ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १८६

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १८६ ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणिः देवता- विश्वे देवाः । छंद - त्रिष्टुप आ न इळाभिर्विदथे सुशस्ति विश्वानरः सविता देव एतु । अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वं जगदभिपित्वे मनीषा ॥१॥ सबके कल्याणकारी सवितादेव भली-भाँति प्रशंसित होकर, अन्न से युक्त होकर हमारे यज्ञ में पधारें। हे वरुणदेव ! आप जिस तरह आनन्दित हैं, उसी तरह हमारे यज्ञ में पधारकर अपनी अनुकम्पा से हमें तथा सम्पूर्ण विश्व को भी हर्षित करें ॥१॥ आ नो विश्व आस्क्रा गमन्तु देवा मित्रो अर्यमा वरुणः सजोषाः । भुवन्यथा नो विश्वे वृधासः करन्त्सुषाहा विथुरं न शवः ॥२॥ सभी शत्रुओं पर आक्रमण करने वाले, परस्पर प्रीति करने वाले मित्र, वरुण और अर्यमा देवे हमारे समीप आएँ तथा यथासम्भव हमारी प्रगति में सहायक हों। ये देव शत्रुओं को परास्त करने की सामर्थ्य से युक्त होकर हमारी शक्तियों को क्षीण न करें ॥२॥ प्रेष्ठं वो अतिथिं गृणीषेऽग्निं शस्तिभिस्तुर्वणिः सजोषाः । असद्यथा नो वरुणः सुकीर्तिरिषश्च पर्षदरिगूर्तः सूरिः ॥३॥ जो अग्निदेव शत्रुसंहारक और सबके साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार करने के कारण अतिथि के समान पूज्य हैं, उनकी हम स्तोत्रों द्वारा स्तुतियाँ करते हैं। शत्रुओं के आक्रान्ता और ज्ञानवान् ये वरुणदेव हमें अन्न तथा यथोचित कीर्ति प्रदान करें ॥३॥ उप व एषे नमसा जिगीषोषासानक्ता सुदुघेव धेनुः । समाने अहन्विमिमानो अर्कं विषुरूपे पयसि सस्मिन्नूधन् ॥४॥ हे सम्पूर्ण विश्व की संचालक देवशक्तियो ! गौ (सूर्य किरणों) से उत्पादित होने वाले (दुग्धरूपी) प्राण में सम्पूर्ण तेजस्विती की अनुभूति करते हुए, हम साधक मनोविकाररूपी शत्रुओं पर विजय पाने की कामना से प्रातः और सायं (दोनों सन्ध्याओं में) उसी प्रकार आपके समीप जाते हैं, जिस प्रकार श्रेष्ठ दुधारू गौएँ गोपाल के पास जाती हैं ॥४॥ उत नोऽहिर्बुध्यो मयस्कः शिशुं न पिप्युषीव वेति सिन्धुः । येन नपातमपां जुनाम मनोजुवो वृषणो यं वहन्ति ॥५॥ अहिर्बुध्य (विद्युत्रूप अग्नि) अन्तरिक्षीय मेघों से जल बरसाकर हमें सुखी करें । शिशु का पोषण करने वाली माता के समान नदियाँ जल से परिपूर्ण होकर हमारे समीप आएँ। जल को न गिरने देने वाले (अग्निदेव) की हम वन्दना करते हैं। मन की तरह वेगवान् अश्व (किरणे) उन्हें ले जाते हैं॥५॥ उत न ईं त्वष्टा गन्त्वच्छा स्मत्सूरिभिरभिपित्वे सजोषाः । आ वृत्रहेन्द्रश्चर्षणिप्रास्तुविष्टमो नरां न इह गम्याः ॥६॥ ज्ञानियों से स्नेहपूर्ण व्यवहार करने वाले ये त्वष्टादेव तथा मनुष्यों के तृप्तिकारक और वृत्रासुर के वध द्वारा सबके द्वारा प्रशंसनीय इन्द्रदेव, हमारे इस यज्ञ में पधारकर हमारे सत्कर्मों में सहायक बनें ॥६॥ उत न ईं मतयोऽश्वयोगाः शिशुं न गावस्तरुणं रिहन्ति । तमीं गिरो जनयो न पत्नीः सुरभिष्टमं नरां नसन्त ॥७॥ जिस प्रकार गौएँ अपने बछड़ों को स्नेह से चाटती हैं, उसी प्रकार श्रेष्ठ बुद्धियाँ उन चिरयुवा इन्द्रदेव के प्रति अपना स्नेह प्रकट करती हैं। उन महायशस्वी इन्द्रदेव को हमारी स्तुतियाँ उसी प्रकार आकर्षित करती हैं, जिस प्रकार प्रजननशील स्त्रियाँ पतियों को आकर्षित करती हैं॥७॥ उत न ईं मरुतो वृद्धसेनाः स्मद्रोदसी समनसः सदन्तु । पृषदश्वासोऽवनयो न रथा रिशादसो मित्रयुजो न देवाः ॥८॥ रथों पर विराजमान रक्षकगणों के पास समान दुष्टशत्रुओं को विनष्ट करने वाले, मित्रों के समान पारस्परिक स्नेह रहने वाले, विलक्षण अश्वों से युक्त, समान मनोभावों से युक्त, तेजस्वी, महान् सामथ्र्यों से युक्त मरुद्गण तथा द्यावा-पृथिवी हमारे यज्ञ में पधारें ॥८ ॥ प्र नु यदेषां महिना चिकित्रे प्र युञ्जते प्रयुजस्ते सुवृक्ति । अध यदेषां सुदिने न शरुर्विश्वमेरिणं प्रुषायन्त सेनाः ॥९॥ श्रेष्ठ स्तुतियों से हर्षित होकर मरुद्गण अश्वों को अपने रथ में जोड़ते हैं। तत्पश्चात् दिन में जिस प्रकार प्रकाश सर्वत्र संचरित होता है, उसी प्रकार मरुतों की सेना ऊसर भूमि को जलों से सींचकर उपजाऊ बनाती है। इससे इन मरुद्गणों की ख्याति और भी अधिक बढ़ जाती हैं॥९॥ प्रो अश्विनाववसे कृणुध्वं प्र पूषणं स्वतवसो हि सन्ति । अद्वेषो विष्णुर्वात ऋभुक्षा अच्छा सुम्नाय ववृतीय देवान् ॥१०॥ हे मनुष्यो ! अपनी रक्षा के लिए अश्विनीकुमारों, पूषादेव, विद्वेषरहित विष्णुदेव, वायुदेव, ऋभुओं के स्वामी (इन्द्रदेव) इन सभी देवों की स्तुति करो। हम भी सुख की प्राप्ति के लिए इन देव समूह की प्रार्थना करते हैं ॥१०॥ इयं सा वो अस्मे दीधितिर्यजत्रा अपिप्राणी च सदनी च भूयाः । नि या देवेषु यतते वसूयुर्विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥११॥ हे यज्ञदेव ! आपका जो तेज देवों को ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है, मनुष्यों की अभिलाषाओं को पूर्ण कराने वाला तथा आवास प्रदान कराने वाला है। वह दिव्यतेज हम अपने अन्दर धारण करें, जिससे हम मनुष्य उत्तम अन्न, उत्तम बल और दीर्घ जीवन का लाभ प्राप्त कर सकें ॥११॥

Recommendations