ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ३५

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त ३५ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - ऋभवः । छंद - त्रिष्टुप इहोप यात शवसो नपातः सौधन्वना ऋभवो माप भूत । अस्मिन्हि वः सवने रत्नधेयं गमन्त्विन्द्रमनु वो मदासः ॥१॥ सुधन्वा के बलशाली पुत्र हे ऋभुओ! आप हमारे समीप पधारें, हमसे दूर न जायें। इस यज्ञ मण्डप में रत्नप्रदाता इन्द्रदेव को प्रदान किया जाने वाला हर्षकारक सोमरस आपको भी प्राप्त हो ॥१॥ आगन्नृभूणामिह रत्नधेयमभूत्सोमस्य सुषुतस्य पीतिः । सुकृत्यया यत्स्वपस्यया चॅ एकं विचक्र चमसं चतुर्धा ॥२॥ हे ऋभुओ ! आपका रत्न आदि दान हमारे समीप आए। आप भली प्रकार अभिषुत सोमरस का पान करते रहें, क्योंकि आपने अपने कौशल तथा कर्म की इच्छा द्वारा एक चमस को चार प्रकार से विनिर्मित किया है ॥२॥ व्यकृणोत चमसं चतुर्धा सखे वि शिक्षेत्यब्रवीत । अथैत वाजा अमृतस्य पन्थां गणं देवानामृभवः सुहस्ताः ॥३॥ हे ऋभुओ ! आपने एक चमस को चार प्रकार से बनाया था तथा कहा था-हे मित्र (अग्नि) देव ! आप कृपा करें। (तब अग्नि ने उत्तर दिया) हे ऋभुओ ! आप अविनाशी पथ पर गमन करें। आप कुशल हाथ वाले हैं। आप देव पथ पर चलते हुए अमरता प्राप्त करें ॥३॥ किम्मयः स्विच्चमस एष आस यं काव्येन चतुरो विचक्र । अथा सुनुध्वं सवनं मदाय पात ऋभवो मधुनः सोम्यस्य ॥४॥ हे ऋभुओ ! जिस चमस को आपने अपने कौशल द्वारा चार प्रकार का बनाया, वह चमस किस वस्तु से विनिर्मित था । हे ऋत्विजो ! हर्षित होने के लिए आप सब सोमरस अभिषुत करें। हे ऋभुओ ! आप सब मधुर सोमरस का पान करें ॥४॥ शच्याकर्त पितरा युवाना शच्याकर्त चमसं देवपानम् । शच्या हरी धनुतरावतष्टेन्द्रवाहावृभवो वाजरत्नाः ॥५॥ हे ऋभुओ ! आपने कर्म-कौशल के द्वारा अपने माता-पिता को युवा बनाया तथा चमस को देवताओं के पीने योग्य बनाया। रमणीय ऐश्वर्य वाले हे ऋभुओ ! आपने अपने कौशल के द्वारा इन्द्रदेव को वहन करने वाले अश्वों को बाण से भी ज्यादा वेगवान् बनाया ॥५॥ यो वः सुनोत्यभिपित्वे अह्नां तीव्र वाजासः सवनं मदाय । तस्मै रयिमृभवः सर्ववीरमा तक्षत वृषणो मन���दसानाः ॥६॥ हे ऋभुओ ! आप सब अन्न से सम्पन्न हैं। दिन के अवसान काल में याजकगण आपको आनन्द प्रदान करने के लिए सोमरस अभिषुत करते हैं। हे बलशाली ऋभुओ! आप हर्षित होकर उन याजकों को हर प्रकार से पराक्रमी, उत्तम सन्तानों से सम्पन्न ऐश्वर्य प्रदान करते हैं ॥६॥ प्रातः सुतमपिबो हर्यश्व माध्यंदिनं सवनं केवलं ते । समृभुभिः पिबस्व रत्नधेभिः सखींर्या इन्द्र चकृषे सुकृत्या ॥७॥ श्रेष्ठ अश्वों से सुशोभित हे इन्द्रदेव! आप प्रातः काल अभिषुत किये गये सोमरस का पान करें। मध्याह्न काल का सोमरस भी आपके निमित्त ही है। हे इन्द्रदेव! उत्तम कार्य करते हुए आपने जिन रत्न- प्रदाता ऋभुओं से मित्रता स्थापित की है, उनके साथ सोमरस का पान करें ॥७॥ ये देवासो अभवता सुकृत्या श्येना इवेदधि दिवि निषेद । ते रत्नं धात शवसो नपातः सौधन्वना अभवतामृतासः ॥८॥ हे ऋभुओ ! आप सत्कर्म करने के कारण देवता बने हैं। अमरत्व प्रदान करने वाले हे सुधन्वा के पुत्रों! आप श्येन पक्षी के समान द्युलोक में प्रतिष्ठित हों तथा सभी प्रकार से धन-ऐश्वर्य प्रदान करें ॥८॥ यत्तृतीयं सवनं रत्नधेयमकृणुध्वं स्वपस्या सुहस्ताः । तदृद्भवः परिषिक्तं व एतत्सं मदेभिरिन्द्रियेभिः पिबध्वम् ॥९॥ श्रेष्ठ हाथों वाले हे ऋभुओ! आपने तृतीय सवन को अपने सत्कर्मों के द्वारा ऐश्वर्य प्रदान करने वाला बनाया है। हे ऋभुओ ! हर्षित इन्द्रियों के साथ अभिषुत सोमरस को आप ग्रहण करें ॥९॥

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