Shandilyopanishad Chapter 3 Part 2 (शाण्डिल्योपानिषद तृतीय अध्याय–द्वितीय खण्ड)

तृतीयोऽध्यायः-द्वितीयः खण्डः तृतीय अध्याय–द्वितीय खण्ड अथ हैनमथर्वाणं शाण्डिल्यः पप्रच्छ भगवन्सन्मानं चिदानन्दैकरसं कस्मादुच्यते परं ब्रह्मेति। स होवाचाथर्वा यस्माच्च बृहति बृहयति च सर्वं तस्मादुच्यते परब्रह्मेति ॥१-२॥ इसके पश्चात् महर्षि शाण्डिल्य ने अथर्वा मुनि से पुनः प्रश्न किया- "हे भगवन् ! मात्र सत्य स्वरूप, चैतन्य युक्त एवं आनन्दस्वरूप एकरस सम्पन्न यह परब्रह्म क्यों कहा जाता है ? तब अथर्वा मुनि ने उत्तर दिया- "हे शाण्डिल्य! वह ब्रह्म स्वयं वृद्धि को प्राप्त होता है तथा अन्य दूसरों को वृद्धि प्रदान करता है, अतः इस कारण से वह अविनाशी शाश्वत ब्रह्म कहलाता है ॥१-२॥ अथ कस्मादुच्यते आत्मेति। यस्मात्सर्वमानोति सर्वमादत्ते सर्वमत्ति च तस्मादुच्यते आत्मेति ॥३-४॥ इसके अनन्तर 'वह आत्मा क्यों कहा जाता है?' ऐसा पूछने पर अथर्वा मुनि ने कहा- वह ब्रह्म सर्वत्र सभी में विद्यमान रहता है, सभी को स्वीकार करता है तथा सभी का भक्षण कर लेता है अर्थात अपने में मिला लेता है, इस कारण वह आत्मा कहलाता है ॥३-४॥ अथ कस्मादुच्यते महेश्वर इति। यस्मान्महत ईशः शब्दध्वन्या चात्मशक्त्या च महत ईशते तस्मादुच्यते महेश्वर इति ॥५-६॥ तब अथर्वा मुनि ने पूछा- वह महेश्वर क्यों कहा जाता है? क्योंकि वह शब्द ध्वनि एवं आत्मशक्ति से बड़ों-बड़ों का नियंत्रण करता है तथा बड़ों-बड़ों का ईश्वर है, इसलिए वह महेश्वर कहलाता है। ॥५-६॥ अथ कस्मादुच्यते दत्तात्रेय इति। वह दत्तात्रेय क्यों कहा जाता है। यस्मात्सुदुश्वरं तपस्तप्यमानायात्रये पुत्रकामायातितरां तुष्टेन भगवता ज्योतिर्मयेनात्मैव दत्तो यस्माच्चानसूयायाम। स्तनयो ऽभवत्तस्मादुच्यते दत्तात्रेय इति ॥ ७-८॥ अथर्वा मुनि ने उत्तर दिया- क्योंकि अत्यन्त उग्र तपश्चर्या करने के उपरान्त अत्रि ऋषि ने पुत्र प्राप्ति की कामना की। तदनन्तर उनके ऊपर अत्यधिक प्रसन्न होते हुए ज्योतिष्मान् भगवान् शिव ने स्वयं को ही उन अत्रि ऋषि को पुत्र रूप में प्रदत्त किया और वे स्वयं अत्रि एवं अनसूया के द्वारा प्रादुर्भूत हुए। इस प्रकार से वह दत्तात्रेय के नाम से प्रसिद्ध हुए ॥ ७-८ ॥ अथ योऽस्य निरुक्तानि वेद स सर्वं वेद। अथ यो ह वै विद्ययैनं परमुपास्ते सोऽहमिति स ब्रह्मविद्भवति ॥ ९-१०॥ इन समस्त अर्थ सहित नामों को जो व्युत्पत्ति सहित समझता है, वह सभी कुछ जानने में समर्थ हो जाता है। इसके अनन्तर जो इस आत्म विद्या के द्वारा इस परमात्म तत्त्व की उपासना करता है, वह "मैं ही परमात्मा हूँ" इस प्रकार के भाव से ब्रह्म का वर्णन करने वाला ब्रह्मवेत्ता बन जाता है॥९-१०॥ अत्रैते धोका भवन्ति। दत्तात्रेयं शिवं शान्तमिन्द्रनीलनिभं प्रभुम् । आत्ममायारतं देवमवधूतं दिगम्बरम् ॥११॥ भस्मोद्धूलितसर्वाङ्ग जटाजूटधरं विभुम् । चतुर्बाहुमुदाराङ्ग प्रफुल्लकमलेक्षणम् ॥ १२॥ ज्ञानयोगनिधिं विश्वगुरुं योगिजनप्रियम्। भक्तानुकम्पिनं सर्वसाक्षिणं सिद्धसेवितम् ॥१३॥ एवं यः सततं ध्यायेद्देवदेवं सनातनम्। स मुक्तः सर्पपापेभ्यो निःश्रेयसमवाप्नुयात् ॥१४॥ इत्यों सत्यमित्युपनिषद् ॥ १५॥ यहाँ पर ये निम्न श्रोक कहे गये हैं- "मंगल स्वरूप वाले, शान्तरूप वाले, इन्द्रनीलमणि के समान श्याम, आत्ममाया के साथ रमण करने वाले, अवधूत, नग्न शरीर वाले, भस्म लगे हुए शरीर वाले, जटाजूट धारण किये हुए, सर्वत्र व्याप्त रहने वाले, चार भुजाओं से युक्त, उदार अंग वाले, प्रफुल्ल कमल के समान नेत्र वाले, ज्ञानयोग के भण्डार, सम्पूर्ण विश्व के गुरु, योगी जनों के प्रिय, अपने भक्तजनों पर दया करने वाले, सबके साक्षी एवं सिद्धजनों द्वारा सेवित प्रभु दत्तात्रेय देव शाश्वत, सनातन पुरुष हैं तथा देवों के भी देव अर्थात् आदिदेव हैं। इस तरह से जो पुरुष निरन्तर सदा ही उन (देवपुरुष) का ध्यान करता रहता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है। इति ॐ सत्यम् अर्थात् यही सत्य है। इस प्रकार से यह उपनिषद् (रहस्यमयी विद्या) पूर्ण हुई ॥११-१५॥" ॥ इति शाण्डिल्योपनिषत्समाप्ता ॥

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