Shandilyopanishad Chapter 1 Part 7 (शाण्डिल्योपानिषद प्रथम अध्याय - सातवां खण्ड)

प्रथमाध्याये - सप्तमः खण्डः प्रथम अध्याय - सातवां खण्ड अथासनदृढो योगी वशी मितहिताशनः सुषुम्नानाडीस्थमलशोषार्थं योगी बद्धपद्मासनो वायुं चन्द्रेणापूर्य यथाशक्ति कुम्भयित्वा सूर्येण रेचचित्वा पुनः सूर्येणापूर्य कुम्भयित्वा चन्द्रेण विरेच्य यया त्यजेत्तया संपूर्य धारयेत्। तदेते श्रीका भवन्तिप्राणं प्रागिडया पिबेनियमितं भूयोऽन्यया रेचयेत्पीत्वा पिङ्गलया समीरणमथो बद्ध्वा त्यजेद्वामया। सूर्याचन्द्रमसोरनेन विधिनाऽभ्यासं सदा तन्वतां शुद्धा नाडिगणा भवन्ति यमिनां मासत्रयादूर्ध्वतः ॥१॥ इसके पश्चात् आसन के दृढ़ हो जाने पर योगी अपनी इन्द्रियों को वश में करके, दूसरों का हित चाहते हुए, स्वल्पाहार पर रहते हुए, सुषुम्ना नाड़ी में स्थित मल को शुष्क करने के लिए निरन्तर योगाभ्यास करता रहे। उस समय बद्धपद्मासन पर आरूढ़ हो, चन्द्र नाड़ी के द्वारा वायु को भरकर शक्ति के अनुसार कुम्भक करने के बाद सूर्य नाड़ी के द्वारा रेचक करना चाहिए। तदनन्तर सूर्यनाड़ी से पूरक करके कुम्भक करे तथा चन्द्र नाड़ी से रेचक करना चाहिए। इस प्रकार जिस नाड़ी के द्वारा रेचक करे, उसी नाड़ी से पुनः पूरक करने के बाद कुम्भक करना चाहिए। इस भाव को प्रकट करने वाले निम्न प्रकार के शोक वर्णित किये गये हैं "सर्वप्रथम इड़ा नाड़ी के द्वारा प्राण को अन्दर भरकर कुम्भक करे तथा दूसरी पिंगला नाड़ी से रेचक करे। तत्पश्चात् पुनः पिंगला से पूरक करके कुम्भक करते हुए इड़ा नाड़ी से रेचक करना चाहिए। इस प्रक्रिया से सूर्य और चन्द्र नाड़ी के द्वारा प्राणायाम का प्रतिदिन निरन्तर अभ्यास करने से योगी की सभी नाड़ियाँ तीन मास में ही पूर्ण शुद्ध हो जाती हैं ॥१॥ प्रातमध्यन्दिने सायमर्धरात्रे तु कुम्भकान् । शनैरशीतिपर्यन्तं चतुर्वारं समभ्यसेत् ॥२॥ प्रातःकाल, मध्याह्नकाल, सायंकाल तथा मध्य रात्रि में इसी तरह से चार बार मन्द-मन्द गति से अस्सी मात्राओं तक कुम्भक का अभ्यास करना चाहिए ॥२॥ कनीयसि भवेत्स्वेदः कम्पो भवति मध्यमे । उत्तिष्ठत्युत्तमे प्राणरोधे पद्मासनं भवेत् ॥३॥ कनिष्ठ प्राणायाम के करते समय शरीर में पसीना आ जाता है, मध्यम स्तर का प्राणायाम करने में शरीर में कंप कंपी छूटती है और श्रेष्ठ प्राणायाम में पद्मासन में अवस्थित योगी अपने आसन से उठ जाता है ॥३॥ जलेन श्रमजातेन गात्रमर्दनमाचरेत्। दृढता लघुता चापि तस्य गात्रस्य जायते ॥४॥ प्राणायाम करते समय श्रम के कारण शरीर में से जो पसीना निकल आता है, उस पसीने को शरीर में ही मल लेना चाहिए, क्योंकि इससे योगी का शरीर अत्यधिक मजबूत और हल्का हो जाता है ॥४॥ अभ्यासकाले प्रथमं शस्तं क्षीराज्यभोजनम् । ततोऽभ्यासे स्थिरीभूते न तावनियमग्रहः ॥५॥ प्राणायाम का अभ्यास करते समय प्रारम्भिक अवस्था में दुग्ध एवं घृत के भोजन को ही अत्यधिक श्रेष्ठ बतलाया गया है। तत्पश्चात् जब अभ्यास स्थिर हो जाता है, तब किसी नियम की आवश्यकता नहीं रहती ॥५॥ यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैःशनैः। तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ॥६॥ जिस प्रकार शनैः-शनैः सिंह, गज और व्याघ्र आदि को वश में कर लिया जाता है, उसी प्रकार वायु भी प्राणायाम के अभ्यास से धीरे- धीरे वश में आ जाती है; लेकिन इसके विपरीत नियम से चलने पर यानी जल्दबाजी करने से वायु योगी का विनाश कर देती है ॥६॥ युक्तंयुक्तं त्यजेद्वायुं युक्तंयुक्तं च पूरयेत्। यु क्तंयुक्तं च बनीयादेवं सिद्धिमवाप्नुयात्॥७॥ अतः जिस प्रकार से ठीक बने, वैसे ही रेचक करना चाहिए, जैसे ठीक लगे, वैसे ही पूरक करना तथा ठीक लगने तक ही कुम्भक करना चाहिए। इस प्रकार का अभ्यास करने से शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। ॥७॥ यथेष्टधारणाद्वायोरनलस्य प्रदीपनम् । नादाभिव्यक्तिरारोग्यं जायते नाडिशोधनात् ॥८॥ यथेष्ट शक्ति के अनुसार कुम्भक करने से अग्नि प्रज्वलित होती है तथा नाड़ियों के शुद्ध होने से नाद श्रवण होता है और शरीर रोगरहित हो जाता है ॥८॥ विधिवत्प्राणसंयामैर्नाडीचक्रे विशोधिते। सुषुम्नावदनं भित्त्वा सुखाद्विशति मारुतः ॥९॥ विधि-विधान पूर्वक प्राणायाम करने से योगी के समस्त नाड़ी-समूह शुद्ध हो जाते हैं। तब सुषुम्ना नाड़ी का मुख भेदन करके वायु सुखपूर्वक उसमें प्रविष्ट हो जाता है ॥९॥ मारुते मध्यसंचारे मनःस्थैर्य प्रजायते। यो मनः सुस्थिरो भावः सैवावस्था मनोन्मनी ॥१०॥ वायु जब बीच में सञ्चरित होती है, तब मन सुस्थिर होता है और जब मन की ठीक तरह से स्थिरता हो जाती है, तब उसी स्थिरता को मनोन्मनी अवस्था कहा जाता है ॥१०॥ पूरकान्ते तु कर्तव्यो बन्धो जालन्धराभिधः । कुम्भकान्ते रेचकादौ कर्तव्यस्तूड्डियाणकः ॥११॥ साधक को पूरक के अन्त में कुम्भक के समय जालन्धर नामक बन्ध करना चाहिए तथा कुम्भक के अन्त एवं रेचक के प्रारंभ में उड्डियान नामक बन्ध करना चाहिए ॥११॥ अधस्तात्कुञ्चनेनाशु कण्ठसंकोचने कृते। ्व मध्ये पश्चिमतानेन स्यात्प्राणो ब्रह्मनाडिगः ॥१२॥ नीचे की ओर मूलरन्ध्र का संकोचन करने में कण्ठ का संकोचन होता है और बीच के भाग को पीछे की ओर खींचने से प्राणवायु ब्रह्मनाड़ी में निरन्तर गतिमान् होती रहती है ॥१२॥ अपानमूर्ध्वमुत्थाप्य प्राणं कण्ठादधो नयन्। योगी जराविनिर्मुक्तः षोडशो वयसा भवेत् ॥१३॥ अपान वायु को ऊर्ध्व की तरफ ले जाकर तथा प्राणवायु को कण्ठ से नीचे की ओर लाकर के योगी साधक वृद्धावस्था से रहित होकर सोलह वर्ष की आयु वाला हो जाता है ॥१३॥ सुखासनस्थो दक्षनाड्या बहिःस्थं पवनं समाकृष्याकेशमानखाग्रं कुम्भयित्वा सव्यनाड्या रेचयेत्। तेन कपालशोधनं वातनाडीगतसर्वरोगसर्वविनाशनं भवति ॥१३-१॥ योगी सुखासन पर बैठकर दाहिनी नाड़ी के द्वारा बाहर की वायु को अन्दर की ओर खींचकर सिर के बालों से लेकर पैर के नख की नोंक तक में वायु को रोक कर अर्थात् कुम्भक करके बायीं नाड़ी के द्वारा वायु को बाहर निकाले अर्थात् त्रेचक करे। ऐसी क्रिया करने से कपाल की शुद्धि होती है और नाड़ियों में रहने वाले समस्त रोगों का पूर्णतया विनाश ही हो जाता है। १३-१॥ हृदयादिकण्ठपर्यन्तं सस्वनं नासाभ्यां शनैः पवनमाकृष्य यथाशक्ति कुम्भयित्वा इडया विरेच्य गच्छंस्तिष्ठन्कुर्यात् । तेन श्रेष्महरं जठराग्निवर्धनं भवति ॥१३-२॥ हृदय से लेकर कण्ठ पर्यन्त शब्द के साथ दोनों नासिका छिद्रों के द्वारा धीरे-धीरे वायु को खींचकर शक्ति के अनुसार कुम्भक करने के बाद इड़ा नाड़ी के द्वारा रेचक करना चाहिए। यह क्रिया चलते हुए तथा खड़े हुए भी करते ही रहना चाहिए, क्योंकि इस क्रिया से कफ का शमन और जठराग्नि की वृद्धि होती है ॥ १३-२॥ वक्त्रेण सीत्कारपूर्वकं वायुं गृहीत्वा यथाशक्ति कुम्भयित्वा नासाभ्यां रेचयेत्। तेन क्षुत्तृष्णालस्यनिद्रा न जायन्ते ॥१३-३॥ मुख के द्वारा सीत्कार अर्थात् सी-सी करते हुए वायु अन्दर भरकर शक्ति के अनुसार कुम्भक करने के पश्चात् दोनों नासिका छिद्रों द्वारा रेचक की क्रिया करनी चाहिए। इससे भूख-प्यास, आलस्य अथवा निद्रा का प्रादुर्भाव नहीं होता ॥१३-३॥ जिह्वया वायुं गृहीत्वा यथाशक्ति कुम्भयित्वा नासाभ्यां रेचयेत्। तेन गुल्मप्लीहचरपित्त क्षुधादीनि नश्यन्ति ॥१३-४॥ जिह्वा द्वारा वायु को अन्दर खींचकर शक्ति के अनुसार कुम्भक करके दोनों नासिका छिद्रों द्वारा रेचक करना चाहिए। इससे गुल्म (गोला), तिल्ली, ज्वर, पित्त और भूख आदि रोगों का शमन हो जाता है ॥ १३-४॥ अथ कुम्भकः। स द्विविधः सहितः केवलश्वेति । रेचकपूरकयुक्तः सहितः । तद्विवर्जितः केवलः। केवलसिद्धिपर्यन्तं सहितमभ्यसेत् । केवलकुम्भके सिद्धे त्रिषु लोकेषु न तस्य दुर्लभं भवति। केवलकुम्भकात्कुण्डलिनीबोधो जायते। ॥१३-५॥ अब कुम्भक के सन्दर्भ में कहते हैं, उसके दो भेद हैं- (१) सहित और (२) केवल । रेचक तथा पूरक से जो संयुक्त हो, उसे सहित और उनसे जो रहित हो, वह केवल है। इसमें से केवल जब तक सिद्ध न हो, तब तक सहित का अभ्यास करते रहना चाहिए और जब केवल' कुम्भक सिद्ध हो जाता है, तब योगी को तीनों लोकों में कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता। केवल कुम्भक के द्वारा ही कुण्डलिनी जाग्रत् हो जाती है ॥१३-५॥ ततः कृशवपुः प्रसन्नवदनो निर्मललोचनोऽभिव्यक्तनादो निर्मुक्तरोगजालो जितबिन्दुः पटुनिर्भवति ॥१३-६॥ इस सिद्धि के पश्चात् योगी-साधक कृश शरीर से युक्त, प्रसन्न मुख वाला, निर्मल नेत्रों से सम्पन्न, नाद श्रवण करने वाला, समस्त रोगों से रहित, ब्रह्मचर्यसिद्ध तथा प्रज्वलित जठराग्नि से युक्त हो जाता है ॥१३-६॥ अन्तर्लक्ष्यं बहिर्दृष्टिर्निमेषोन्मेषवर्जिता। एषा सा वैष्णवी मुद्रा सर्वतन्त्रेषु गोपिता ॥१४॥ अन्तःकरणे में लक्ष्य निहित हो तथा बाह्य की दृष्टि निमेष-उन्मेष अर्थात् पलक झपकने से विहीन हो, यही वैष्णवी मुद्रा है तथा इसे ही समस्त तन्त्र-शास्त्रों में गुप्त रहस्य के रूप में मान्यता प्राप्त है ॥१४॥ अन्तर्लक्ष्यविलीनचित्तपवनो योगी सदा वर्तते दृष्टया निश्चलतारया बहिरधः पश्यन्त्रपश्यन्नपि। मुद्रेयं खलु खेचरी भवति सा ा लक्ष्यकताना शिवा शून्याशून्यविवर्जितं स्फुरति सा तत्त्वं पदं वैष्णवी ॥१५॥ अन्तर्लक्ष्य में जिस योगी का चित्त और पवन विलय को प्राप्त हो गया हो, वह योगी साधक सतत निश्चल नेत्रों द्वारा बाहर की ओर नीचे की तरफ देखता हो, किन्तु इसके अतिरिक्त और कुछ न देखता हो, यही खेचरी मुद्रा है। यह केवल लक्ष्य में ही एकतान एवं मङ्गलमयी होने के कारण वैष्णवी मुद्रा भी कही जाती है। उसमें शून्य एवं अशून्य रहित परमतत्त्व अविनाशी पद रूप में प्रकाशित होता रहता है ॥१५॥ अर्धोन्मीलितलोचनः स्थिरमना नासाग्रदत्तेक्षणश्चन्द्रार्कावपि लीनतामुपनयन्निष्यन्द भावोत्तरम्। ज्योतीरूपमशेषबाह्यरहितं देदीप्यमानं परं तत्त्वं तत्परमस्ति वस्तुविषयं शाण्डिल्य विद्धीह तत् ॥१६॥ अर्ध उन्मीलित नेत्रों से युक्त, एकाग्र मनवाला तथा नासिका के अग्रभाग पर स्थित दृष्टि से सम्पन्न योगी अचल भाव को पाने के पश्चात् सूर्य एवं चन्द्र नाड़ी को भी विलय करा देता है। इस समय ज्योति रूप समस्त बाहरी विषयों से विहीन एवं दीप्तिमान् जो तत्त्व प्रकाशित हो रहा है, वही परम वस्तु के रूप में उसका विषय होता है। हे शाण्डिल्य! इस प्रकार तुम्हें जानना चाहिए ॥ १६ ॥ तारं ज्योतिषि संयोज्य किंचिदुन्नमयन्ध्रुवौ। पूर्वाभ्यासस्य मार्गोऽयमुन्मनीकारकः क्षणात् ॥१७॥ योगी साधक दोनों नेत्रों की पुतलियों को ज्योति से जोड़कर दोनों भौंहों को कुछ ऊँचा रखता है। यह साधक के प्रारम्भिक अभ्यास का मार्ग है और इससे क्षणमात्र में ही 'उन्मनी' स्थिति प्राप्त हो जाती है। ॥१७॥ तस्मात्खेचरीमुद्रामभ्यसेत्। तत उन्मनी भवति। ततो योगनिद्रा भवति। लब्धयोगनिद्रस्य योगिनः कालो नास्ति । ॥१७.१॥ इसलिए साधक को खेचरी मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए, उससे वह उन्मनी दशा को प्राप्त करता है, फिर उसे योग निद्रा की प्राप्ति हो जाती है। जिस साधक को योग-निद्रा की प्राप्ति हो, वह योगी फिर काल के वश में नहीं होता ॥१७.१॥ शक्तिमध्ये मनः कृत्वा शक्तिं मानसमध्यगाम् । मनसा मन आलोक्य शाण्डिल्य त्वं सुखी भव ॥१८॥ इस कारण हे शाण्डिल्य ! शक्ति के बीच में मन को केन्द्रित करो। शक्ति को मन के अन्दर गतिशील रखकर तुम मन के द्वारा मन को ही देखो तथा सुखी-समुन्नत जीवन व्यतीत करो ॥ १८॥ स्वमध्ये कुरु चात्मानमात्ममध्ये च खं कुरु । सर्वं च खमयं कृत्वा न किंचिदपि चिन्तय ॥१९॥ ऐसे ही चैतन्य आकाश के बीच में आत्मा को स्थित करके तथा आत्मा के मध्य में आकाश को प्रतिष्ठित देखना चाहिए। इसके पश्चात् सभी को चैतन्य आकाशमय करके, ऐसा ध्यान करें कि इसके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं ॥१९॥ बाह्यचिन्ता न कर्तव्या तथैवान्तरचिन्तिका। सर्वचिन्तां परित्यज्य चिन्मात्रपरमो भव ॥२०॥ योगी को बाह्यजगत् की चिन्ता नहीं करनी चाहिए, उसी प्रकार अपने भीतर की भी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। इस तरह समस्त प्रकार की चिन्ताओं का परित्याग करके मात्र चैतन्य स्वरूप हो जाना चाहिए ॥२०॥ कर्पूरमनले यद्वत्सैन्धवं सलिले यथा। तथा च लीयमानं सन्मनस्तत्त्वे विलीयते ॥ २१॥ जिस तरह से कपूर अग्नि में तथा नमक जल में विलीन हो जाता है, उसी तरह से ध्यानस्थ हुए योगी का मन परम तत्त्व में विलीन हो जाता है ॥२१॥ ज्ञेयं सर्वप्रतीतं च तज्ज्ञानं मन उच्यते। ज्ञानं ज्ञेयं समं नष्टं नान्यः पन्था द्वितीयकः ॥२२॥ जो भी कुछ जानने योग्य है और जो प्रतीत होता है, उसका जो ज्ञान है, उसे ही मन कहते हैं। ज्ञान एवं ज्ञेय सभी कुछ एक ही साथ विनष्ट हो गया है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई भी पथ नहीं है ॥२२॥ ज्ञेयवस्तुपरित्यागाद्विलयं याति मानसम् । मानसे विलयं याते कैवल्यमवशिष्यते ॥२३॥ ज्ञेय वस्तु का परित्याग कर देने से मन विलीनता को प्राप्त हो जाता है और जब मन विलीनता को प्राप्त हो जाता है, तब कैवल्य ही कैवल्य शेष रह जाता है ॥२३॥ द्वौ क्रमौ चित्तनाशस्य योगो ज्ञानं मुनीश्वर। योगस्तद्वृत्तिरोधो हि ज्ञानं सम्यगवेक्षणम् ॥२४॥ हे मुनीश्वर! चित्त को विनष्ट करने के दो प्रमुख मार्ग हैं- १. योग और २. ज्ञान । योग अर्थात् चित्त की वृत्तियों का शमन करना तथा ज्ञान अर्थात् वस्तु के तत्त्व को यथार्थ रूप में देखना ॥२४॥ तस्मिन्निरोधिते नूनमुपशान्तं मनो भवेत्। मनः स्पन्दोपशान्त्यायं संसारः प्रविलीयते ॥२५॥ मन को जब अपने वश में कर लिया जाता है, तब वह निश्चित ही शान्त हो जाता है। मन की चंचलता के शान्त होते ही इस संसार का विलय हो जाता है ॥२५॥ सूर्यालोकपरिस्पन्दशान्तौ व्यवहृतिर्यथा। शास्त्रसज्जनसंपर्कवैराग्याभ्यासयोगतः ॥२६॥ जिस प्रकार सूर्य की गति शान्त हो जाने पर संसार का व्यवहार शान्त हो जाता है, वैसे ही शास्त्रों एवं सज्जनों की संगति से वैराग्य के अभ्यास का योग हो जाने से भी संसार शान्त हो जाता है ॥२६॥ अनास्थायां कृतास्थायां पूर्व संसारवृत्तिषु। यथाभिवाञ्छितध्यानाच्चिरमेकतयोहितात् ॥२७॥ सर्वप्रथम सांसारिक वृत्तियों के प्रति अनास्था उत्पन्न की जाए, तत्पश्चात् लम्बे समय तक ध्यान एवं एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास हो जाने से प्राण का स्पन्दन बन्द हो जाता है अर्थात् प्राणवायु को अपने वश में कर लिया जाता है। ॥२७॥ एकतत्त्वदृढाभ्यासात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते। पूरकाद्यनिलायामाद्‌द्बुढाभ्यासादखेदजात् ॥२८॥ इसी प्रकार बिना श्रम के अधिक देर तक श्वास खींचते हुए पूरक आदि वायु के दृढ़ अभ्यास तथा एकान्त चिन्तन करने से मन की गति पूर्णतया बन्द हो जाती है (मन वश में हो जाता है)। ॥२८॥ एकान्तध्यानयोगाच्च मनः स्पन्दो निरुध्यते । ओङ्कारोच्चारणप्रान्तशब्दतत्त्वानुभावनात्। सुषुप्ते संविदा ज्ञाते प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥२९॥ तदनन्तर ॐकार के उच्चारण के बाद शब्द तत्त्व की अनुभूति होने से सज्ञान द्वारा सुषुप्ति का रूप जान लिया जाता है, तब प्राण की गति रुक जाती है अर्थात् प्राण तत्त्व को अपने वश में कर लिया जाता है॥२९॥ तालुमूलगतां यत्नाजिह्वयाक्रम्य घण्टिकाम्। ऊर्ध्वरन्ध्र गते प्राणे प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥ ॥३०॥ तालु के मूल में स्थित रहने वाली ग्रन्थि को जब सतर्कतापूर्वक जिह्वा द्वारा दबाया जाता है, तब प्राणवायु ऊपर के छिद्र में आ जाता है और तभी प्राणगति अवरुद्ध (अपने वश में) हो जाती है ॥३०॥ प्राणे गलितसंवित्तौ तालूक् द्वादशान्तगे। अभ्यासादूर्ध्वरन्ध्रण प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥३१॥ तालु से ऊर्ध्व की ओर बारह अंगुल दूर तक गमन करने वाला प्राण चेष्टा-शून्य हो जाता है, तब अभ्यास मात्र से ही ऊपर के छिद्र द्वारा प्राण का स्पन्दन अवरुद्ध किया जाता है ॥ ३१॥ द्वादशाङ्गलपर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे। संविदृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥३२॥ नासिका के अग्रभाग के सामने द्वादश अंगुल की दूरी पर पवित्र आकाश में ज्ञान-दृष्टि जब अत्यन्त शान्त हो जाती है, तभी प्राणों का स्पन्दन अवरुद्ध हो जाता है॥ ३२॥ भ्रूमध्ये तारकालोकशान्तावन्तमुपागते। चेतनैकतने बद्धे प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥३३॥ भौंहों के मध्य में तारक ब्रह्म के साक्षात्कार होने पर शान्ति के मिल जाने से जगत् व्यापार बन्द होने लगते हैं तथा मानसिक संकल्प विराम लेते हैं, तभी प्राणगति अवरुद्ध हो जाती है ॥ ३३॥ ओमित्येव यदुद्भूतं ज्ञानं ज्ञेयात्मकं शिवम् । असंस्पृष्टविकल्पांशं प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥३४॥ केवल प्रणव के स्वरूप में ही प्रादुर्भूत जो ज्ञानज्ञेय रूप तथा मंगलमय बनकर प्रकट होता है तथा जिसमें विकल्प के अंश का स्पर्श भी नहीं रहता, तभी प्राण की गति अवरुद्ध हो जाती है ॥ ३४॥ चिरकालं हृदेकान्तव्योमसंवेदनान्मुने । अवासनमनोध्यानात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥ ३५॥ हे मुने! चिरकाल तक हृदय प्रदेश में एकान्त आकाश की अनुभूति होने से वासना विहीन मन ध्यान मग्न होने लगता है। इससे प्राण का स्पन्दन अवरुद्ध हो जाता है ॥ ३५ ॥ एभिः क्रमैस्तथान्यैश्च नानासंकल्पकल्पितैः । नानादेशिकवक्त्रस्यैः प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥३६-क॥ इस प्रकार क्रमानुसार अन्य अनेक गुरुओं के अमृत वचनों-उपदेशों का अनुसरण करके भाँति-भाँति के संकल्पों की कल्पना के माध्यम से प्राण का स्पन्दन अवरुद्ध हो जाता है ॥३६-क॥ आकुञ्चनेन कुण्डलिन्याः कवाटमुद्धाट्य मोक्षद्वारं विभेदयेत् ॥३६- ख ॥ योगी साधक कुण्डलिनी को संकुचित करके दरवाजे को खोलकर मुक्ति का द्वार प्रशस्त करे ॥३६-ख॥ येन मार्गेण गन्तव्यं तद्वारं मुखेनाच्छाद्य प्रसुप्ता। कुण्डलिनी कुटिलाकारा सर्पवद्वेष्टिता भवति ॥३६-ग॥ जिस मार्ग से गमन करना होता है, उसी मार्ग का द्वार मुख से आच्छादित करके कुण्डलिनी शयन करती है। वह तिर्यक स्वरूप वाली सर्प की भाँति लिपटी हुई है॥ ३६-ग॥ सा शक्तिर्येन चालिता स्यात्स तु मुक्तो भवति। सा कुण्डलिनी कण्ठोर्वभागे सुप्ता चेद्योगिनां मुक्तये भवति। बन्धनायाधो मूढानाम् ॥३६-घ॥ इस कुण्डलिनी महाशक्ति को जो योगी निरन्तर संचालित करता है, वह मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। वह कुण्डलिनी साधक के कण्ठ में ऊर्ध्व भाग की तरफ यदि शयन करती हुई हो, तो वह योगियों को मुक्ति प्रदान कर देने वाली होती है, किन्तु यदि वह कण्ठ के नीचे शयन करती हो, तो ज्ञानरहित साधकों के लिए बन्धनकारी सिद्ध होती है॥ ३६-घ ॥ इडादिमार्गद्वयं विहाय सुषुम्नामार्गेणागच्छेत्तद्विष्णोः परमं पदम् ॥३६-ड॥ इड़ा आदि दोनों मार्गों का परित्याग करके सुषुम्ना के रास्ते उसका आगमन होता है, क्योंकि वही विष्णु का परम पद है ॥३६-ङ॥ मरुदभ्यसनं सर्वं मनोयुक्तं समभ्यसेत् । इतरत्र न कर्तव्या मनोवृत्तिर्मनीषिणा ॥ ३७॥ प्राणायाम का संपूर्ण अभ्यास मन के साथ ही होना चाहिए। इस अवसर पर ज्ञानी पुरुष को मन को वृत्ति को अन्यत्र संयुक्त नहीं होने देना चाहिए ॥३७॥ दिवा न पूजयेद्विष्णुं रात्रौ नैव प्रपूजयेत्। सततं पूजयेद्विष्णुं दिवारानं न पूजयेत् ॥ ३८॥ यहाँ पर यह बात नहीं है कि अमुक दिन विष्णु का पूजन नहीं करना चाहिए अथवा अमुक रात्रि को विष्णु को न पूजना चाहिए, बल्कि सदा ही विष्णु की पूजा करते रहना चाहिए। केवल रात्रि में अथवा दिन में ही न पूजना चाहिए ॥ ३८॥ सुषिरो ज्ञानजनकः पञ्चस्रोतः समन्वितः । तिष्ठते खेचरी मुद्रा त्वं हि शाण्डिल्य तां भज ॥३९॥ हे शाण्डिल्य! पाँच इन्द्रियों के प्रवाह वाला हृदय रूप रिक्त स्थान ज्ञान को प्रादुर्भूत करने वाला है तथा वहीं खेचरी मुद्रा स्थित रहती है। अतः आप उसी का सेवन करें ॥३९॥ सव्यदक्षिणनाडीस्थो मध्ये चरति मारुतः। तिष्ठते खेचरी मुद्रा तस्मिन्स्थाने न संशयः ॥४०॥ बायीं एवं दाहिनी नाड़ी में स्थित होकर मध्य में वायु का संचरण होता रहता है तथा उस स्थान में खेचरी मुद्रा प्रतिष्ठित रहती है, इसमें किसी भी तरह का संशय नहीं है ॥ ४०॥ इडापिङ्गलयोर्मध्ये शून्यं चैवानिलं ग्रसेत् । तिष्ठन्ती खेचरी मुद्रा तत्र सत्यं प्रतिष्ठितम् ॥४१॥ इड़ा एवं पिंगला के मध्य में शून्य भाग स्थित है। वहाँ वह वायु को ग्रस लेता है, खेचरी मुद्रा भी वहीं पर प्रतिष्ठित रहती है एवं वहीं सत्य भी स्थित रहता है ॥४१॥ सोमसूर्यद्वयोर्मध्ये निरालम्बतले पुनः । संस्थिता व्योमचक्रे सा मुद्रा नाम्ना च खेचरी ॥४२क ॥ चन्द्रमा एवं सूर्य की दोनों नाड़ियों के बीच में आधार-रहित धरातल स्थित है, वहीं व्योम मण्डल में खेचरी मुद्रा प्रतिष्ठित है॥ ४२-क ॥ छेदनचालनदोहैः फलां परां जिह्वां कृत्वा दृष्टिं भ्रूमध्ये स्थाप्य कपालकुहरे जिह्वा विपरीतगा यदा भवति तदा खेचरी मुद्रा जायते। जिह्वा चित्तं च खे चरति तेनोर्ध्वजिह्वः पुमानमृतो भवति ॥ ४२-ख ॥ छेदन, चालन एवं दोहन के द्वारा जिह्वा को ज्यादा से ज्यादा नुकीला बनाकर, भृकुटि के बीच में दृष्टि स्थिर करके, कपाल के छिद्र में जब जिह्वा विपरीत (उल्टी) होकर गमन करने लगती है, तभी खेचरी मुद्रा सिद्ध होती है। जिह्वा एवं चित्त दोनों ही कपाल के छिद्र रूपी आकाश में विचरण करते हैं, तभी ऊर्ध्व की ओर गई हुई जिह्वा वाला पुरुष अमरता को प्राप्त कर लेता है ॥ ४२-ख ॥ वामपादमूलेन योनिं संपीड्य दक्षिणपादं प्रसार्य तं कराभ्यां धृत्वा नासाभ्यां वायुमापूर्य कण्ठबन्धं समारोप्योर्ध्वतो वायुं धारयेत्। तेन सर्वक्लेशहानिः। ततः पीयूषमिव विषं जीर्यते। क्षयगुल्मगुदावर्तजीर्णत्वगादिदोषा नश्यन्ति। एष प्राणजयोपायः सर्वमृत्यूपघातकः ॥४२-ग॥ बायें पैर को एड़ी से मूलरन्ध्र को दबाकर दाहिना पैर आगे की तरफ फैलाकर उसे दोनों हाथों से पकड़ना तथा इसके पश्चात् नासिका के दोनों छिद्रों से वायु को भर कर कण्ठबन्ध (जालन्धर बन्ध) लगाना एवं ऊपर की ओर उठी हुई वायु को स्थिर करना चाहिए। इस क्रिया से समस्त क्लेशों का विनाश हो जाता है। इसके बाद विष भी अमृत के सदृश पच जाता है। क्षय, गुल्म, गुदावर्व एवं त्वचा के असाध्य एवं पुराने रोग विनष्ट हो जाते हैं। प्राण को जीतने का यह उपाय मृत्यु को पूर्णरूप से विनष्ट करने वाला है॥ ४२-ग॥ वामपादपाणियोनिस्थाने नियोज्य दक्षिणचरणं वामोरूपरि संस्थाप्य वायुमापूर्य हृदये चुबुकं निधाय योनिमाकुञ्य मनोमध्ये यथाशक्ति धारयित्वा स्वात्मानं भावयेत्। तेनापरोक्षसिद्धिः ॥ ॥४२-घ॥ बायें पैर को एड़ी को योनि स्थान के साथ संयुक्त करके, दाहिना पैर बायें पैर पर रखे तथा वायु को अन्दर भरकर, ठुड्डी को हृदय की तरफ दबाकर योनि स्थान को संकुचित कर मन के मध्य अपनी आत्मा का चिन्तन करना चाहिए। इस क्रिया से अपरोक्ष सिद्धि की प्राप्ति होती है ॥४२-घ॥ बाह्यात्प्राणं समाकृष्य पूरयित्वोदरे स्थितम्। नाभिमध्ये च नासाग्रे पादाङ्ग‌ष्ठे च यत्नतः ॥४३॥ बाहर से प्राणवायु को अन्दर की ओर आकृष्ट करके उदर में प्रतिष्ठित करे और वहाँ से उसे नाभि के मध्य में, नाक के अग्रभाग में तथा पैर के अंगूठे में मन द्वारा प्रयासपूर्वक धारण करे। ॥४३॥ धारयेन्मनसा प्राणं सन्ध्याकालेषु वा सदा। सर्वरोगविनिर्मुक्तो भवेद्योगीगतक्लमः ॥४४क ॥ इस तरह से सन्ध्याकाल में यह क्रिया सदैव करने वाला योगी साधक समस्त रोगों से मुक्ति पाकर श्रम-रहित हो जाता है॥४४-क ॥ नासाग्रे वायुविजयं भवति। ना भिमध्ये सर्वरोगविनाशः। पादाङ्ग‌ष्ठधारणाच्छरीरलघुता भवति ॥ ४४-ख॥ नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि केन्द्रित करने से वायु को वश में किया जा सकता है, नाभि के मध्य में स्थिर करने से सभी रोगों का नाश होता है तथा पैर के अंगूठे में स्थिर करने से शरीर हल्का हो जाता है। ॥४४-ख॥ रसनाद्वायुमाकृष्य यः पिबेत्सततं नरः । श्रमदाहौ तु न स्यातां नश्यन्ति व्याधयस्तथा ॥४५॥ जो मनुष्य जिह्वा द्वारा वायु को खींचकर सतत पान किया करता है, उसे श्रम या दाह नहीं होता तथा उसके समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं। ॥४५॥ सन्ध्ययोर्ब्रह्मणः काले वायुमाकृष्य यः पिबेत् । त्रिमासात्तस्य कल्याणी जायते वाक् सरस्वती ॥ ४६॥ जो ब्राह्मण दोनों सन्ध्याकाल में वायु को अपनी ओर आकृष्ट करके उसको पीता रहता है, उसकी वाणी में तीन मास में ही कल्याण स्वरूपा माँ सरस्वती प्रकट हो जाती हैं ॥४६॥ एवं षण्मासाभ्यासात्सर्वरोगनिवृत्तिः । जिह्वया वायुमानीय जिह्वामूले निरोधयेत्। यः पिबेदमृतं विद्वान्सकलं भद्रमश्रुते ॥४७॥ इसी तरह से छः मास पर्यन्त अभ्यास करने से समस्त प्रकार के रोगों का शमन हो जाता है। जो विद्वान् पुरुष जिह्वा द्वारा वायु को ग्रहण करके जिह्वा के मूल में उसे अवरुद्ध करता है, वह अमृत का पान करता है तथा उसका सब प्रकार से कल्याण ही होता है ॥ ४७ ॥ आत्मन्यात्मानमिडया धारयित्वा ध्रुवोऽन्तरे। विभेद्य त्रिदशाहारं व्याधिस्थोऽपि विमुच्यते ॥ ४८॥ इड़ा नाड़ी के द्वारा दोनों भौंहों के मध्य में आत्मा में ही आत्मा (मन) को धारण कर लेने से पुरुष देवों के आहार का भेदन करता है, इस क्रिया को सम्पन्न करते समय यदि वह रोगी भी होता है, तो समस्त रोगों से मुक्त हो जाता है ॥४८॥ नाडीभ्यां वायुमारोप्य नाभौ तुन्दस्य पार्श्वयोः । घटिकैकां वहेद्यस्तु व्याधिभिः स विमुच्यते ॥ ॥४९॥ इड़ा एवं पिंगला दोनों नाड़ियों के द्वारा वायु को नाभि तक खींचकर पेट के दोनों भागों में जो मनुष्य एक घड़ी तक चलाता रहता है, वह सभी रोगों से छूट जाता है ॥४९ ॥ मासमेकं त्रिसन्ध्यं तु जिह्वयारोप्य मारुतम्। विभेद्य त्रिदशाहारं धारयेत्तुन्दमध्यमे ॥५०॥ जो मनुष्य एक मास तक तीनों (प्रातः, मध्याह्न, सायं) काल में जिह्वा द्वारा वायु को अन्दर आकृष्ट करके उदर के मध्य भाग में अवरुद्ध करता है, वह भी देवताओं के आहार का भेदन करने वाला हो जाता है ॥५०॥ ज्वराः सर्वेऽपि नश्यन्ति विषाणि विविधानि च। मुहूर्तमपि यो नित्यं नासाग्रे मनसा सह। सर्वं तरति पाप्मानं तस्य जन्मशतार्जितम् ॥५१॥ जो पुरुष नित्य मुहूर्त भर के लिए मन के साथ वायु को नासिका के अग्रभाग पर धारण करता है, उसके सभी तरह के ज्वर विनष्ट हो जाते हैं। विभिन्न प्रकार के विषों का शमन हो जाता है। उसके सैकड़ों जन्म के पाप पूर्णरूप से छूट जाते हैं ॥५१॥ तारसंयमात्सकलविषयज्ञानं भवति। आँख की पुतली पर संयम करने से सभी प्रकार के विषयों का ज्ञान प्राप्त होता है। नासाग्रे चित्तसंयमादिन्द्रलोकज्ञानम्। नासिका के अग्रभाग पर चित्त का संयम करने से इन्द्रलोक का ज्ञान प्राप्त होता है। तदधश्चित्त संयमादग्निलोकज्ञानम्। उसके नीचे चित्त का संयम करने से अग्निलोक का ज्ञान प्राप्त होता है। चक्षुषि चित्तसंयमात्सर्वलोकज्ञानम्। नेत्र में चित्त का संयम करने से सभी लोकों का ज्ञान प्राप्त होता है। श्रोत्रे चित्तस्य संयमाद्यमलोक ज्ञानम्। श्रोत्र में संयम करने से यम लोक का ज्ञान प्राप्त होता है। तत्पार्श्वे संयमानिऋतिलोकज्ञानम्। उसके बगल में चित्त का संयम करने से राक्षसों के लोक का ज्ञान होता है। पृष्ठभागे संयमाद्वरुणलोकज्ञानम्। पीठ के भाग में संयम करने से वरुण लोक का ज्ञान होता है। वामकर्णे संय माद्वायुलोकज्ञानम्। बायें कान में चित्त का संयम करने पर वायु लोक का ज्ञान होता है। कण्ठे संयमात्सोमलोकज्ञानम्। कण्ठ में संयम करने से चन्द्रलोक का ज्ञान होता है। वामचक्षुषि संयमाच्छिवलोकज्ञानम्। बायीं आँख में संयम करने से शिवलोक का ज्ञान प्राप्त होता है। शाण्डल्यापानषद् मूर्ध्नि संयमाद्ब्रह्मलोकज्ञानम्। मस्तक में संयम करने से ब्रह्मलोक का ज्ञान होता है। पादाधोभागे संयमादतललोकज्ञानम्। पैर के नीचे (तलवे) में संयम करने से अतल लोक का ज्ञान होता है। पादे संयमाद्वितललोक ज्ञानम्। पैर (पंजे) में संयम करने से वितल लोक का ज्ञान होता है। पादसन्धौ संयमानितललोकज्ञानम्। पैर के जोड़ (टखने) में चित्त का संयम करने से नितल लोक का ज्ञान होता है। जड़े संयमात्सुतललोकज्ञानम्। पैर की जंघा (पिंडली) में संयम करने से सुतल लोक का ज्ञान होता है। जानौ संयमान्म हातललोकज्ञानम्। जानु (घुटने) में संयम करने से महातल लोक का ज्ञान प्राप्त होता है। ऊरौ चित्तसंयमाद्रसातललोकज्ञानम्। ऊरु (जाँघ) में संयम करने से रसातल का ज्ञान होता है। कटौ चित्तसंयमात्तलात ललोकज्ञानम्। कमर में संयम करने से तलातल लोक का ज्ञान होता है। नाभौ चित्तसंयमा‌भूलोकज्ञानम्। नाभि में चित्त का संयम करने से भूलोक का ज्ञान होता है। कुक्षौ संयमाद्भवलोकज्ञानम्। पेट में संयम करने से भुवः लोक का ज्ञान होता है। हृदि चित्तस्य संयमात्स्वलोकज्ञानम्। हृदय में चित्त का संयम रखने से स्वः लोक का ज्ञान प्राप्त होता है हृदयोर्ध्वभागे चित्तसंयमान्महर्लोकज्ञानम्। हृदय के ऊर्ध्व भाग में चित्त का संयम करने से महः लोक का ज्ञान प्राप्त होता है। कण्ठे चित्तसंयमाजनो लोकज्ञानम्। कण्ठ में संयम करने से जनः लोक का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। भ्रूमध्ये चित्तसंयमात्तपोलोकज्ञानम्। भृकुटी के मध्य में संयम करने से तपः लोक का ज्ञान प्राप्त होता है। मूर्ध्नि चित्तसंयमात्सत्यलोकज्ञानम्। मस्तक में चित्त का संयम करने से सत्यलोक का ज्ञान प्राप्त होता है। धर्माधर्मसंयमादतीतानागतज्ञानम्। धर्म तथा अधर्म में संयम करने से भूत-भविष्यत् का ज्ञान हो जाता है। तत्तजन्तुध्वनौ चित्तसंयमात्सर्वजन्तुरुतज्ञानम् । विभिन्न प्राणियों की आवाज में संयम करने से उनकी बोली का ज्ञान होता है। संचितकर्मणि चित्तसंयमात्पूर्वजातिज्ञानम्। सञ्चित कर्म में संयम करने से पूर्व जन्म का ज्ञान होता है। परचित्ते चित्तसंयमात्परचित्तज्ञानम्। दूसरे लोगों के चित्त में संयम रखने से दूसरे के चित्त का ज्ञान होता है। कायरूपे चित्तसंयमादन्यादृश्यरूपम्। शरीर के रूप में संयम करने से दूसरे का-सा रूप हो जाता है। बले चित्तसंयमाद्धनुमदादिबलम्। बल में संयम करने से हनुमान् आदि के जैसा बल प्राप्त हो जाता है। सूर्ये चित्तसंयमा वनज्ञानम्। सूर्य में संयम करने से समस्त भुवनों का ज्ञान हो जाता है। चन्द्रे चित्तसंयमात्ताराव्यूहज्ञानम्। चन्द्र में संयम करने से समस्त तारामण्डलों का ज्ञान हो जाता है। ध्रुवे तद्गतिदर्शनम् । ध्रुव में संयम करने से उसकी गति का दर्शन होता है। स्वार्थसंयमात्पुरुषज्ञानम्। स्वार्थ में संयम करने से पुरुष का ज्ञान होता है। नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम्। नाभिचक्र में संयम करने से शरीर व्यूह का ज्ञान होता है। कण्ठकूपे क्षुत्पिपासानिवृत्तिः । कण्ठ कूप में संयम करने से भूख-प्यास समाप्त हो जाती है। कूर्मनाड्यां स्थैर्यम् । कूर्म नाड़ी में संयम करने से स्थिरता आती है। तारे सिद्धदर्शनम्। तारा में संयम करने से सिद्ध दर्शन होता है। कायाकाशसंयमादाकाशगमनम्। शरीर के आकाश में संयम करने से मनुष्य आकाश में गमन कर सकता है। तत्तत्स्थाने संयमात्तत्तत्सिद्धयो भवन्ति ॥५२॥ इस तरह से भिन्न-भिन्न स्थानों में संयम करने से उस स्थान में स्थित विभिन्न प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं ॥५२॥

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