ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १५ ऋषि - मेधातिथिः काण्व देवता- १-इन्द्र, २-मरुत, ३ त्वष्टा, ४ अग्नि, ५ इन्द्र, ६ मित्र वरुण, ७- १० द्रविणोदा, ११ आश्विनौ, १२ अग्नि। छंद- गायत्री इन्द्र सोमं पिब ऋतुना त्वा विशन्त्विन्दवः । मत्सरासस्तदोकसः ॥१॥ हे इन्द्रदेव ! ऋतुओं के अनुकूल सोमरस का पान करें, ये सोमरस आपके शरीर में प्रविष्ट हों; क्योंकि आपकी तृप्ति का आश्रयभूत साधन यहीं सोम है ॥१॥ मरुतः पिबत ऋतुना पोत्राद्यज्ञं पुनीतन । यूयं हि ष्ठा सुदानवः ॥२॥ दानियों में श्रेष्ठ हे मरुतो ! आप पोता नामक अंत्वज्ञ के पात्र से ऋतु के अनुकूल सोमरस का पान करें एवं हमारे इस यज्ञ को पवित्रता प्रदान करें ॥२॥ अभि यज्ञं गृणीहि नो ग्नावो नेष्टः पिब ऋतुना । त्वं हि रत्नधा असि ॥३॥ हे त्वष्टादेव ! आप पत्नी सहित हमारे यज्ञ की प्रशंसा करें, ऋतु के अनुकूल सोमरस का पान करें। आप निश्चय ही रत्नों को देने वाले है॥३॥ अग्ने देवाँ इहा वह सादया योनिषु त्रिषु । परि भूष पिब ऋतुना ॥४॥ हे अग्निदेव ! आप देवों को यहाँ बुलाकर उन्हें यज्ञ के तीनों सवनों (प्रातः, माध्यन्दिन एवं सायं) में आसीन करें। उन्हें विभूषित करके ऋतु के अनुकूल सोम का पान करें ॥४॥ ब्राह्मणादिन्द्र राधसः पिबा सोममृतँरनु । तवेद्धि सख्यमस्तृतम् ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! आप ब्रह्मा को जानने वाले साधक के पात्र से सोमरस का पान करें, क्योंकि उनके साथ आपकी अविच्छिन्न (अटूट) मित्रता है॥५॥ युवं दक्षं धृतव्रत मित्रावरुण दूळभम् । ऋतुना यज्ञमाशाथे ॥६॥ हे अटल व्रत वाले मित्रावरुण! आप दोनों ऋतु के अनुसार बल प्रदान करने वाले हैं। आप कठिनाई से सिद्ध होने वाले इस यज्ञ को सम्पन्न करते हैं॥६॥ द्रविणोदा द्रविणसो ग्रावहस्तासो अध्वरे । यज्ञेषु देवमीळते ॥७॥ धन की कामना वाले याजक सोमरस तैयार करने के निमित्त हाथ में पत्थर धारण करके पवित्र यज्ञ में धनप्रदायक अग्निदेव की स्तुति करते हैं॥७॥ द्रविणोदा ददातु नो वसूनि यानि श्रृण्विरे । देवेषु ता वनामहे ॥८॥ हे धनप्रदायक अग्निदेव ! हमें वे सभी धन प्रदान करें, जिनके विषय में हमने श्रवण किया है। वे समस्त धन हम देवगणों को ही अर्पित करते हैं॥८॥ द्रविणोदाः पिपीषति जुहोत प्र च तिष्ठत । नेष्ट्रादृतुभिरिष्यत ॥९॥ धनप्रदायक अग्निदेव नेष्टापात्र (नेधिष्ण्या स्थान-यज्ञ कुण्ड) से ऋतु के अनुसार सोमरस पीने की इच्छा करते हैं। अतः हे याजकगण ! आप वहाँ जाकर यज्ञ करें और पुनः अपने निवास स्थान के लिये प्रस्थान करें ॥९॥ यत्त्वा तुरीयमृतुभिर्द्रविणोदो यजामहे । अध स्मा नो ददिर्भव ॥१०॥ हे धनप्रदायक अग्निदेव ! ऋतुओं के अनुगत होकर हम आपके निमित्त सोम के चौथे भाग को अर्पित करते हैं, इसलिए आप हमारे लिये धन प्रदान करने वाले हों ॥१०॥ अश्विना पिबतं मधु दीद्यग्नी शुचिव्रता । ऋतुना यज्ञवाहसा ॥११॥ दीप्तिमान्, शुद्ध कर्म करने वाले, ऋतु के अनुसार यज्ञवाहक हे अश्विनीकुमारो ! आप इस मधुर सोमरस का पान करें ॥११॥ गार्हपत्येन सन्त्य ऋतुना यज्ञनीरसि । देवान्देवयते यज ॥१२॥ हे इष्टप्रद अग्निदेव ! आप गार्हपत्य के नियमन में ऋतुओं के अनुगत यज्ञ का निर्वाह करने वाले हैं, अतः देवत्व प्राप्ति की कामना वाले याजकों के निमित्त देवों का यजन करें ॥ १२ ॥

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