ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त २

ऋग्वेद-द्वितीय मंडल सूक्त २ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः । देवता-अग्नि । छंद-जगती यज्ञेन वर्धत जातवेदसमग्निं यजध्वं हविषा तना गिरा । समिधानं सुप्रयसं स्वर्णरं युक्षं होतारं वृजनेषु धूर्षदम् ॥१॥ हे याज्ञिको ! समिधाओं से प्रज्वलित होने वाले, उत्पन्न पदार्थों के ज्ञाता, उत्तम अन्न सम्पदा से युक्त, सुखपूर्वक उद्देश्य तक पहुँचाने वाले, संग्राम में बल प्रदान करने वाले होता रूप अग्निदेव का विस्तार करो तथा हविष्यान्न समर्पित करके स्तुतियों द्वारा पूजन करो ॥१॥ अभि त्वा नक्तीरुषसो ववाशिरेऽग्ने वत्सं न स्वसरेषु धेनवः । दिव इवेदरतिर्मानुषा युगा क्षपो भासि पुरुवार संयतः ॥२॥ हे अग्निदेव ! जिस तरह गौएँ अपने बछड़े की कामना करती हैं, उसी तरह दिन तथा रात्रि में हम आपको प्राप्त करने की इच्छा करते हैं। बहुतों के द्वारा वांछनीय आप भली प्रकार समर्थ होकर द्युलोक की तरह विस्तार पाते हैं। युगों-युगों से आप मनुष्य के पास विद्यमान हैं तथा दिन के समान रात्रि में भी प्रकाशित होते हैं॥२॥ तं देवा बुध्ने रजसः सुदंससं दिवस्पृथिव्योररतिं न्येरिरे । रथमिव वेद्यं शुक्रशोचिषमग्निं मित्रं न क्षितिषु प्रशंस्यम् ॥३॥ श्रेष्ठ कर्मा, द्युलोक और पृथिवी लोक में संव्याप्त, श्रेष्ठ ऐश्वर्य युक्त रथ वाले, तेजस्वी ज्वालाओं से युक्त, प्रजाओं में सर्वश्रेष्ठ मित्र के समान प्रशंसनीय, अग्निदेव को देवगण सभी लोकों में स्थापित करते हैं॥३॥ तमुक्षमाणं रजसि स्व आ दमे चन्द्रमिव सुरुचं ह्वार आ दधुः । पृश्न्याः पतरं चितयन्तमक्षभिः पाथो न पायुं जनसी उभे अनु ॥४॥ अन्तरिक्ष से वृष्टि कराने वाले, चन्द्रमा के समान उत्तम कान्तिमान्, पृथिवी पर सर्वत्र गमनशील, ज्वालाओं से दृष्टिगत होने वाले, द्युलोक और पृथ्वी लोक दोनों में सेतु के समान व्याप्त अग्निदेव को अपने घर में एकान्त (सुरक्षित स्थान पर लोग स्थापित करते हैं ॥४॥ स होता विश्वं परि भूत्वध्वरं तमु हव्यैर्मनुष ऋञ्जते गिरा । हिरिशिप्रो वृधसानासु जर्भुरद्द्‌यौर्न स्तृभिश्चितयद्रोदसी अनु ॥५॥ वे अग्निदेव होता रूप में सम्पूर्ण यज्ञ स्थल को सभी ओर से संव्याप्त करते हैं। याजक गण उन्हें हविष्यान्न तथा स्तुतियों के द्वारा अलंकृत करते हैं। जिस तरह से आकाश नक्षत्रों से प्रकाशित होता है उसी प्रकार तेजस्वी ज्वालाओं से समिधाओं के बीच में बढ़ते हुए अग्निदेव द्यावा-पृथिवी को प्रकाशित करते हैं॥५॥ स नो रेवत्समिधानः स्वस्तये संददस्वात्रयिमस्मासु दीदिहि । आ नः कृणुष्व सुविताय रोदसी अग्ने हव्या मनुषो देव वीतये ॥६॥ हे अग्निदेव ! हमारे लिए कल्याणकारी ऐश्वर्य प्रदान करते हुए दीप्तिमान् हों । द्यावा-पृथिवी को हमें सुख प्रदान करने वाली बनाएँ और मनुष्यों द्वारा समर्पित किये गये हविष्यान्न को देवताओं तक पहुँचाएँ ॥६॥ दा नो अग्ने बृहतो दाः सहस्रिणो दुरो न वाजं श्रुत्या अपा वृधि । प्राची द्यावापृथिवी ब्रह्मणा कृधि स्वर्ण शुक्रमुषसो वि दिद्युतः ॥७॥ हे अग्निदेव ! आप हमें हजारों तरह की विभूतियाँ प्रचुर मात्रा में प्रदान करें । कीर्तिदायीं अन्न प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करें। उषायें आपको आदित्य के समान प्रकाशित करती हैं, अतः द्युलोक तथा पृथ्वी लोक को ज्ञान के सहारे हमारे अनुकूल बनाएँ ॥७॥ स इधान उषसो राम्या अनु स्वर्ण दीदेदरुषेण भानुना । होत्राभिरग्निर्मनुषः स्वध्वरो राजा विशामतिथिश्चारुरायवे ॥८॥ उषा की समाप्ति के बाद प्रज्वलित अग्निदेव अपने उज्ज्वल तेज से प्रकाशित होते हैं । श्रेष्ठयाज्ञिक, प्रजाधिपति वे अग्निदेव मनुष्यों की स्तुतियों से प्रशंसित होते हुए प्रिय अतिथि की तरह पूज्य होते हैं॥८ ॥ एवा नो अग्ने अमृतेषु पूर्व्य धीष्पीपाय बृहद्दिवेषु मानुषा । दुहाना धेनुर्वृजनेषु कारवे त्मना शतिनं पुरुरूपमिषणि ॥९॥ हे अग्निदेव ! आप अत्यन्त तेजस्वी देवताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं। मानव समुदाय के बीच में आप स्तुतियों से तृप्त होते हैं। याजकों को आप कामधेनु के समान असंख्य प्रकार का धन प्रदान करते हैं॥९॥ वयमग्ने अर्वता वा सुवीर्यं ब्रह्मणा वा चितयेमा जनाँ अति । अस्माकं द्युम्नमधि पञ्च कृष्टिषूच्चा स्वर्ण शुशुचीत दुष्टरम् ॥१०॥ हे अग्निदेव ! हम पराक्रम तथा ज्ञान के द्वारा सामर्थ्यशाली बनकर मानव समुदाय में श्रेष्ठ बनें। हमारा उच्च स्तरीय, अनन्त तथा दूसरों के लिए अप्राप्त धन समाज के पाँचों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा निषाद) वर्गों में सूर्य की तरह प्रकाशित हो ॥१०॥ें स नो बोधि सहस्य प्रशंस्यो यस्मिन्त्सुजाता इषयन्त सूरयः । यमग्ने यज्ञमुपयन्ति वाजिनो नित्ये तोके दीदिवांसं स्वे दमे ॥११॥ हे बलशाली अग्निदेव ! श्रेष्ठकुल में जन्म लेने वाले ज्ञानीजन यज्ञ में अन्न की कामना करते हैं तथा धन धान्य से सम्पन्न मनुष्य हमारी इच्छाओं को जानने वाले आपको प्रशंसनीय, पूजनीय तथा तेजस्वी रूप में अपने घरों में प्रज्वलित करते हैं॥ ११ ॥ उभयासो जातवेदः स्याम ते स्तोतारो अग्ने सूरयश्च शर्मणि । वस्वो रायः पुरुश्चन्द्रस्य भूयसः प्रजावतः स्वपत्यस्य शग्धि नः ॥१२॥ हे ज्ञानोत्पादक अग्निदेव! ज्ञानी स्तोताओं सहित हम दोनों सुख की कामना से आपके आश्रित हों। आप हमारे लिए उत्तम सन्तति, रहने के योग्य गृह आदि तथा श्रेष्ठ सम्पत्ति प्रदान करें ॥१२॥ ये स्तोतृभ्यो गोअग्रामश्वपेशसमग्ने रातिमुपसृजन्ति सूरयः । अस्माज्ञ्च ताँश्च प्र हि नेषि वस्य आ बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥१३॥ हे अग्निदेव ! जो ज्ञानीजन स्तोताओं को श्रेष्ठ गौएँ तथा बलशाली घोड़ों से युक्त धन प्रदान करते हैं, आप उन्हें तथा हमें उत्तम ऐश्वर्य प्रदान करें । यज्ञों में वीर सन्तति से युक्त होकर हम आपकी स्तुति करें ॥१३॥

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