ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ११६

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ११६ ऋषि - कक्षीवान दैघतमस औशिजः देवता - आश्विनौ । छंद - त्रिष्टुप नासत्याभ्यां बर्हिरिव प्र वृज्जे स्तोमाँ इयर्म्यभ्रियेव वातः । यावर्भगाय विमदाय जायां सेनाजुवा न्यूहतू रथेन ॥१॥ सेना के साथ चलने वाले रथ से दोनों अश्विनीकुमार नौजवान विमद की धर्मपत्नी को उसके घर छोड़ आये थे। सत्यवान् अश्विनीकुमारों के निमित्त हम स्तोत्र वाणियों को वैसे ही प्रेरित करते हैं, जैसे वायु मेघमण्डल में स्थित जलों को वृष्टि हेतु प्रेरित करते हैं तथा यज्ञकर्ता कुश के आसनों को फैलाते हैं॥१॥ वीळुपत्मभिराशुहेमभिर्वा देवानां वा जूतिभिः शाशदाना । तद्रासभो नासत्या सहस्रमाजा यमस्य प्रधने जिगाय ॥२॥ हे सत्ययुक्त अश्विनीकुमारो! आप दाना अतिवेग से आकाश में उड़ने वाले, तीव्र गति से जाने वाले, देवताओं को गति से चलने वाले याना से भी अति तीव्र गति से गमनशील हैं। आपके यानों से संयुक्त हुए रासभ ने यम को आनन्दत करने वाले युद्ध में हजारों की संख्या वाले शत्रु सैनिको पर विजय प्राप्त की थीं ॥२॥ तुग्रो ह भुज्युमश्विनोदमेघे रयिं न कश्चिन्ममृवाँ अवाहाः । तमूहथुर्नीभिरात्मन्वतीभिरन्तरिक्षप्रुद्भिरपोदकाभिः ॥३॥ जैसे मरणासन्न मनुष्य अपने धन की इच्छा त्याग देते हैं, उसी प्रकार अपने पुत्र की आकांक्षा त्यागकर तुग्र नरेश ने अपने भुज्यु नामक पुत्र को शत्रुपक्ष पर आक्रमण करने हेतु अति गम्भीर महासागर में प्रवेश की आज्ञा दी। उसे आप दोनों अपनी सामथ्र्यों द्वारा अन्तरिक्ष यानों तथा पनडुब्बियों और नौकाओं के सहयोग से निकाल कर उसके पिता के समीप ले गये ॥३॥ तिस्रः क्षपस्त्रिरहातिव्रजद्भिर्नासत्या भुज्युमूहथुः पतंगैः । समुद्रस्य धन्वन्नार्द्रस्य पारे त्रिभी रथैः शतपद्भिः षळश्चैः ॥४॥ हे सत्य से युक्त अश्विनीकुमारो ! अति गहन सागर से दूर जहाँ मरुस्थल हैं, वहाँ से तीन दिवस और तीन रात्रि निरन्तर चलते हुए, अतिवेग से गमनशील सौं चक्रों और छः अश्वों (अश्वशक्ति) सम्पन्न यन्त्रों वाले, पक्षी के समान आकाश मार्ग से जाते हुए तीन यानों द्वारा आप दोनों ने भुज्यु को उसके निवास पर पहुँचाया ॥४॥ अनारम्भणे तदवीरयेथामनास्थाने अग्रभणे समुद्रे । यदश्विना ऊहथुर्भुज्युमस्तं शतारित्रां नावमातस्थिवांसम् ॥५॥ हे अश्विनीकुमारो ! विश्राम से रहित, आश्रय रहित जहाँ (बचाव के लिए) हाथ में पकड़ने के लिए कोई भी पदार्थ नहीं, ऐसे अतिगहन महासमुद्र में से आप दोनों ने सौ पतवारों से चलने वालीं नाव पर चढ़ाकर भुज्यु को उसके निवास स्थल पर पहुँचाया था। यह दुस्साहसिक कार्य निश्चित ही अति वीरता से युक्त था॥५॥ यमश्विना ददथुः श्वेतमश्वमघाश्वाय शश्वदित्स्वस्ति । तद्वां दात्रं महि कीर्तेन्यं भूत्यैद्वो वाजी सदमिद्धव्यो अर्यः ॥६॥ है अश्विनीकुमारो ! आप दोनों ने अघाश्व भूपति (नरेश) के लिए जिस सफेद अश्व को प्रदान किया, वह सदैव मंगलकारी है। ऐसा दान अति सराहनीय हुआ। शत्रुदल पर आक्रमणकारी "पेटु" के लिए दिया हुआ निपुण घोड़ा भी सदैव प्रशंसनीय है॥६॥ युवं नरा स्तुवते पज्रियाय कक्षीवते अरदतं पुरंधिम् । कारोतराच्छफादश्वस्य वृष्णः शतं कुम्भाँ असिञ्चतं सुरायाः ॥७॥ हे नेतृत्व क्षमता सम्पन्न अश्विनीकुमारो ! आप दोनों ने ऊँचे कुल में उत्पन्न स्तोता कक्षीवान् को नगर के संरक्षणार्थ श्रेष्ठ परामर्श दिया । बलशाली अश्व के खुर के समान आकृति वाले विशेष पात्र से स्वच्छ जल के सौ घड़े आप दोनों ने पूर्ण करके स्थापित किये ॥७॥ हिमेनाग्निं घ्रंसमवारयेथां पितुमतीमूर्जमस्मा अधत्तम् । ऋबीसे अत्रिमश्विनावनीतमुन्निन्यथुः सर्वगणं स्वस्ति ॥८॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों ने प्रचण्ड अग्निदेव को बर्फयुक्त शीतल जल से शान्त किया। असुरों द्वारा स्वराज्य के लिए संघर्षरत अन्धेरे कारावास में रखे गये अत्रि ऋषि को सहयोगियों के साथ कारावास तोड़कर आपने मुक्त किया तथा दुर्बल बने ऋषि अत्रि को पौष्टिक और शक्तिवर्धक आहार देकर हृष्ट-पुष्ट किया ॥८॥ परावतं नासत्यानुदेथामुच्चाबुध्धं चक्रथुर्जिह्मबारम् । क्षरन्नापो न पायनाय राये सहस्राय तृष्यते गोतमस्य ॥९॥ सत्य के प्रति स्थिर हे अश्विनीकुमारो ! आप कुएँ के पानी को एक स्थान से दूसरे स्थान तक अति दूर ले गये। इस हेतु आपने कुएँ के आधार स्थल को ऊँचा किया और (नहर आदि) टेढ़े मार्ग से जल प्रवाहित किया। उस जल को गौतम ऋषि के आश्रम तक ले जाकर आश्रम वासियों को पेय जल उपलब्ध कराया। आश्रम वासियों को सिंचाई के जल से सहस्रों तरह की धान्यादि सम्पदा भी प्राप्त हुई ॥९॥ जुजुरुषो नासत्योत वत्रिं प्रामुञ्चतं द्रापिमिव च्यवानात् । प्रातिरतं जहितस्यायुर्दस्रादित्पतिमकृणुतं कनीनाम् ॥१०॥ शत्रुओं का संहार करने वाले सत्यनिष्ठ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों ने शरीर से जीर्ण च्यवन उन्नषि को कवच उतारने के समान ही बुढ़ापे रूपी जीर्ण काया को उतारकर तरुण बना दिया। अतिवृद्ध होने से अशक्त च्यवन को दीर्घायुष्य प्रदान किया। तत्पश्चात् उन्हें आप दोनों ने सुन्दर स्त्रियों का पति बना दिया ॥१०॥ तद्वां नरा शंस्यं राध्यं चाभिष्टिमन्नासत्या वरूथम् । यद्विद्वांसा निधिमिवापगूव्हमुद्दर्शतादूपथुर्वन्दनाय ॥११॥ सत्य से युक्त नेतृत्व प्रदान करने वाले हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों के श्रेष्ठ सराहनीय कार्य स्तुति और आराधना के योग्य हैं। हे ज्ञानवान् अश्विनीकुमारो ! जो वन्दन ऋषि गहरे गर्त में पड़े थे, उन्हें आप दोनों ने गुप्त स्थल से धन को उठाने के समान ही गर्त से निकाला ॥११॥ तद्वां नरा सनये दंस उग्रमाविष्कृणोमि तन्यतुर्न वृष्टिम् । दध्यङ्ह यन्मध्वाथर्वणो वामश्वस्य शीर्णा प्र यदीमुवाच ॥१२॥ हे अश्विनीकुमारो ! अथर्वकुल में जन्म लेने वाले दधीचि ऋषि ने अश्व मुख से आपको मधु विद्या का अभ्यास कराया। आपने इस प्रचण्ड पुरुषार्थ को सम्पन्न किया। जन सेवा की कामना से वर्षा के पूर्व घोषणा करने वाले मेघों की भाँति हम आपके इन कार्यों का प्रचार करते हैं॥ १२ ॥ अजोहवीन्नासत्या करा वां महे यामन्पुरुभुजा पुरंधिः । श्रुतं तच्छासुरिव वध्रिमत्या हिरण्यहस्तमश्विनावदत्तम् ॥१३॥ हे सत्य से युक्त अश्विनीकुमारो ! आप दोनों असंख्यों के पालक, पोषक और कर्तव्यपरायण गुणों से युक्त हैं। लम्बी यात्रा के समय आप दोनों का कुशाग्र मति वाली स्त्री ने आवाहन किया था, उस स्त्री की प्रार्थना को राजा की आज्ञा जैसा मानकर आपने उसे हिरण्यहस्त नामक श्रेष्ठ पुत्र प्रदान किया ॥१३॥ आस्नो वृकस्य वर्तिकामभीके युवं नरा नासत्यामुमुक्तम् । उतो कविं पुरुभुजा युवं ह कृपमाणमकृणुतं विचक्षे ॥१४॥ हे सत्य से युक्त अश्विनीकुमारो ! आप दोनों ने उपयुक्त वेला में भेड़ियों के मुख से चिड़िया को मुक्त किया। हे भोजन द्वारा असंख्यों के पालक ! दृढ़ निश्चय के सहित प्रार्थना करने पर आप दोनों ने कृपा पूर्वक एक नेत्रहीन कवि को श्रेष्ठ दर्शन हेतु दृष्टि प्रदान की ॥१४॥ चरित्रं हि वेरिवाच्छेदि पर्णमाजा खेलस्य परितक्म्यायाम् । सद्यो जङ्घामायसीं विश्पलायै धने हिते सर्तवे प्रत्यधत्तम् ॥१५॥ जिस प्रकार पक्षी को पंख गिर जाता है वैसे ही खेल राजा से सम्बन्धित विश्पला स्त्री का पैर युद्ध में कट गया था। ऐसे रात्रिकाल में ही उस विश्पली को युद्ध प्रारम्भ होने के पश्चात् आक्रमण करने के लिए लोहे की जाँघ आप दोनों ने लगाकर तैयार किया ॥१५॥ शतं मेषान्वृक्ये चक्षदानमृज्राश्वं तं पितान्धं चकार । तस्मा अक्षी नासत्या विचक्ष आधत्तं दस्रा भिषजावनर्वन् ॥१६॥ ऋज्राश्व ने अपने पिता को सौं भेड़ों को भेड़िये के भक्षण हेतु छोड़ने का अपराध किया। दण्डस्वरूप उसे उसके पिता ने दृष्टिविहीन कर दिया। हे असत्य रहित, शत्रु संहारक वैद्यो ! (अश्विनीकुमारो !) उन नेत्रहीन (ऋज्राश्व) को कभी खराब न होने वाली आँखें देकर आप दोनों ने उसे दृष्टिहीन दोष से मुक्त किया ॥१६॥ आ वां रथं दुहिता सूर्यस्य कार्मेवातिष्ठदर्वता जयन्ती । विश्वे देवा अन्वमन्यन्त हृद्भिः समु श्रिया नासत्या सचेथे ॥१७॥ हे सत्य से युक्त अश्विनीकुमारो ! सूर्य की पुत्री उषा घुड़सवारी प्रतिस्पर्धा (प्रतियोगिता) में विजयी होती हुई आपके रथ पर आकर विराजमान हो गई। सभी देवताओं ने उसका हार्दिक अभिनन्दन किया। बाद में आप दोनों भी सूर्य की पुत्री उषा से विशेष शोभायमान हुए ॥१७॥ यदयातं दिवोदासाय वर्तिर्भरद्वाजायाश्विना हयन्ता । रेवदुवाह सचनो रथो वां वृषभश्च शिंशुमारश्च युक्ता ॥१८॥ हे आवाहन योग्य अश्विनीकुमारो! जब आप दोनों अन्नदाता दिवोदास के घर पर गये, तब उपभोग्य धन से परिपूर्ण रथ आपको ले गये थे। उस समय आपके रथ को शक्तिशाली और शत्रु विध्वंसक अश्व खींच रहे थे। यह आपकी ही विलक्षण सामर्थ्य हैं॥१८॥ रयिं सुक्षत्रं स्वपत्यमायुः सुवीर्यं नासत्या वहन्ता । आ जह्वावीं समनसोप वाजैस्त्रिरह्नो भागं दधतीमयातम् ॥१९॥ हे असत्य रहित अश्विनीकुमारो ! आप दोनों हविष्यान्नों द्वारा तीनों कालों में यजन करने वाली जहू की प्रजा को श्रेष्ठ क्षात्र बल, सुसंतति, उत्तम वैभव सम्पदा तथा श्रेष्ठ शौर्यमय जीवन स्वयं उनके समीप जाकर प्रदान करते हैं॥१९॥ परिविष्टं जाहुषं विश्वतः सीं सुगेभिर्नक्तमूहथू रजोभिः । विभिन्दुना नासत्या रथेन वि पर्वताँ अजरयू अयातम् ॥२०॥ अविनाशी, सत्य से युक्त हे अश्विनीकुमारो ! जाहुष राजा के चारों ओर से शत्रुसेना द्वारा घिरे होने पर आप दोनों ने रात्रिकाल में उस राजा को उस घेरे से उठाया और गुप्त लेकिन आसान मार्ग से उसे दूर सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। विशेष ढंग से शत्रु के घेरे को तोड़ने में सक्षम आप दोनों रथ पर बैठकर पर्वतों को लाँघकर अति दूर चले गये ॥२०॥ एकस्या वस्तोरावतं रणाय वशमश्विना सनये सहस्रा । निरहतं दुच्छुना इन्द्रवन्ता पृथुश्रवसो वृषणावरातीः ॥२१॥ हे सामर्थ्यवान् अश्विनीकुमारो ! आप दोनों ने वश नामक राजा को सहस्रों प्रकार के असंख्य धनों की प्राप्ति के लिए एक ही दिन में पूर्ण संरक्षणों से युक्त कर दिया। पृथुश्रवा के कष्टकर रिपुओं को इन्द्रदेव के सहयोग से आप दोनों ने पूर्णरूप से नष्ट कर दिया ॥२१॥ शरस्य चिदार्चत्कस्यावतादा नीचादुच्चा चक्रथुः पातवे वाः । शयवे चिन्नासत्या शचीभिर्जसुरये स्तर्यं पिप्यथुर्गाम् ॥२२॥ हे सत्यपालक अश्विनीकुमारो ! प्यास से पीड़ित ऋचत्क के पुत्र शर के पीने हेतु आप दोनों जलस्तर को गहरे कुएँ से ऊपर ले आये । आप दोनों ने अपनी सामथ्र्यों से अत्यन्त कृषकाय शयु ऋषि के निमित्त वन्ध्या (प्रसूत न होने वाली) गाय को दुधारू बना दिया ॥२२॥ अवस्यते स्तुवते कृष्णियाय ऋजूयते नासत्या शचीभिः । पशुं न नष्टमिव दर्शनाय विष्णाप्वं ददथुर्विश्वकाय ॥२३॥ हे सत्य से युक्त अश्विनीकुमारो! आप दोनों की प्रार्थना करने वाले और अपनी रक्षा के इच्छुक सुगम मार्ग से जाने वाले, कृष्णपुत्र विश्वक के विनष्ट हुए पुत्र विष्णाष्व को, खोये हुए पशु के समान (खोजकर) आप दोनों ने अपनी सामर्थ्य शक्तियों से, दर्शनार्थ उपस्थित कर दिया ॥२३॥ दश रात्रीरशिवेना नव द्यूनवनद्धं श्नथितमप्स्वन्तः । विप्प्रुतं रेभमुदनि प्रवृक्तमुन्निन्यथुः सोममिव सुवेण ॥२४॥ दुष्ट राक्षसों द्वारा पाश (रज्जु) से बाँधकर जलों के बीच दस रातों और नौ दिन तक फेंके हुए, भीगे, संत्रस्त और पीड़ित रेभ नामक ऋषि को आप दोनों उसी प्रकार बाहर निकालकर लाये, जिस प्रकार सुवा से सोमरस को ऊपर उठाते हैं॥२४॥ प्र वां दंसांस्यश्विनाववोचमस्य पतिः स्यां सुगवः सुवीरः । उत पश्यन्नश्नुवन्दीर्घमायुरस्तमिवेज्जरिमाणं जगम्याम् ॥२५॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों के कर्मों का हमने इस प्रकार से श्रेष्ठ वर्णन किया है, जिससे हम उत्तम गायों और शूरवीर पुत्रों से सम्पन्न इस राष्ट्र के शासक बन सकें। दीर्घ जीवन का लाभ लेकर दर्शनादि सामथ्र्यौं से युक्त रहकर अपने घर में प्रविष्ट होने की तरह ही वृद्धावस्था में प्रवेश करें ॥२५॥

Recommendations