Yoga Kundalini Upanishad Chapter 3 (योगकुण्डलिनी उपनिषद) तृतीय अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ योगकुण्डलिन्युपनिषत् ॥ योगकुण्डलिनी उपनिषद तृतीयोऽध्यायः तृतीय अध्याय मेलनमनुः । ह्रीं भं सं पं फं सं क्षम्। पद्मज उवाच । अमावास्या च प्रतिपत्पौर्णमासी च शङ्कर । अस्याः का वर्ण्यते संज्ञा एतदाख्याहि तत्त्वतः ॥ १॥ ब्रह्माजी ने कहा! खेचरी का मेलन मंत्र 'ह्रीं भं से मंपं संक्ष' है। हे शंकर जी ! कृपा करके आप हमें यह बतायें कि साधक के लिए अमावस्या, प्रतिपदा एवं पूर्णमासी का क्या अभिप्राय है? ॥१॥ प्रतिपद्दिनतोऽकाले अमावास्या तथैव च । पौर्णमास्यां स्थिरीकुर्यात्स च पन्था हि नान्यथा ॥ २॥ आत्मदर्शन के समय साधक की दृष्टि का वर्णन-) आत्मानुसंधान की साधना के प्रथम चरण में साधक की दृष्टि एवं स्थिति प्रकाशरहित अमावस्या की, द्वितीय चरण में प्रतिपदा (अल्प प्रकाश की) तथा तृतीय चरण में पूर्णिमा (पूर्ण प्रकाश) की होती है। वही कल्याण की स्थिति है ॥२॥ कामेन विषयाकाङ्क्षी विषयात्काममोहितः । द्वावेव सन्त्यजेन्नित्यं निरञ्जनमुपाश्रयेत् ॥ ३॥ जब मनुष्य कामनाबद्ध होकर विषयों की ओर दौड़ता है, उस समय विषयों को प्राप्त करते हुए कामनाएँ बढ़ती जाती हैं। इसलिए विषय और कामना दोनों से अलग होकर (आत्मा में ध्यान लगाते हुए) ही विशुद्ध परमात्मभाव की प्राप्ति की जा सकती है॥३॥ अपरं सन्त्यजेत्सर्वं यदिच्छेदात्मनो हितम् । शक्तिमध्ये मनः कृत्वा मनः शक्तेश्च मध्यगम् ॥ ४॥ मनसा मन आलोक्य तत्त्यजेत्परमं पदम् । मन एव हि बिन्दुश्च उत्पत्तिस्थितिकारणम् ॥ ५॥ अपना हित चाहने वाले को समस्त मिथ्या विषयों को छोड़कर शक्ति (कुण्डलिनी) के मध्य में मन को स्थिर करके उसी में स्थिर रहना चाहिए। मन से मन को देखते हुए उसकी गतिविधियों का निरीक्षण करके उनसे मुक्त होने को ही परम पद कहा गया है। मन ही बिन्दु (ईश्वर) है और वही (जगत्प्रपंच) की उत्पत्ति एवं स्थिति का मुख्य कारण है॥४-५॥ मनसोत्पद्यते बिन्दुर्यथा क्षीरं घृतात्मकम् । न च बन्धनमध्यस्थं तद्वै कारणमानसम् ॥ ६॥ जिस प्रकार दूध से घी निकलता है, उसी प्रकार मन से बिन्दु प्रकट होता है। जो भी बन्धन हैं, मन में हैं, बिन्दु में नहीं ॥६॥ चन्द्रार्कमध्यमा शक्तिर्यत्रस्था तत्र बन्धनम् । ज्ञात्वा सुषुम्नां तद्भेदं कृत्वा वायुं च मध्यगम् ॥ ७॥ स्थित्वासौ बैन्दवस्थाने घ्राणरन्ध्र निरोधयेत् । वायुं बिन्दुं समाख्यातं सत्त्वं प्रकृतिमेव च ॥ ८॥ षट् चक्राणि परिज्ञात्वा प्रविशेत्सुखमण्डलम् । मूलाधारं स्वाधिष्ठानं मणिपूरं तृतीयकम् ॥ ९॥ अनाहतं विशुद्धं च आज्ञाचक्रं च षष्ठकम् । आधारं गुदमित्युक्तं स्वाधिष्ठानं तु लैङ्गिकम् ॥ १०॥ मणिपूरं नाभिदेशं हृदयस्थमनाहतम् । विशुद्धिः कण्ठमूले च आज्ञाचक्रं च मस्तकम् ॥ ११॥ जो शक्ति सूर्य और चन्द्र अर्थात् इड़ा-पिंगला नाड़ियों में स्थित है, वही बन्धन कारक है, यह जानकर उन (ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र ग्रन्थियों) का भेदन करके प्राणवायु को सुषुम्ना में गतिमान् करना चाहिए, जो इन दोनों के मध्य में स्थित है। बिन्दु स्थान में प्राण को रोककर वायु का निरोध नासिका के द्वारा करना चाहिए। बिन्दु, सत्त्व एवं प्रकृति का विस्तार यह प्राणवायु ही है॥ षट्चक्रों को जानकर (उसे भेदकर) सुखमण्डल (सहस्रार चक्र) में प्रवेश करे। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा ये छः चक्र कहे गये हैं। गुदास्थान के समीप मूलाधार, लिंग के समीप स्वाधिष्ठान, नाभिमण्डल में मणिपूर, हृदय में अनाहत, कण्ठमूल में विशुद्धचक्र एवं मस्तक में आज्ञाचक्र स्थित होता है॥७-११॥ षट् चक्राणि परिज्ञात्वा प्रविशेत्सुखमण्डले । प्र रविशेद्वायुमाकृष्य तयैवोर्ध्वं नियोजयेत् ॥ १२॥ षट्चक्रों की जानकारी प्राप्त करके प्राण को आकर्षित करके सुखमण्डल अर्थात् परमानन्ददायी सहस्रार चक्र में प्रवेश करे और उसे ऊर्ध्वगामी दिशा में नियोजित करे ॥१२॥ एवं समभ्यसेद्वायुं स ब्रह्माण्डमयो भवेत् । वायुं बिन्दुं तथा चक्रं चित्तं चैव समभ्यसेत् ॥ १३॥ समाधिमेकेन समममृतं यान्ति योगिनः । यथाग्निर्दारुमध्यस्थो नोत्तिष्ठेन्मथनं विना ॥ १४॥ विना चाभ्यासयोगेन ज्ञानदीपस्तथा न हि । घटमध्यगतो दीपो बाह्ये नैव प्रकाशते ॥ १५॥ भिन्ने तस्मिन्घटे चैव दीपज्वाला च भासते । स्व वकायं घटमित्युक्तं यथा दीपो हि तत्पदम् ॥ १६॥ गुरुवाक्यसमाभिन्ने ब्रह्मज्ञानं स्फुटीभवेत् । कर्णधारं गुरुं प्राप्य कृत्वा सूक्ष्मं तरन्ति च ॥ १७॥ अभ्यासवासनाशक्त्या तरन्ति भवसागरम् । परायामङ्‌कुरीभूय पश्यन्तां द्विदलीकृता ॥ १८॥ मध्यमायां मुकुलिता वैखर्या विकसीकृता । पूर्वं यथोदिता या वाग्विलोमेनास्तगा भवेत् ॥ १९॥ इस तरह अभ्यसित होकर प्राण ब्रह्माण्ड में स्थित हो जाता है अर्थात् ब्रह्माण्ड का ज्ञान हो जाता है। समुचित रूप से चित्त, प्राण-वायु, बिन्दु एवं चक्र का अभ्यास हो जाने पर योगियों को परमात्मा से एकाकार होकर समाधि अवस्था में पहुँच कर अमृत-तत्त्व की प्राप्ति हो जाती है। जिस तरह लकड़ी में अग्नि है, परन्तु बिना रगड़े हुए वह प्रज्वलित नहीं होती, उसी प्रकार बिना निरन्तर अभ्यास किये हुए योगविद्या का प्रकाश बाहर नहीं आ सकता। जिस प्रकार घड़े के भीतर रखा हुआ दीपक बिना उसका भेदन किये बाहर प्रकाश नहीं दे सकता, ठीक उसी तरह शरीररूपी घट के भीतर स्थित ब्रह्मरूपी प्रकाश तब तक बाहर नहीं दिखता, जब तक गुरुमुख होकर इस शरीररूपी घट का भेदन नहीं किया जाता। कर्णधार (नाविक) रूप गुरु ही इस संसार- सागर से पार होने का उपाय है। अपनी श्रेष्ठ वासना अर्थात् उच्च आदर्शवादी महत्त्वाकांक्षा एवं निरन्तर अभ्यास के द्वारा अर्जित शक्ति के माध्यम से ही भवसागर को पार किया जा सकता है। शरीर में स्थित वाणी परारूप में अङ्करित होती, पश्यंती रूप में द्विदल (दो पत्ते) होती, मध्यमा में मुकुलित (खिलती-अग्रगामी) होती और वैखरी रूप में आकर पूर्ण विकसित (प्रकट) हो जाती है। इस वाणी का जिस तरह से प्राकट्य होता है, उसी क्रम में वह विलीन भी हो जाती है ॥१३- १९॥ तस्या वाचः परो देवः कूटस्थो वाक्प्रबोधकः । सोऽहमस्मीति निश्चित्य यः सदा वर्तते पुमान् ॥ २०॥ शब्दैरुच्चावचैर्नीचैर्भाषितोऽपि न लिप्यते । विश्वश्च तैजसश्चैव प्राज्ञश्वेति च ते त्रयः ॥ २१॥ विराजिरण्यगर्भश्च ईश्वरश्चेति ते त्रयः । ब्रह्माण्डं चैव पिण्डाण्डं लोका भूरादयः क्रमात् ॥ २२॥ स्वस्वोपाधिलयादेव लीयन्ते प्रत्यगात्मनि । अण्डं ज्ञानाग्निना तप्तं लीयते कारणैः सह ॥ २३॥ परमात्मनि लीनं तत्परं ब्रह्मैव जायते । ततः स्तिमितगम्भीरं न तेजो न तमस्ततम् ॥ २४॥ अनाख्यमनभिव्यक्तं सत्किञ्चिदवशिष्यते । ध्यात्वा मध्यस्थमात्मानं कलशान्तरदीपवत् ॥ २५॥ अङ्‌गुष्ठमात्रमात्मानमधूमज्योतिरूपकम् । प्र रकाशयन्तमन्तस्थं ध्यायेत्कूटस्थमव्ययम् ॥ २६॥ उस वाणी का ज्ञान देने वाला 'मैं ही अन्तःस्थित परम देव हूँ' इस तरह निश्चित रूप से समझ कर जो उसके अनुरूप आचरण करता है, उसे अच्छा या बुरा कोई भी शब्द कह दिया जाए, तो वह व्यक्ति उससे प्रभावित नहीं होता। विश्व, तैजस तथा प्राज्ञ ये तीन तरह के पिण्ड कहे गये हैं। विराट्, हिरण्यगर्भ तथा ईश्वर तीन ब्रह्माण्ड एवं भूः, भुवः, स्वः क्रमशः ये तीन लोक कहे गये हैं। ये सभी अपनी उपाधियों के समाप्त होने पर पुनः अपनी पूर्व स्थिति में वापस आ जाते हैं। ज्ञानरूपी अग्नि में तप्त होकर अपने कारणों के मूलस्वरूप में विलीन हो जाते हैं। यह (जीव) परमात्मा से एकाकार होकर परम अगाध गम्भीर ब्रह्म स्वरूप हो जाता है, उस समय इसका ऐसा रूप होता है, जिसको न तो प्रकाश कहा जा सकता है, न अंधकार ही कहा जा सकता है। उस समय एकमात्र नामरहित सत् स्वरूप, अव्यक्ततत्त्व ही शेष रह जाता है। (उस) मध्यस्थ (अन्तःकरण में स्थित) 'आत्मा' का कलश में स्थित दीपक की तरह ध्यान करके (आगे भी निरन्तर) अङ्‌गुष्ठमात्रधूमरहित ज्योतिस्वरूप, प्रकाशमान, कूटस्थ (शाश्वत) और अव्यय (अविनाशी) आत्मतत्त्व का अन्तःकरण में ध्यान करते रहना चाहिए ॥ २०-२६॥ विज्ञानात्मा तथा देहे जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितः । मायया मोहितः पश्चाद्बहुजन्मान्तरे पुनः ॥ २७॥ सत्कर्मपरिपाकात्तु स्वविकारं चिकीर्षति । कोऽहं कथमयं दोषः संसाराख्य उपागतः ॥ २८॥ जाग्रत्स्वप्ने व्यवहरन्त्सुषुप्तौ क्व गतिर्मम । इति चिन्तापरो भूत्वा स्वभासा च विशेषतः ॥ २९॥ अज्ञानात्तु चिदाभासो बहिस्तापेन तापितः । दग्धं भवत्येव तदा तूलपिण्डमिवाग्निना ॥ ३०॥ मूलतः आत्मा विज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) रूप होता है, परन्तु शरीर प्राप्त होने पर वह माया के वशीभूत होकर जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्थाओं को प्राप्त हो जाता है और उसी माया में मोहित हो जाता है। जब जन्म-जन्मान्तरों के पुण्यकर्म उदित होते हैं, तब मानव अपने दोषों को जानने की इच्छा करता है, तब वह सोचता है कि वास्तव में मैं कौन हूँ एवं दोषरूप यह संसार कैसे प्राप्त हुआ है? जाग्रत् एवं स्वप्न अवस्था में तो मैं ही कर्ता के रूप में व्यवहार करता हूँ, परन्तु सुषुप्ति अवस्था में मेरी क्या गति होती है? इस तरह चिन्तन करते हुए अपने रूप पर विचार करता रहता है। जिस प्रकार रुई का ढेर आग पाते ही जल जाता है, उसी प्रकार चिदाभास के प्रभाव से सांसारिक ताप से तापित अज्ञान समाप्त हो जाता है॥२७-३०॥ दहरस्थः प्रत्यगात्मा नष्टे ज्ञाने ततः परम् । विततो व्याप्य विज्ञानं दहत्येव क्षणेन तु ॥ ३१॥ मनोमयज्ञानमयान्सम्यग्दग्ध्वा क्रमेण तु । घटस्थदीपवच्छश्वदन्तरेव प्रकाशते ॥ ३२॥ इस तरह सांसारिक बोध के समाप्त होने पर प्रत्यगात्मा (शुद्ध आत्मा) प्रकाशित हो जाता है तथा उससे विज्ञान (संसार का विशेष ज्ञान) भी नष्ट हो जाता है। इस तरह क्रमशः मनोमय तथा विज्ञानमय के पूर्णतः नष्ट हो जाने पर घट के भीतर रखे हुए दीपक की तरह अंतःस्थ प्रकाश रूप आत्मा ही अंतःकरण में प्रकाशित होता रहता है॥ ३१- ३२॥ ध्यायन्नास्ते मुनिश्चैवमासुप्तेरामृतेस्तु यः । जीवन्मुक्तः स विज्ञेयः स धन्यः कृतकृत्यवान् ॥ ३३॥ इस प्रकार से नित्य प्रति जो आत्मज्ञानी आत्मा का ध्यान करता है तथा मृत्यु के आने पर भी स्थिर चित्त होकर उस पर ध्यान लगाये रहता है, उसे जीवन (सांसारिकता) से मुक्ति मिल जाती है, वही विज्ञानी है, धन्य है और वह कृत-कृत्य हो जाता है॥३३॥ जीवन्मुक्तपदं त्यक्त्वा स्वदेहे कालसात्कृते । विशत्यदेहमुक्तत्वं पवनोऽस्पन्दतामिव ॥ ३४॥ जीवन्मुक्त साधक का अन्तिम समय (मृत्यु) आने पर वह (शरीर रहते हुए जीवन्मुक्त एवं शरीर समाप्त होने पर) उसी प्रकार विदेह मुक्त हो जाता है, जिस प्रकार वायु (उन्मुक्त) आकाश में स्पन्दनरहित होकर प्रवेश कर जाती है ॥३४॥ अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथारसं नित्यमगन्धवच्च यत् । अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं तदेव शिष्यत्यमलं निरामयम् ॥ ३५॥ इत्युपनिषत् ॥ जो आदि-अंत रहित, नित्य, अव्यय और महान् है तथा जो अटल है एवं शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि पंचमहाभूतों से रहित है, वही विकाररहित परमपवित्र ब्रह्म ही अन्त में शेष बचता है, यही उपनिषद् है॥३५॥ ॥ इति तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥ ॥ तृतीय अध्याय समाप्त ॥ ॥ हरिः ॐ ॥ शान्तिपाठ ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ १९॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ ॥ इति योगकुण्डलिन्युपनिषत्समाप्ता ॥ ॥ योगकुण्डलिनी उपनिषद समात ॥

Recommendations