ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ८३

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ८३ ऋषिः भौमोऽत्रिः देवता - पर्जन्यः, । छंद त्रिष्टुप, २-४ जगती, ९ अनुष्टुप सूक्त ८३ अच्छा वद तवसं गीर्भिराभिः स्तुहि पर्जन्यं नमसा विवास । कनिक्रददृषभो जीरदानू रेतो दधात्योषधीषु गर्भम् ॥१॥ हे यजमानो ! उन बलसम्पन्न पर्जन्यदेव के सम्मुख उनकी स्तुति करें । हव्यादिऔर उत्तम वाणियों द्वारा उनका स्तवन करें ये देव जलवर्षक, दानशील एवं गर्जनकारी हैं, जो ओषधिरूप वनस्पतियों में गर्भ स्थापित करते हैं ॥१॥ वि वृक्षान्हन्त्युत हन्ति रक्षसो विश्वं बिभाय भुवनं महावधात् । उतानागा ईषते वृष्ण्यावतो यत्पर्जन्यः स्तनयन्हन्ति दुष्कृतः ॥२॥ ये पर्जन्यदेव (अनुपयुक्त) वृक्षों का विनाश करते हैं। राक्षसों को हनन करते हैं। अपने भयंकर आघातों से सम्पूर्ण लोकों को भयाक्रान्त कर देते हैं। गर्जना करते हुए ये पापियों को विनष्ट करते हैं और जल वृष्टि करके निरपराधियों की रक्षा करते हैं ॥२॥ रथीव कशयाश्वाँ अभिक्षिपन्नाविर्दूतान्कृणुते वर्ष्या अह । दूरात्सिंहस्य स्तनथा उदीरते यत्पर्जन्यः कृणुते वर्षां नभः ॥३॥ जिस प्रकार रथी अपने घोड़ों को चाबुक से उत्तेजित करता है, उसी प्रकार पर्जन्य, गर्जनकारी, शब्दों से मेघों को प्रेरित करते हैं। जब मेघ जलराशिसे पूर्ण होते हैं, तब सिंह के सदृश गर्जना करते हैं, जो दूर तक सुनाई देता है ॥३॥ प्र वाता वान्ति पतयन्ति विद्युत उदोषधीर्जिहते पिन्वते स्वः । इरा विश्वस्मै भुवनाय जायते यत्पर्जन्यः पृथिवीं रेतसावति ॥४॥ जब पर्जन्यदेव जलराशि से युक्त होकर पृथ्वी की ओर अवतीर्ण होते हैं, तब वायु विशेष प्रवाहयुक्त होती है, विद्युत् चमकती है और ओषधिरूप वनस्पतियाँ वृद्धि पाती हैं, आकाश स्रवित होता है तथा यह पृथ्वी सम्पूर्ण जगत् के हितार्थ पुष्ट होती है ॥४॥ यस्य व्रते पृथिवी नन्नमीति यस्य व्रते शफवज्जर्भुरीति । यस्य व्रत ओषधीर्विश्वरूपाः स नः पर्जन्य महि शर्म यच्छ ॥५॥ हे पर्जन्यदेव ! आपके कर्मों के कारण पृथ्वी उत्पादनशील होती है तथा सभी प्राणी पोषण प्राप्त करते हैं। आपके कर्मों से ओषधिरूप वनस्पतियाँ नाना रूप धारण करती हैं। हे देव! आप हमें महान् सुख प्रदान करें ॥५॥ दिवो नो वृष्टिं मरुतो ररीध्वं प्र पिन्वत वृष्णो अश्वस्य धाराः । अर्वाङतेन स्तनयितुनेह्यपो निषिञ्चन्नसुरः पिता नः ॥६॥ हे मरुद्गणो ! आप हमारे निमित्त वृष्टि करें । वर्षणशील मेघ की जलधाराएँ हमें पोषण प्रदान करें। हे पर्जन्यदेव ! आप गर्जनशील मेघों के साथ जल का सिंचन करते हुए हमारी ओर आगमन करें। आप प्राणवर्षक रूप में हमारे पिता स्वरूप पोषणकर्ता हैं ॥६॥ अभि क्रन्द स्तनय गर्भमा धा उदन्वता परि दीया रथेन । दृतिं सु कर्ष विषितं न्यञ्चं समा भवन्तूद्वतो निपादाः ॥७॥ हे पर्जन्यदेव ! गड़गड़ाहट की गर्जना से युक्त होकर ओषधिरूप वनस्पतियों में गर्भ स्थापित करें। उदक धारक रथ से गमन करें। उदकपूर्ण (जलपूर्ण) मेघों के मुख को नीचे करें और इसे खाली करें, ताकि उच्च और निम्न प्रदेश समतल हो सकें ॥७॥ महान्तं कोशमुदचा नि षिञ्च स्यन्दन्तां कुल्या विषिताः पुरस्तात् । घृतेन द्यावापृथिवी व्युन्धि सुप्रपाणं भवत्वघ्याभ्यः ॥८॥ हे पर्जन्यदेव ! अपने जलरूपी महान् कोश को विमुक्त करें और उसे नीचे बहायें, जिससे ये जल से परिपूर्ण नदियाँ अबाधित होकर पूर्व की ओर प्रवाहित हों । आप जल-राशि से द्यावा-पृथिवी को पृरिपूर्ण करें; ताकि हमारी गौओं को उत्तम पेय जल प्राप्त हो ॥८॥ यत्पर्जन्य कनिक्रदत्स्तनयन्हंसि दुष्कृतः । प्रतीदं विश्वं मोदते यत्किं च पृथिव्यामधि ॥९॥ हे पर्जन्यदेव ! गड़गड़ाहट युक्त गर्जना करते हुए जब आप पापियों (मेघ) को विदीर्ण करते हैं, तब सम्पूर्ण जगत् और इसमें अधिष्ठित प्राणी अत्यन्त प्रमुदित हो उठते हैं ॥९॥ अवर्षीर्वर्षमुदु षू गृभायाकर्धन्वान्यत्येतवा उ । अजीजन ओषधीर्भोजनाय कमुत प्रजाभ्योऽविदो मनीषाम् ॥१०॥ हे पर्जन्यदेव ! आपने बहुत वृष्टि की है। अभी वृष्टि को थाम लें । आपने मरुभूमि को भी जल से पूर्ण कर दिया है। आपने सुखकर उपभोग के लिए ओषधिरूप वनस्पतियाँ उत्पन्न की हैं। आपने प्रजाओं द्वारा उत्तम स्तुतियाँ भी प्राप्त की हैं ॥१०॥

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