ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ६५

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ६५ ऋषिः रातहव्य आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ । छंद - अनुष्टुप, ६ पंक्ति यश्चिकेत स सुक्रतुर्देवत्रा स ब्रवीतु नः । वरुणो यस्य दर्शतो मित्रो वा वनते गिरः ॥१॥ जो स्तोता देवों के मध्य में इन मित्र और वरुणदेवों की स्तुति जानता है और उत्तम कर्म करते हुए स्तुतियाँ करता है, ये देवगण उनकी स्तुतियाँ ग्रहण करते हैं। वे स्तोतागण हमें उपदेश करें ॥१॥ ता हि श्रेष्ठवर्चसा राजाना दीर्घश्रुत्तमा । ता सत्पती ऋतावृध ऋतावाना जनेजने ॥२॥ ये मित्र और वरुणदेव प्रभूत तेज-सम्पन्न, अधिष्ठातारूप और दूरस्थ प्रदेशों से भी आवाहन को सुनने वाले हैं। ये सत्यशील यजमानों के अधिपति, यज्ञ को बढ़ाने वाले और प्रत्येक मनुष्य में सत्य के स्थापनकर्ता हैं ॥२॥ ता वामियानोऽवसे पूर्वा उप ब्रुवे सचा । स्वश्वासः सु चेतुना वाजाँ अभि प्र दावने ॥३॥ पुरातन, उत्तम ज्ञान सम्पन्न हे मित्रावरुणदेवो ! हम आपके सम्मुख उपस्थित होकर अपनी रक्षा के लिए आपकी स्तुतियाँ करते हैं। उत्तम अश्वों के स्वामी हम अन्नों के दान के लिए आपकी प्रकृष्ट स्तुति करते हैं ॥३॥ मित्रो अंहोश्चिदादुरु क्षयाय गातुं वनते । मित्रस्य हि प्रतूर्वतः सुमतिरस्ति विधतः ॥४॥ मित्रदेव पापी स्तोता को भी संरक्षण के लिए महान् आश्रय प्राप्ति का उपाय बताते हैं। हिंसक भक्त के लिए भी मित्रदेव की उत्तम बुद्धि रहती है ॥४॥ वयं मित्रस्यावसि स्याम सप्रथस्तमे । अनेहसस्त्वोतयः सत्रा वरुणशेषसः ॥५॥ हम मित्रदेव के अत्यन्त व्यापक संरक्षण में स्थित हों। वरुणदेव के सन्तानरूप हम लोग आप से रक्षित होकर तथा निष्पाप होकर संयुक्तरूप से रहें ॥५॥ युवं मित्रेमं जनं यतथः सं च नयथः । मा मघोनः परि ख्यतं मो अस्माकमृषीणां गोपीथे न उरुष्यतम् ॥६॥ हे मित्रावरुण देवो ! जो मनुष्य आप दोनों का स्तवन करते हैं, उन्हें आप उत्तम मार्ग से ले जाते हैं। हे ऐश्वर्यशालीदेवो ! हम यजमानों का त्याग न करें, ऋषियों की संतानों का त्याग न करें। सोमदेव यज्ञादि कार्य में हमारी रक्षा करें ॥६॥

Recommendations