ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ७१

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ७१ ऋषि-पाराशर शाक्त्यः देवता - अग्नि । छंद - त्रिष्टुप उप प्र जिन्वन्नुशतीरुशन्तं पतिं न नित्यं जनयः सनीळाः । स्वसारः श्यावीमरुषीमजुप्रञ्चित्रमुच्छन्तीमुषसं न गावः ॥१॥ पतिव्रता स्त्रियाँ जिस प्रकार अपने पति को प्राप्तकर उन्हें प्रसन्न करती हैं, वैसे ही हमारी अँगुलियाँ मिलकर अग्निदेव को सम्यक् प्रकार से प्रसन्न करती हैं। श्यामवर्ण, पुनः पीतवर्ण और अरुणिम वर्ण वाली विलक्षण उषा की किरणें जैसे सेवा करती हैं, वैसे ही हमारी अँगुलियाँ अग्निदेव की सेवा करती हैं॥१॥ वीळु चिदृव्हा पितरो न उक्थैरद्रि रुजन्नङ्गिरसो रवेण । चक्रुर्दिवो बृहतो गातुमस्मे अहः स्वर्विविदुः केतुमुस्राः ॥२॥ हमारे पितर अंगिरा ने मंत्रों द्वारा विकराल और सुदृढ़ पर्वताकार अज्ञानान्धकार रूपी असुर को शब्द मात्र से नष्ट किया; तब आकाश मार्ग में ज्योति रूप सूर्य और ध्वज रूप प्रकाश किरणों से सम्पन्न दिवस को हुमने प्राप्त किया ॥२॥ दधन्नृतं धनयन्नस्य धीतिमादिदर्यो दिधिष्वो विभृत्राः । अतृष्यन्तीरपसो यन्त्यच्छा देवाज्ञ्जन्म प्रयसा वर्धयन्तीः ॥३॥ शाश्वत सत्यरूप यज्ञ को धारण करने वाले अंगिरा ने उसकी तेजस्विता को धन के सदृश धारण किया। अनन्तर धन को, तेज और पुष्टि को धारण करने की इच्छुक प्रज्ञाओं ने हवियों से देवों को पुष्ट करते हुए अग्निदेव को प्राप्त किया ॥३॥ मथीद्यदीं विभृतो मातरिश्वा गृहेगृहे श्येतो जेन्यो भूत् । आदीं राज्ञे न सहीयसे सचा सन्ना दूत्यं भृगवाणो विवाय ॥४॥ वायु के संयोग से उत्पन्न होने वाले अग्निदेव शुभ ज्योति के रूप में प्रत्येक गृह अर्थात् शरीर में प्रतिष्ठित हुए। पुन: भृगुवंशीय ऋषि ने देवों तक हवि पहुँचाने वाले दूत (देवत्व प्राप्ति के माध्यम) के रूप में माना, जैसे कोई राजा, मित्र राजा के दूत द्वारा सम्पर्क करता है॥४॥ महे यत्पित्र ईं रसं दिवे करव त्सरत्पृशन्यश्चिकित्वान् । सृजदस्ता धृषता दिद्युमस्मै स्वायां देवो दुहितरि त्विषिं धात् ॥५॥ महान् और पोषण प्रदान करने वाले देवों के निमित्त कौन सज्जन और कौन ज्ञानी हव्यरूप सोमरसों को अग्नि में देने से पलायन कर सकता है ? ये अस्त्र चलाने में कुशल अग्निदेव अपने धनुष से उन पर बाणों का प्रहार करते हैं और सूर्य रूप में अपनी पुत्री उषा को तेज धारण कराते हैं॥५॥ स्व आ यस्तुभ्यं दम आ विभाति नमो वा दाशादुशतो अनु यून् । वर्धा अग्ने वयो अस्य द्विबर्हा यासद्राया सरथं यं जुनासि ॥६॥ हे अग्निदेव ! जो याजक आपको घर में प्रदीप्त करता है और प्रतिदिन आपकी कामना करते हुए स्तुति युक्त हवि देता है, उसे आप दुगुने बल और आयु से बढ़ायें, जो आपकी प्रेरणा से रथ सहित युद्ध में जाता है। (जीवन-संग्राम में संघर्ष करता है), वह धन से युक्त होता हैं॥६॥ अग्निं विश्वा अभि पृक्षः सचन्ते समुद्रं न स्रवतः सप्त यह्वीः । न जामिभिर्वि चिकिते वयो नो विदा देवेषु प्रमतिं चिकित्वान् ॥७॥ जैसे सातों महान् नदियाँ समुद्र को प्राप्त होती हैं, वैसे ही हमारी सम्पूर्ण हविष्यान्न अग्निदेव को प्राप्त होता है। अन्य महान् देवों के लिए यह हविष्यान्न पर्याप्त हैं या नहीं-हम यह नहीं जानते। अतः आप अन्नादि वैभव हमें प्रदान करें ॥७॥ आ यदिषे नृपतिं तेज आनट् छुचि रेतो निषिक्तं द्यौरभीके । अग्निः शर्धमनवद्यं युवानं स्वाध्यं जनयत्सूदयच्च ॥८॥ (अग्नि का) जो शुद्ध और प्रदीप्त तेज अन्नादि (के पाचन) के लिए यजमान आदि में व्याप्त है, उस तेज से युक्त रेतस् को (प्रकृति रूपी) उत्पत्ति स्थल में स्थापित करके अग्निदेव अभीष्ट पोषण रूप सन्तानों को जन्म दें और उस बलवान् अनिन्द्य तरुण शोभन कर्मा (सन्तान) को यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मों में प्रेरित करें ॥८॥ मनो न योऽध्वनः सद्य एत्येकः सत्रा सूरो वस्व ईशे । राजाना मित्रावरुणा सुपाणी गोषु प्रियममृतं रक्षमाणा ॥९॥ मन के सदृश गति वाले सूर्यरूप मेधावी अग्निदेव एक सुनिश्चित मार्ग से गमन करते हैं और विविध धनों पर आधिपत्य रखते हैं। सुन्दर भुजाओं वाले मित्रावरुण गौओं में उत्तम और अमृत तुल्य दूध की रक्षा करते हैं ॥९॥ मा नो अग्ने सख्या पित्र्याणि प्र मर्षिष्ठा अभि विदुष्कविः सन् । नभो न रूपं जरिमा मिनाति पुरा तस्या अभिशस्तेरधीहि ॥१०॥ हे अग्निदेव ! मेधावी और सर्वज्ञ रूप आप हमारी पितरों के समय से चली आई मित्रता को विस्मरण न करें। जैसे सूर्य रश्मियाँ अन्तरिक्ष को ढूंक देती हैं, वैसे ही बुढ़ापा हमें नष्ट करना चाहता हैं, अतः है अग्निदेव ! वह बुढ़ापा हमारा विनाश करने के पूर्व ही समाप्त हो जाये (हमें अमृतत्व की प्राप्ति हो) ॥१०॥

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