ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १२७

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १२७ ऋषि - पुरूच्छेपो दैवोदासि देवता - अग्नि। छंद - अत्यष्टि, ६ अतिधृति अग्निं होतारं मन्ये दास्वन्तं वसुं सूनुं सहसो जातवेदसं विप्रं न जातवेदसम् । य ऊर्ध्वया स्वध्वरो देवो देवाच्या कृपा । घृतस्य विभ्राष्टिमनु वष्टि शोचिषाजुह्वानस्य सर्पिषः ॥१॥ दैवी गुणों से सम्पन्न, श्रेष्ठ कर्म के संपादक, जो अग्निदेव देवताओं के समीप जाने वाली ऊर्ध्वगामी ज्वालाओं से प्रदीप्त और विस्तारयुक्त होकर, अनवरत घृतपान की अभिलाषा करते हैं; उन देव आवाहनकर्ता, दानकर्ता, सबके आश्रयभूत, अरणि मन्थन से उत्पन्न, (अतएव) शक्ति के पुत्र, सर्वज्ञान-सम्पन्न, शास्त्रज्ञाता और ब्रह्मनिष्ठ ज्ञानी के सदृश; अग्निदेव को हम स्वीकार करते हैं॥१॥ यजिष्ठं त्वा यजमाना हुवेम ज्येष्ठमङ्गिरसां विप्र मन्मभिर्विप्रेभिः शुक्र मन्मभिः । परिज्मानमिव द्यां होतारं चर्षणीनाम् । शोचिष्केशं वृषणं यमिमा विशः प्रावन्तु जूतये विशः ॥२॥ हे ज्ञानी और तेजस्वी अग्निदेव ! हम यजमान, उत्तम विचारकों के लिए मननीय मंत्रों द्वारा यज्ञ में आपका आवाहन करते हैं। ये प्रजाएँ अपनी रक्षा के लिए श्रेष्ठतम, तेजस्वी, सूर्य के सदृश गतिमान्, यज्ञ निर्वाहक एवं प्रदीप्त किरणों से युक्त अग्निदेव को तुष्ट-पुष्ट करती हैं॥२॥ स हि पुरू चिदोजसा विरुक्मता दीद्यानो भवति द्रुहंतरः परशुर्न द्रुहंतरः । वीळु चिद्यस्य समृतौ श्रुवद्वनेव यत्स्थिरम् । निःषहमाणो यमते नायते धन्वासहा नायते ॥३॥ वे अग्निदेव तेजोमयी सामर्थ्य से अत्यन्त दीप्तिमान्, शत्रुओं में भय का संचार करने वाले तथा फरसे के तुल्य द्रोहियों का नाश करने वाले हैं। धनुर्धारी अचल योद्धा की तरह जिनके प्रभाव से बलवान् शत्रु भी पराजित हो जाते हैं एवं अनुशासन स्वीकार करते हैं, उन अग्निदेव के संयोग से अत्यन्त कठोर पदार्थ भी खण्ड-खण्ड हो जाते हैं॥३॥ दृळ्ळ्हा चिदस्मा अनु दुर्यथा विदे तेजिष्ठाभिररणिभिर्दाष्ट्यवसेऽग्नये दाष्ट्यवसे । प्र यः पुरूणि गाहते तक्षद्वनेव शोचिषा । स्थिरा चिदन्ना नि रिणात्योजसा नि स्थिराणि चिदोजसा ॥४॥ जैसे ज्ञानी पुरुषों को धन देने का विधान है, उसी प्रकार अति सुदृढ़ (शक्तिशाली) मनुष्यों द्वारा अपने संरक्षण के निमित्त अग्नि में हविष्यान्न देने पर, अणिमन्थन से प्रकट होने वाले अग्निदेव अपनी प्रचण्ड ज्वाला से प्रदीप्त होकर उसे ऐश्वर्यों से परिपुष्ट करते हैं। जिस प्रकार अग्निदेव असंख्य वनों में प्रविष्ट होकर उन्हें जला डालते हैं तथा अपने तेज से अन्नों को पकाते हैं, वैसे ही वे अपनी तेजस्विता से सुदृढ़ वैरियों को भी धराशायी कर देते हैं॥४॥ तमस्य पृक्षमुपरासु धीमहि नक्तं यः सुदर्शतरो दिवातरादप्रायुषे दिवातरात् । आदस्यायुर्यभणवद्वीळु शर्म न सूनवे । भक्तमभक्तमवो व्यन्तो अजरा अग्नयो व्यन्तो अजराः ॥५॥ हम अग्निदेव के निमित्त यज्ञीय हविष्यान्न अर्पित करते हैं, जो दिन की अपेक्षा रात्रि को अधिक रमणीय लगते हैं। जैसे पुत्र के लिए पिता द्वारा सुखदायक निवास दिया जाता है, वैसे ही दिन की अपेक्षा रात्रि में प्रखर तेजस्वी दिखाई देने वाले अग्निदेव के निमित्त हवियाँ समर्पित करें। ये अग्नि ज्वालाएँ भक्त या अभक्त दोनों का भेद किये बिना प्रदत्त आहतियों को स्वीकार करती हैं। हविष्यान्न ग्रहण करने वाले अग्निदेव सदा ज़रारहित (चिरयुवा) रहते और यजमान को भी अजर (प्रखर) बना देते हैं॥५॥ स हि शर्धो न मारुतं तुविष्वणिरप्नस्वतीषूर्वरास्विष्टनिरार्तनास्विष्टनिः । आदद्धव्यान्याददिर्यज्ञस्य केतुरर्हणा । अध स्मास्य हर्षतो हृषीवतो विश्वे जुषन्त पन्थां नरः शुभे न पन्थाम् ॥६॥ पूजनीय अग्निदेव यज्ञीय कर्मों, उपजाऊ क्षेत्रों और रणक्षेत्रों पर सभी जगह वेगवान् वायु की तरह ही ऊँचे स्वर से गर्जना करते हैं। यज्ञ की ध्वजारूष पूजनीय अग्निदेव हवियों को स्वीकार कर हविष्यान्न ग्रहण करते हैं। निज़ की प्रसन्नता के साथ दूसरों के लिए भी आनन्दप्रद इन अग्निदेव के मार्ग का सम्पूर्ण देव उसी प्रकार कल्याण प्राप्ति हेतु अनुसरण करते हैं, जिस प्रकार मनुष्य कल्याण की इच्छा से सन्मार्गगामी होते हैं॥६॥ द्विता यदीं कीस्तासो अभिद्यवो नमस्यन्त उपवोचन्त भृगवो मथ्नन्तो दाशा भृगवः । अग्निरीशे वसूनां शुचिर्यो धर्णिरषाम् । प्रियाँ अपिधीँर्वनिषीष्ट मेधिर आ वनिषीष्ट मेधिरः ॥७॥ जब भृगुवंश में उत्पन्न ऋषियों ने मन्थन द्वारा इन अग्निदेव को प्रकट किया और स्तोत्रकर्ता, तेजवान् तथा विनयशील भृगुओं ने दो प्रकार से उनकी प्रार्थनाएँ कीं; तब परम पावन, धारण करने योग्य, ज्ञानी, अग्निदेव ने प्रेम पूर्वक अर्पित की गई आहुतियों को ग्रहण किया। वे ज्ञानी अग्निदेव धनों पर प्रभुत्व स्थापित करते हुए निश्चित ही हमारी प्रार्थनाएँ स्वीकार करते हैं॥७॥ विश्वासां त्वा विशां पतिं हवामहे सर्वासां समानं दम्पतिं भुजे सत्यगिर्वाहसं भुजे । अतिथिं मानुषाणां पितुर्न यस्यासया । अमी च विश्वे अमृतास आ वयो हव्या देवेष्वा वयः ॥८॥ हम सम्पूर्ण प्रज्ञा के रक्षक, समदर्शी, गृहपालक, सत्यवादी, अतिथि रूप, अग्निदेव को उपभोग्य सामग्री के निमित्त आवाहित करते हैं। उन अग्निदेव के निकट हविष्यान्न पाने के लिए सम्पूर्ण देव उसी प्रकार आते हैं, जिस प्रकार पुत्र पिता के पास अन्न सामग्री की प्राप्ति हेतु जाते हैं। इसी भाव से मनुष्य भी देवताओं के लिए आहुतियाँ प्रदान करते हैं॥८॥ त्वमग्ने सहसा सहन्तमः शुष्मिन्तमो जायसे देवतातये रयिर्न देवतातये। शुष्मिन्तमो हि ते मदो द्युम्निन्तम उत क्रतुः । अध स्मा ते परि चरन्त्यजर श्रुष्टीवानो नाजर ॥९॥ हे अग्निदेव ! आप अपनी सामर्थ्य शक्ति से शत्रुओं के पराभवकर्ता और अति तेजस्वी रूप में ही प्रकट हुए हैं। जैसे देवयज्ञों के निमित्त धन प्रकट होता है, वैसे ही अग्निदेव यज्ञीय संरक्षण के लिए प्रादुर्भूत हुए हैं। आप की प्रसन्नता अति बलप्रद और कर्म प्रखर-तेजस्वी हैं। हे अविनाशी अग्निदेव ! इन्हीं विशिष्ट गुणों के कारण सभी मनुष्य दूतरूप में आपकी सेवा में संलग्न रहते हैं॥९॥ प्र वो महे सहसा सहस्वत उषर्बुधे पशुषे नाग्नये स्तोमो बभूत्वग्नये । प्रति यदीं हविष्मान्विश्वासु क्षासु जोगुवे । अग्रे रेभो न जरत ऋषूणां जूर्णिर्होत ऋषूणाम् ॥१०॥ है साधको ! शत्रु पराभवकर्ता, प्रभातवेला में जागरणशील अग्निदेव को आपके महिमामय स्तुतिगान उसी प्रकार से प्रसन्नता प्रदान करें, जैसे उदारमना पशुधन आदि का दान देने वाले मनुष्य को मनुष्यों द्वारा की गई स्तुतियाँ प्रसन्नता देती हैं। यज्ञ सम्पादक सभी जगह इसी भाव को दृष्टिगत रखकर प्रार्थनाएँ करते हैं, स्तुतिगान में कुशल होता सभी देवों में सर्वप्रथम इन अग्निदेव को उसी प्रकार प्रशंसित करते हैं, जिस प्रकार चारणगण धनवानों की प्रशंसा करते हैं॥१०॥ स नो नेदिष्ठं ददृशान आ भराग्ने देवेभिः सचनाः सुचेतुना महो रायः सुचेतुना । महि शविष्ठ नस्कृधि संचक्षे भुजे अस्यै । महि स्तोतृभ्यो मघवन्त्सुवीर्यं मथीरुग्रो न शवसा ॥११॥ हे अग्निदेव ! समीप से दीप्तिमान् दिखाई देने वाले आप देवताओं द्वारा पूज्य हैं। आप कृपापूर्वक श्रेष्ठ धन से हमें परिपूर्ण करें । हे सामर्थ्यवान् अग्निदेव ! आप दीर्घायुष्य के लिए उपभोग्य पदार्थों को प्रदान करके हमें यशस्वी बनायें। हे ऐश्वर्य-सम्पन्न अग्निदेव ! आप स्तोताओं को श्रेष्ठ शौर्य-सम्पन्न और पराक्रमी बनायें तथा अपनी सामर्थ्य शक्ति से शत्रुओं का संहार करें ॥११॥

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