ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १८७

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १८७ ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणिः देवता- अन्नम देवाः । छंद अनुषटुब्बार्भा उषणिक, ३, ५-७, ११ अनुष्टुप, ११ बृहती, २,४, ८-१० गायत्री पितुं नु स्तोषं महो धर्माणं तविषीम् । यस्य त्रितो व्योजसा वृत्रं विपर्वमर्दयत् ॥१॥ जिसके ओर से तीनों लोकों में यशस्वी इन्द्रदेव ने वृत्रनामक असुर के अंग-प्रत्यंगों को काट-काट कर मारा, उन महान् शक्तिशाली, सबके पोषक तथा धारणकर्ता अन्नदेव की हम स्तुति करते हैं॥१॥ स्वादो पितो मधो पितो वयं त्वा ववृमहे । अस्माकमविता भव ॥२॥ हे स्वादिष्ट, पालक तथा माधुर्ययुक्त रसों के पोषक अन्नदेव ! हम आपमें विद्यमान पोषक तत्त्व को धारण करते हैं, आप हमारे संरक्षक हैं॥२॥ उप नः पितवा चर शिवः शिवाभिरूतिभिः । मयोभुरद्विषेण्यः सखा सुशेवो अद्वयाः ॥३॥ हे पालनकर्ता अन्नदेव ! आप कल्याणकारी सुखप्रद, विद्वेषरहित, मित्र के समान हितैषी, भली भाँति सेवनीय और ईष्या-द्वेष से रहित हैं। आप मंगलकारी संरक्षणयुक्त पोषक तत्वों से युक्त होकर हमारे समीप आएँ ॥३॥ तव त्ये पितो रसा रजांस्यनु विष्ठिताः । दिवि वाता इव श्रिताः ॥४॥ हे परिपोषक अन्नदेव ! जिस प्रकार अन्तरिक्ष में वायु प्रतिष्ठित है, उसी प्रकार आपके वे विभिन्न रस सम्पूर्ण लोकों में विद्यमान हैं॥४॥ तव त्ये पितो ददतस्तव स्वादिष्ठ ते पितो । प्र स्वाद्मानो रसानां तुविग्रीवा इवेरते ॥५॥ हे परिपोषक अन्नदेव ! आपके उपासक कृषक आप से दानवृत्ति को ग्रहण करते हैं, हे माधुर्ययुक्त पोषक देव! आपके साधक आपकी पोषणशक्ति को बढ़ाते हैं। आपके रसों का सेवन करने वाले पुष्टग्रीवायुक्त होकर सर्वत्र विचरण करते हैं॥५॥ त्वे पितो महानां देवानां मनो हितम् । अकारि चारु केतुना तवाहिमवसावधीत् ॥६॥ हे सर्वपालक अन्नदेव ! महान् देवों का मन भी आपके लिए लालायित रहता हैं। इन्द्रदेव ने आपकी श्रेष्ठ पोषक शक्ति एवं संरक्षक शक्ति से ही अहि असुर का वध करके महान् कार्य किया ॥६॥ यददो पितो अजगन्विवस्व पर्वतानाम् । अत्रा चिन्नो मधो पितोऽरं भक्षाय गम्याः ॥७॥ हे सर्व पालक अन्नदेव ! जब जलों से परिपूर्ण बादलों का शुभ जल आपके समीप पहुँचता है, तब आप हमारे पोषण के लिए इस विश्व में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हों ॥७॥ यदपामोषधीनां परिंशमारिशामहे । वातापे पीव इद्भव ॥८॥ जब जलों और ओषधि तत्त्वों से युक्त सभी प्रकार से कल्याणकारी अन्न को हम ग्रहण करते हैं, तब हे शरीर ! आप इस पोषक अन्न से स्वस्थ एवं हृष्ट-पुष्ट हों ॥८॥ यत्ते सोम गवाशिरो यवाशिरो भजामहे । वातापे पीव इद्भव ॥९॥ हे सुखस्वरूप अन्नदेव ! जब अन्न में जौ, गेहूँ आदि पदार्थों के साथ गाय के दूध, घृतादि पौष्टिक पदार्थों का सेवन किया जाता है, तब हमारा शारीरिक स्वास्थ्य सुदृढ़ हो ॥९॥ करम्भ ओषधे भव पीवो वृक्क उदारथिः । वातापे पीव इद्भव ॥१०॥ हे परिपक्व अन्नदेव ! पौष्टिक, आरोग्यप्रद तथा इन्द्रिय सामर्थ्य को बढ़ाने वाले हैं। पके हुए अत्रों के सेवन से हमारा शारीरिक स्वास्थ्य बढ़े ॥१०॥ तं त्वा वयं पितो वचोभिर्गावो न हव्या सुषूदिम । देवेभ्यस्त्वा सधमादमस्मभ्यं त्वा सधमादम् ॥११॥ हे पालनकर्ता अन्नदेव ! आप देव शक्तियों और मनुष्यों दोनों को ही समानरूप से आनन्दित करने वाले हैं। प्रशंसित स्तोत्रों से आपको उसी प्रकार अभिषुत करते हैं, जैसे गोपाल गौओं से दूध दुहते हैं ॥११॥

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