ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ५८

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ५८ ऋषिः श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः । छंद - त्रिष्टुप तमु नूनं तविषीमन्तमेषां स्तुषे गणं मारुतं नव्यसीनाम् । य आश्वश्वा अमवद्वहन्त उतेशिरे अमृतस्य स्वराजः ॥१॥ हम निश्चय ही उन बल-सम्पन्न, स्तुत्य मरुद्गणों की स्तुति करें। वे मरुद्गण द्रुतगामी अश्वों के स्वामीं, वेगपूर्वक गमन करने वाले तथा अमृत के शासक हैं ॥१॥ त्वेषं गणं तवसं खादिहस्तं धुनिव्रतं मायिनं दातिवारम् । मयोभुवो ये अमिता महित्वा वन्दस्व विप्र तुविराधसो नृन् ॥२॥ हे ज्ञानी पुरुष ! उन तेजस्वी, बल-सम्पन्न, हाथ में कड़े धारण करने वाले, शत्रुओं को कैंपाने वाले, कुशल वीर, धन प्रदाता मरुतों की स्तुति करें। जो अत्यन्त सुखदायक हैं, महत्ता से परिपूर्ण हैं, अत्यन्त सामर्थ्यवान् और विपुल ऐश्वर्य के स्वामी हैं, उनकी वन्दना करें ॥२॥ आ वो यन्तूदवाहासो अद्य वृष्टिं ये विश्वे मरुतो जुनन्ति । अयं यो अग्निर्मरुतः समिद्ध एतं जुषध्वं कवयो युवानः ॥३॥ ये सभी मरुद्गण जो वृष्टि को प्रेरित करते हैं, जल को वन करते हैं, आज हमारे अभिमुख आगमन करें। हे तरुण और ज्ञानी मरुतो ! आपके निमित्त जो अग्नि प्रज्वलित है; उससे हव्यादि का प्रीतिपूर्वक सेवन करें ॥३॥ यूयं राजानमिर्यं जनाय विभ्वतष्टं जनयथा यजत्राः । युष्मदेति मुष्टिहा बाहुजूतो युष्मत्सदश्वो मरुतः सुवीरः ॥४॥ हे यजनीय मरुतो ! आप जनकल्याण के लिए यजमान को पुत्र प्राप्त कराते हैं, जो तेजस्वी, शत्रु संहारक और क्षमतावान् हों। हे मरुतो ! आपसे ही लोग मुष्टि युद्धों में बाहुबल प्राप्त करते हैं और आपसे ही लोग अश्वों के नियन्ता उत्तम वीर पुत्र प्राप्त करते हैं ॥४॥ अरा इवेदचरमा अहेव प्रप्र जायन्ते अकवा महोभिः । पृश्नेः पुत्रा उपमासो रभिष्ठाः स्वया मत्या मरुतः सं मिमिक्षुः ॥५॥ पहिये के आरों के सदृश सभी मरुद्गण एक समान दीखते हैं। ये अवर्णनीय मरुद्गण दिवस के सदृश अति महान् तेजों से संयुक्त होकर एक समान प्रकट होते हैं। भूमि-पुत्र ये मरुद्गण समान मास में जन्मे हैं। अतिशय वेगवान् ये मरुद्गण सम्मिलित होकर स्वयं प्रवृत्त होकर वृष्टि आदि कार्यों का सम्पादन करते हैं ॥५॥ यत्प्रायासिष्ट पृषतीभिरश्वैर्वीळुपविभिर्मरुतो रथेभिः । क्षोदन्त आपो रिणते वनान्यवोस्रियो वृषभः क्रन्दतु द्यौः ॥६॥ हे मरुतो ! जब बिन्दुदार अश्वों और सुदृढ़ चक्रों से योजित रथों द्वारा आप आगमन करते हैं, तब जलराशि क्षुब्ध होकर बरसने लगती है। वनों का नाश होता है और सूर्य रश्मि संयुक्त वर्षणकारी मेघों से आकाश भी भीषण शब्द से गुंजायमान होता है ॥६॥ प्रथिष्ट यामन्पृथिवी चिदेषां भर्तेव गर्भ स्वमिच्छवो धुः । वातान्ह्यश्वान्धुर्यायुयुज्रे वर्षं स्वेदं चक्रिरे रुद्रियासः ॥७॥ मरुद्गणों के आगमन से पृथ्वी उर्वरता को प्राप्त होती हैं। पति द्वारा गर्भ की स्थापना करने के समान ये मरुद्गण अपने बल से वृष्टि जल को भूमि में प्रस्थापित करते हैं। ये रुद्रपुत्र मरुद्गण अपने द्रुतगामी अश्वों को रथ के अग्रभाग में नियोजित कर पराक्रमपूर्वक वृष्टि कार्य सम्पादित करते हैं ॥७॥ हये नरो मरुतो मृळता नस्तुवीमघासो अमृता ऋतज्ञाः । सत्यश्रुतः कवयो युवानो बृहद्गिरयो बृहदुक्षमाणाः ॥८॥ हे मरुतो ! हमें सुख से परिपूर्ण करें। आप नेतृत्वकर्ता, प्रभूत धन- सम्पन्न, अविनाशी, सत्य ज्ञाता, सत्ययशा, क्रान्तदर्शी, युवा, प्रचण्ड- बलवान् और सर्वत्र स्तुति किये जाने योग्य हैं ॥८॥

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