न कामनाओं को पूर्ण करें। कल्याणकारी बृहस्पति, सामर्थ्यप्रद तथा विभिन्न लोगों द्वारा वांछित सोम से यज्ञ सम्पन्न करें । दूरस्थ दिशा से आ रहीं पत्थरों द्वारा सोमवल्ली कूटने की ध्वनि हम स्वयमेव सुनते हैं। सत्कर्म रूपी यज्ञीय कार्यों को करने वाले मनुष्य जल तथा अन्नादि से भरे पूरे (सम्पन्न) रहते हैं। श्रद्धालु मन द्वारा याज्ञिक मनुष्य प्रचुर वैभव युक्त गृहों से सुशोभित रहते हैं॥१०॥ ये देवासो दिव्येकादश स्थ पृथिव्यामध्येकादश स्थ । अप्सुक्षितो महिनैकादश स्थ ते देवासो यज्ञमिमं जुषध्वम् ॥११॥ हे देवो ! आप पृथ्वी, अन्तरिक्ष और देवलोक इन तीनों लोकों में ग्यारह-ग्यारह की संख्या में हैं। हे देवगण! आप सभी इन आहुतियों को ग्रहण करें ॥११॥

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