ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १२४

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १२४ ऋषि - कक्षीवान दैघतमस औशिजः देवता- उषाः । छंद - त्रिष्टुप उषा उच्छन्ती समिधाने अग्ना उद्यन्त्सूर्य उर्विया ज्योतिरश्रेत् । देवो नो अत्र सविता न्वर्थं प्रासावीद्द्‌विपत्प्र चतुष्पदित्यै ॥१॥ अग्नि के प्रदीप्त होने पर देवी उषा अधिकार का नाश करती हैं और सूर्योदय के समान अति तेजस्विता को धारण करती हैं। ये सूर्यदेव हमें उपयोगी धन तथा मनुष्यों और मनुष्येत्तर प्राणियों को जाने के लिए मार्ग प्रशस्त करें। अर्थात् देवी उषा के आने के बाद हम मनुष्यों, गौ, अश्वादि पशुओं के लिए आने जाने के रास्ते खुल जायें ॥१॥ अमिनती दैव्यानि व्रतानि प्रमिनती मनुष्या युगानि । ईयुषीणामुपमा शश्वतीनामायतीनां प्रथमोषा व्यद्यौत् ॥२॥ ये देवी उषा अनुशासनात्मक नियमों का पालन करने वाली, मनुष्यों की आयु को लगातार कम करने वाली हैं। निरन्तर आने वाली विगत उषाओं के अन्त में तथा भविष्य में आने वाली उषाओं में यह सर्वप्रथम प्रकाशित होती हैं॥२॥ एषा दिवो दुहिता प्रत्यदर्शि ज्योतिर्वसाना समना पुरस्तात् । ऋतस्य पन्थामन्वेति साधु प्रजानतीव न दिशो मिनाति ॥३॥ स्वर्गलोक की कन्यारूपी ये देवी उषा प्रकाश रूप वस्त्र धारण करने वाली, श्रेष्ठ मनवाली तथा प्रतिदिन पूर्व दिशा से आती हुई दिखाई देती हैं। जिस प्रकार विदुषी नारी सत्य मार्ग से जाती हैं, उसी प्रकार दिशाओं में अवरोध न पहुँचाती हुई ये देवी उषा जाती हैं॥३॥ उपो अदर्शि शुन्ध्युवो न वक्षो नोधा इवाविरकृत प्रियाणि । अद्मसन्न ससतो बोधयन्ती शश्वत्तमागात्पुनरेयुषीणाम् ॥४॥ शुद्ध पवित्र वक्षस्थल के समान देवी उषा समीप से ही दिखाई देती हैं। नई वस्तुओं का निर्माण करने वाले के समान ही देवी उषा ने अपने किरण रूपी अवयवों को प्रकट किया है। जिस प्रकार गृहस्थ महिलायें सोये हुए परिवारजनों को जगाती हैं, वैसे ही भविष्य में आनेवाली उषाओं में सर्वप्रथम ये देवी उषा दुबारा जगाने के लिए आ गई हैं ॥४॥ पूर्वे अर्धे रजसो अप्त्यस्य गवां जनित्र्यकृत प्र केतुम् । व्यु प्रथते वितरं वरीय ओभा पृणन्ती पित्रोरुपस्था ॥५॥ विस्तृत अन्तरिक्ष लोक के पूर्व दिशा भाग में रश्मियों को उत्पन्न करने वाली देवी उषा ने प्रकाश रूपी ध्वजा को फहराया है। द्युलोक भूलोक रूपी माता-पिता के पास रहकर दोनों लोकों को प्रकाश से परिपूर्ण करती हुईं ये देवी उषा विशिष्ट तेजस्वी प्रकाश से अन्तरिक्ष को परिपूर्ण करती हैं॥५॥ एवेदेषा पुरुतमा दृशे कं नाजामिं न परि वृणक्ति जामिम् । अरेपसा तन्वा शाशदाना नार्भादीषते न महो विभाती ॥६॥ विस्तृत होने वाली ये देवी उषा सुख व आनन्द के लिए जिस प्रकार विरोधी का त्याग नहीं करतीं, उसी प्रकार आत्मीय जनों को भी अपने प्रकाश से वंचित नहीं करतीं (अर्थात् अपने पराये का भेद किये बिना अपने प्रकाश से सभी को लाभ देती हैं) प्रकाश रूपी निर्दोष शरीर से प्रकाशित होने वाली देवी उषा जिस प्रकार छोटे से दूर नहीं होतीं, उसी प्रकार बड़े का त्याग नहीं करतीं, अपितु छोटे - बड़े का भेद किये बिना दोनों को प्रकाशित करती हैं॥६॥ अभ्रातेव पुंस एति प्रतीची गर्तारुगिव सनये धनानाम् । जायेव पत्य उशती सुवासा उषा हस्रेव नि रिणीते अप्सः ॥७॥ भ्रातृहीन बहिन जिस प्रकार निराश्रित होने पर वापस अपने माता- पिता के पास चली जाती है अथवा जिस प्रकार कोई विधवा धन में हिस्सा पाने के लिए न्यायालय में जाती हैं, उसी प्रकार उत्तम वस्त्रों को धारण करके सूर्य रूप पति से मिलने की इच्छुक ये देवी उषा मुस्कराती हुई अपने किरण रूप सौन्दर्य को प्रकट करती हैं॥७॥ स्वसा स्वस्रे ज्यायस्यै योनिमारैगपैत्यस्याः प्रतिचक्ष्येव । व्युच्छन्ती रश्मिभिः सूर्यस्याञ्ज्य‌ङ्क्ते समनगा इव ब्राः ॥८॥ जिस प्रकार छोटी बहिन अपनी ज्येष्ठ बहिन के लिए स्थान रिक्त कर देती है, वैसे ही रात्रिरूपी छोटी बहिन अपनी ज्येष्ठ बहिन देवी उषा के लिए मानो अपने स्थान से हट जाती हैं। सूर्यदेव की रश्मियों से अन्धकार को हटाती हुईं ये देवी उषा उत्सव में जाने वाली स्त्रियों की तरह अच्छी प्रकार चलने वाली किरण समूह के समान अपने स्वरूप को प्रकट करती हैं॥८॥ आसां पूर्वासामहसु स्वसृणामपरा पूर्वामभ्येति पश्चात् । ताः प्रत्नवन्नव्यसीर्नूनमस्मै रेवदुच्छन्तु सुदिना उषासः ॥९॥ जो उषा रूपी बहिनें पहले चली गई हैं उन दिनों के बीच में अन्तिम देवी उषा के पीछे से एक-एक नवीन देवी उषा क्रम से जाती हैं। वे उषाएँ पूर्व की तरह नवीन दिन अर्थात् नयी उषाएँ भी हमारे लिए निश्चय ही प्रचुर धनयुक्त श्रेष्ठ दिवस को प्रकाशित करती रहें ॥९॥ प्र बोधयोषः पृणतो मघोन्यबुध्यमानाः पणयः ससन्तु । रेवदुच्छ मघवद्भयो मघोनि रेवत्स्तोत्रे सूनृते जारयन्ती ॥१०॥ है धनवति उषे ! आप दाताओं को जगायें। न जागने वाले लोभी व्यापारी सोते रहें। हे धनवती उषे ! धनवानों के निमित्त धन देने के साथ यज्ञीय भावना की प्रेरणा भी प्रदान करें । हे सुभाषिणि उषे ! सम्पूर्ण प्राणियों की आयु कम करने वाली आप स्तोताओं के निमित्त अपार वैभव से युक्त होकर प्रकाशमान हों ॥१०॥ अवेयमश्वैद्युवतिः पुरस्ता‌द्यु‌ङ्क्ते गवामरुणानामनीकम् । वि नूनमुच्छादसति प्र केतुगृहंगृहमुप तिष्ठाते अग्निः ॥११॥ तरुणी स्त्री के समान ये देवी उषा पूर्व दिशा से प्रकाशित हो रही हैं। इन्होंने किरणों रूपी लाल वर्ण के अच्चों को अपने रथ में जोता हुआ है। ये देवी उषा निश्चित ही विशेष रूप से प्रकाशित होती हैं। उसके प्रकाश रूपी ध्वजा रोहण के साथ ही घर-घर में यज्ञाग्नि प्रज्वलित होती है॥११॥ उत्ते वयश्चिद्वसतेरपप्तन्नरश्च ये पितुभाजो व्युष्टौ । अमा सते वहसि भूरि वाममुषो देवि दाशुषे मर्त्याय ॥१२॥ देवी उषा के प्रकाशित होते ही पक्षीगण अपना घोंसला त्याग देते हैं। मनुष्य भी अन्न की कामना के लिए प्रेरित होते हैं। हे देवी उषे ! आप गृहस्थ जीवन में रहकर यज्ञ और दानदाता मनुष्य के लिए प्रचुर धन सम्पदा प्रदान करें ॥१२॥ अस्तोवं स्तोम्या ब्रह्मणा मेऽवीवृधध्वमुशतीरुषासः । युष्माकं देवीरवसा सनेम सहस्रिणं च शतिनं च वाजम् ॥१३॥ हे स्तुति योग्य उषाओ ! हमारे इस स्तवन से आपकी प्रार्थना सम्पन्न हो रही हैं। सभी उषाएँ प्रगति की कामना से हम सभी प्रजाजनों को समृद्ध करें । हे देवत्व सम्पन्न उषाओ ! आपके संरक्षण साधनों से हम सैकड़ों और हजारों प्रकार के धन-धान्य से सम्पन्न सामर्थ्य- शक्ति अर्जित करें ॥१३॥

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