ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १३७

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १३७ ऋषि - पुरूच्छेपो दैवोदासिः देवता- मित्रवरुणौ । छंद अति शक्करी सुषुमा यातमद्रिभिर्गोश्रीता मत्सरा इमे सोमासो मत्सरा इमे । आ राजाना दिविस्पृशास्मत्रा गन्तमुप नः । इमे वां मित्रावरुणा गवाशिरः सोमाः शुक्रा गवाशिरः ॥१॥ हे मित्र और वरुणदेव ! हम इस सोमरस को पत्थरों द्वारा कूटकर निचोड़ते (अभिषुत करते हैं। यह गो दुग्ध मिश्रित सोम निश्चित ही आनन्दप्रद है, अतएव आप दोनों हमारे यहाँ पधारें । अति दीप्तिमान् तथा दिव्यलोक को स्पर्श करने वाले आप दोनों हमारे पालन पोषण के निमित्त यहाँ आयें। हे मित्र और वरुण देव! यह पवित्र सोमरस गो दुग्ध तथा जल में मिलाकर तैयार किया गया हैं, जो आपके लिए प्रस्तुत है॥१॥ इम आ यातमिन्दवः सोमासो दध्याशिरः सुतासो दध्याशिरः । उत वामुषसो बुधि साकं सूर्यस्य रश्मिभिः । सुतो मित्राय वरुणाय पीतये चारुर्ऋताय पीतये ॥२॥ हे मित्र और वरुणदेव ! आप दोनों, निचोड़कर तैयार किये गये दूध और दही में मिश्रित तेजस्वी सोमरस का पान करने के लिए यहाँ आयें। आपके लिए प्रभात वेला में सूर्य रश्मियों के प्रकाशित होने के साथ ही यह सोमरस अभिषुत किया गया है। मित्र और वरुण देवों के लिए (इस यज्ञ कर्म में) यह अभिषुत सोम प्रस्तुत है ॥२॥ तां वां धेनुं न वासरीमंशुं दुहन्त्यद्रिभिः सोमं दुहन्त्यद्रिभिः । अस्मत्रा गन्तमुप नोऽर्वाञ्चा सोमपीतये । अयं वां मित्रावरुणा नृभिः सुतः सोम आ पीतये सुतः ॥३॥ हे मित्र और वरुणदेव ! आपके लिए त्वग्गण उसी प्रकार पत्थरों से कूटकर सोम वल्लियों से रस निचोड़ते हैं, जिस प्रकार गौओं से दूध का दोहन किया जाता है। आप दोनों हमारे संरक्षण के लिए सोमपान हेतु यहाँ आयें। हे मित्रावरुणदेवो! आप दोनों के पान करने के लिए ही याज्ञिकों द्वारा सोमरस अभिषुत किया गया है॥३॥

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