ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ६६

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ६६ ऋषि-पाराशर शाक्त्यः देवता- अग्नि । छंद - द्विपदा विराट रयिर्न चित्रा सूरो न संदृगायुर्न प्राणो नित्यो न सूनुः ॥१॥ तक्वा न भूर्णिर्वना सिषक्ति पयो न धेनुः शुचिर्विभावा ॥२॥ ये अग्निदेव स्मरणीय धन के समान विलक्षण, ज्ञानों के समान सम्यक् द्रष्टा, जीवन के समान प्राण प्रदाता, पुत्र के समान हितकारी, अश्व के समान द्रुतगामी तथा गाय के समान उपकारी हैं। ये वन के काष्ठों को जलाकर विशेष प्रकाशयुक्त होते हैं॥१-२॥ दाधार क्षेममोको न रण्वो यवो न पक्को जेता जनानाम् ॥३॥ ऋषिर्न स्तुभ्वा विक्षु प्रशस्तो वाजी न प्रीतो वयो दधाति ॥४॥ गृह के समान रमणीय, अन्न के समान परिपक्व, प्रजाजनों पर प्रभुत्व स्थापित करने वाले, ऋषि के समान स्तुत्य तथा प्रजाओं द्वारा प्रशंसित अग्निदेव लोगों के कल्याण के लिए जीवन धारण करते हैं। उत्साहपूर्ण होता के समान प्रजा के हित में ही जीवन समर्पित करते हैं॥३-४॥ दुरोकशोचिः क्रतुर्न नित्यो जायेव योनावरं विश्वस्मै ॥५॥ चित्रो यदभ्राट् छेतो न विक्षु रथो न रुक्मी त्वेषः समत्सु ॥६॥ असहनीय तेजों से युक्त, कर्मशील के समान नित्य शुभकर्मा, अद्भुत दीप्तियुक्त, शुभ्र प्रकाश से प्रकाशमान, प्रज्ञाओं में रथ के समान शोभायमान ये अग्निदेव स्त्रियों द्वारा घर में सुख देने के समान सबके सुखदाता हैं। यज्ञों में स्वर्णिम तेजों से संयुक्त होते हैं॥५-६॥ सेनेव सृष्टामं दधात्यस्तुर्न दिद्युत्त्वेषप्रतीका ॥७॥ यमो ह जातो यमो जनित्वं जारः कनीनां पतिर्जनीनाम् ॥८॥ ये अग्निदेव आक्रामक सेना के समान बल धारक, विद्युत् अस्त्र के प्रहार के समान प्रचण्ड वेग और तेजों के धारक हैं। जो उत्पन्न हुए हैं या जो उत्पन्न होंगे, उनके नियन्ता अग्निदेव हैं। अग्निदेव कन्याओं का कौमार्य समाप्त करने वाले और विवाहिता के पति हैं॥७-८॥ तं वश्चराथा वयं वसत्यास्तं न गावो नक्षन्त इद्धम् ॥९॥ सिन्धुर्न क्षोदः प्र नीचीरैनोन्नवन्त गावः स्वर्हशीके ॥१०॥ " जैसे गौएँ सूर्यास्त होने पर पुनः अपने घर को प्राप्त होती हैं, उसी # प्रकार हम सन्तानों और पशुओं से युक्त होकर अग्निदेव को प्राप्त होते हैं। जल के प्रवाहित होने के सदृश अग्नि ज्वालाओं को प्रवाहित करते हैं। उनकी दर्शनीय किरणें आकाश में ऊँची उठती हैं॥९-१०॥

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