ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त २

ऋग्वेद - पंचम मंडल सूक्त २ ऋषि - कुमार आत्रेय, वृशो, ऊभौ, २, ९ वृशो जान देवता - अग्नि। छंद - त्रिष्टुप, १२ शक्करी कुमारं माता युवतिः समुब्धं गुहा बिभर्ति न ददाति पित्रे । अनीकमस्य न मिनज्जनासः पुरः पश्यन्ति निहितमरतौ ॥१॥ तरुणी माता (काष्ठ अरणियाँ) अपने पुत्र (अग्नि) को गर्भ में भली प्रकार गुप्त रखती हैं। इसका पोषण स्वयं करती हैं, पिता को नहीं देती हैं। प्रकट होने पर इस गुप्त शिशु को लोग साक्षात् देखते हैं, तब इसके तेज को लोग विनष्ट नहीं कर सकते ॥१॥ कमेतं त्वं युवते कुमारं पेषी बिभर्षि महिषी जजान । पूर्वीर्हि गर्भः शरदो ववर्धापश्यं जातं यदसूत माता ॥२॥ हे महान् तरुणी ! आप बालक (अग्नि) को गर्भ में धारण करती हैं, उत्पन्न करती हैं और उसका भली प्रकार पोषण करती हैं। गर्भ में यह बालक पूर्व के अनेक वर्षों तक पुष्ट होता है। जब आपने इसे उत्पन्न किया, तब इस उत्पन्न बालक को सबने देखा ॥२॥ हिरण्यदन्तं शुचिवर्णमारात्क्षेत्रादपश्यमायुधा मिमानम् । ददानो अस्मा अमृतं विपृक्वत्किं मामनिन्द्राः कृणवन्ननुक्थाः ॥३॥ हमने निकटस्थ स्थान से स्वर्ण सदृश ज्वाला वाले, उज्ज्वल वर्ण वाले, आयुध रूप दीप्तियों वाले अग्निदेव को देखा। हमने उन्हें अमृतमय स्तोत्रं निवेदित किया। वे इन्द्रदेव को न मानने वाले और स्तुति न करने वाले भला हमारा क्या करेंगे? ॥३॥ क्षेत्रादपश्यं सनुतश्चरन्तं सुमयूथं न पुरु शोभमानम् । न ता अगृभ्रन्नजनिष्ट हि षः पलिक्नीरियुवतयो भवन्ति ॥४॥ पशुओं के झुण्ड के समान, अपने स्थान (अरणि) में गुप्त अग्नि को विचरते हुए हमने देखा है। अग्निदेव जब उत्पन्न होते हैं, तो उनकी दीप्त ज्वालाओं का स्पर्श नहीं कर सकते। युवतियों के वृद्धा होने के समान क्षीण होती ज्वालाएँ हविष्यान्न प्राप्त कर जरावस्था से पुनः युवतियों के समान पुष्ट होती जाती हैं ॥४॥ के मे मर्यकं वि यवन्त गोभिर्न येषां गोपा अरणश्चिदास । ईं जगृभुरव ते सृजन्त्वाजाति पश्व उप नश्चिकित्वान् ॥५॥ जो कोई राष्ट्र के स्वामी और भूमिपति नहीं हैं, वे कौन हैं, जो मुझे भूमि से पृथक् कर सकते हैं? जो इस भूमि पर अतिक्रमण करते हैं, उनसे हमें मुक्त करें। वे ज्ञानवान् अग्निदेव हमारे पशुओं के समीप रक्षक रूप में उपस्थित हों ॥५॥ वसां राजानं वसतिं जनानामरातयो नि दधुर्मर्येषु । ब्रह्माण्यत्रेरव तं सृजन्तु निन्दितारो निन्द्यासो भवन्तु ॥६॥ ये अग्निदेव सब प्राणियों के स्वामी और सबको आश्रय देने वाले हैं। शत्रुओं ने इन अग्निदेव को मर्त्यलोक में छिपा कर रखा। अत्रि वंशजों ने मंत्र युक्त स्तोत्रों से उन्हें मुक्त किया। उन अग्निदेव की निन्दा करने वाले निन्दा के पात्र हों ॥६॥ शुनश्चिच्छेपं निदितं सहस्राद्‌यूपादमुञ्चो अशमिष्ट हि षः । एवास्मदग्ने वि मुमुग्धि पाशान्होतश्चिकित्व इह तू निषद्य ॥७॥ हे अग्निदेव ! शुनः शेष ऋषि के स्तुति करने पर आपने उन्हें सहस्रों यूप (स्तम्भों) के बंधन से मुक्त किया। है मेधावी अग्निदेव ! आप होता' रूप में इस यज्ञ में अधिष्ठित हों और हमें भी बंधनों से मुक्त करें ॥७॥ हृणीयमानो अप हि मदैयेः प्र मे देवानां व्रतपा उवाच । इन्द्रो विद्वाँ अनु हि त्वा चचक्ष तेनाहमग्ने अनुशिष्ट आगाम् ॥८॥ हे अग्निदेव ! आप जब क्रुद्ध होते हैं, तब हमसे दूर हो जाते हैं। नियमों के पालक इन्द्रदेव ने यह उपदेश हमें किया था। विद्वान् इन्द्रदेव ने आपको देखा है और उनके द्वारा प्रेरित होकर हम आपके सम्मुख उपस्थित हैं ॥८॥ वि ज्योतिषा बृहता भात्यग्निराविर्विश्वानि कृणुते महित्वा । प्रादेवीर्मायाः सहते दुरेवाः शिशीते शृङ्गे रक्षसे विनिक्षे ॥९॥ वे अग्निदेव अपने महान् तेजों से प्रकाशित होते हैं। वे अपनी महत्ता से सब पदार्थों को प्रकट करते हैं। वे अपनी सामर्थ्य से असुरों की दुःखप्रद माया को विनष्ट करते हैं। राक्षसों के विनाश के निमित्त अपनी ज्वालाओं को तीक्ष्ण करते हैं ॥९॥ उत स्वानासो दिवि षन्त्वग्नेस्तिग्मायुधा रक्षसे हन्तवा उ । मदे चिदस्य प्र रुजन्ति भामा न वरन्ते परिबाधो अदेवीः ॥१०॥ अग्नि की शब्द करने वाली ज्वालाएँ तीक्ष्ण आयुधों के समान राक्षसों का विनाश करने के लिए द्युलोक में प्रकट होती हैं। (हव्यादि से) पुष्ट होकर ज्वालाएँ अति विकराल रूप धारण कर राक्षसां को मंतप्त करती हैं। आसुरी बाधाएँ अग्निदेव की सीमा को प्रतिबन्धित नहीं कर सकतीं ॥१०॥ एतं ते स्तोमं तुविजात विप्रो रथं न धीरः स्वपा अतक्षम् । यदीदग्ने प्रति त्वं देव हर्याः स्वर्वतीरप एना जयेम ॥११॥ अनेक रूपों में उत्पन्न हे अग्निदेव! आप धैर्यवान्, ज्ञानी और उत्तम कार्य करने वाले हैं। रथ के निर्माण के सदृश मनोयोगपूर्वक हमने आपके निमित्त स्तोत्रों को तैयार किया है। हे अग्निदेव ! आप इन स्तोत्रों से हर्षित होकर विजय प्राप्त करने वाले स्वर्गिक सुख से युक्त हों ॥११॥ तुविग्रीवो वृषभो वावृधानोऽशत्र्वर्यः समजाति वेदः । इतीममग्निममृता अवोचन्बर्हिष्मते मनवे शर्म यंसद्धविष्मते मनवे शर्म यंसत् ॥१२॥ असंख्यों ज्वालाओं वाले, अभीष्ट वर्षक, अबाध वृद्धि-युक्त, शत्रुरहित अग्निदेव श्रेष्ठ पुरुषों को धन देते हैं। अतएव अमर देवगण इन अग्निदेव से कहते हैं-'आप कुशा के आसन बिछाने वाले तथा हवि देने वाले याजक को निश्चय ही सुख प्रदान करें ॥१२॥

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