ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ४७

ऋग्वेद-चतुर्थ मंडल सूक्त ४७ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रवायु, १ वायु। छंद -अनुष्टुप वायो शुक्रो अयामि ते मध्वो अग्रं दिविष्टिषु । आ याहि सोमपीतये स्पार्हो देव नियुत्वता ॥१॥ हे वायो ! निर्दोष हम, आपके लिए यज्ञ में सर्वप्रथम सोमरस भेंट करते हैं। हे देव ! आदर के योग्य आप नियुत (नामक) अश्व पर बैठ कर सोमपान के निमित्त पधारें ॥१॥ इन्द्रश्च वायवेषां सोमानां पीतिमर्हथः । युवां हि यन्तीन्दवो निम्नमापो न सध्यक् ॥२॥ हे वायु और इन्द्रदेवो ! आप दोनों सोमपान की पात्रता से युक्त हैं, इसीलिए नीचे की ओर जलधारा के समान ही आप दोनों तक सोमरस के प्रवाह पहुँचते हैं ॥२॥ वायविन्द्रश्च शुष्मिणा सरथं शवसस्पती । नियुत्वन्ता न ऊतय आ यातं सोमपीतये ॥३॥ हे वायु और इन्द्रदेवो! आप दोनों बल के स्वामी और सामर्थ्यवान् हैं। नियुत नामक घोड़े से युक्त आप दोनों ही हमारी रक्षा के लिए सोमरस पान हेतु एक साथ पधारें ॥३॥ या वां सन्ति पुरुस्पृहो नियुतो दाशुषे नरा । अस्मे ता यज्ञवाहसेन्द्रवायू नि यच्छतम् ॥४॥ हे नायक तथा यज्ञ सम्पादक इन्द्र और वायुदेवो ! आप दोनों के पास अनेकों द्वारा कामना किये जाने योग्य जो अश्व हैं, उन अश्नों को मुझ दानदाता यजमान को प्रदान करें ॥४॥

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