ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त २४

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त २४ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः। देवता- ब्रह्मणस्पतिः १, १० बृहस्पतिः, १२ इंद्रा ब्रह्मणस्पतिः। छंद- जगती, १२, १६ त्रिष्टुप सेमामविड्डि प्रभृतिं य ईशिषेऽया विधेम नवया महा गिरा । यथा नो मीढ्वान्स्तवते सखा तव बृहस्पते सीषधः सोत नो मतिम् ॥१॥ हे बृहस्पतिदेव ! आप सम्पूर्ण विश्व के स्वामी हैं, हम महान् स्तुतियों के द्वारा आपका यशोगान करते हैं, उन्हें ग्रहण करें। जो स्तोता आपकी मित्र भाव से स्तुतियाँ करते हैं, वे हमें सद्बुद्धि प्रदान करें ॥१॥ यो नन्त्वान्यनमन्योजसोतादर्दर्मन्युना शम्बराणि वि । प्राच्यावयदच्युता ब्रह्मणस्पतिरा चाविशद्वसुमन्तं वि पर्वतम् ॥२॥ ब्रह्मणस्पतिदेव ने अपनी सामर्थ्य से दण्डित करने योग्य शत्रुओं को दबाया, मन्यु के द्वारा शम्बर को विदीर्ण किया, न गिरने वाले (जल) को गिराया तथा जहाँ गौएँ छिपी थीं, उस पर्वत में प्रवेश किया ॥२॥ तद्देवानां देवतमाय कर्वमश्रथ्नन्दृव्ळ्हाव्रदन्त वीळिता । उद्गा आजदभिनद्ब्रह्मणा वलमगूहत्तमो व्यचक्षयत्स्वः ॥३॥ देवों में सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मणस्पतिदेव के कर्तृत्व से सुदृढ़ किले भी शिथिल हो जाते हैं तथा बलशाली भी नम्र होकर झुक जाते हैं । ब्रह्मणस्पतिदेव ने मंत्र शक्ति के द्वारा बलासुर को मारकर गौओं को मुक्त कराया। सूर्यदेव को प्रकट करके अन्धकार को नष्ट किया ॥३॥ अश्मास्यमवतं ब्रह्मणस्पतिर्मधुधारमभि यमोजसातृणत् । तमेव विश्व पपिरे स्वर्दृशो बहु साकं सिसिचुरुत्समुद्रिणम् ॥४॥ ब्रह्मणस्पतिदेव ने पत्थर जैसे दृढ़ मुखवाले मधुर धाराओं से युक्त मेघ को बल प्रयोग द्वारा बरसने के लिए प्रेरित किया। वृष्टि के जल का पान सूर्य रश्मियों ने किया तथा प्रचुर जलधारा के रूप में (धरती पर) बरसाया ॥४॥ सना ता का चिभुवना भवीत्वा माद्भिः शरद्भिर्दुरो वरन्त वः । अयतन्ता चरतो अन्यदन्यदिद्या चकार वयुना ब्रह्मणस्पतिः ॥५॥ हे ऋत्विज ! ब्रह्मणस्पतिदेव ने तुम्हारे लिए ही अनादि काल से प्रत्येक माह और प्रत्येक वर्ष, वर्षा के लिए मेघों को प्रेरित किया। इस प्रकार द्यावा-पृथिवी दोनों परस्पर जल का उपभोग करते हैं॥५॥ अभिनक्षन्तो अभि ये तमानशुर्निधिं पणीनां परमं गुहा हितम् । ते विद्वांसः प्रतिचक्ष्यानृता पुनर्यत उ आयन्तदुदीयुराविशम् ॥६॥ 'पणियों' के द्वारा गुहा में छिपाये गये श्रेष्ठ धन को चारों ओर खोज कर देवगणों ने प्राप्त किया। यज्ञीय कार्य में विघ्न पैदा करने वाले राक्षस उस दिव्य ऐश्वर्य को देखकर, जिस स्थान से आये थे, वापस लौट गये ॥६॥ ऋतावानः प्रतिचक्ष्यानृता पुनरात आ तस्थुः कवयो महस्पथः । ते बाहुभ्यां धमितमग्निमश्मनि नकिः षो अस्त्यरणो जहुर्हि तम् ॥७॥ सर्वज्ञाता तथा सत्यवादियों ने माया की शक्तियों को देखा। वे वहाँ से हटकर विवेक पूर्वक महान् कार्यों के पथ पर चल पड़े । यज्ञीय कार्य के निमित्त उत्पन्न की गयी अग्नि को वहीं (पर्वत में ही छोड़ दिया ॥७॥ ऋतज्येन क्षिप्रेण ब्रह्मणस्पतिर्यत्र वष्टि प्र तदश्नोति धन्वना । तस्य साध्वीरिषवो याभिरस्यति नृचक्षसो दृशये कर्णयोनयः ॥८॥ ब्रह्मणस्पतिदेव के पास सुगमता से खिंचने वाली डोरी वाला (बुद्धि रूपी) एक उत्तम धनुष है, जिससे वे (ज्ञानरूपी) बाणों को जहाँ (बुद्धिमान जनों के कानों तक) वे चाहते हैं, पहुँचा देते हैं। इससे वे मनुष्यों के सभी संकटों और दुष्ट भावों को उखाड़ फेंकते हैं ॥८॥ स संनयः स विनयः पुरोहितः स सुष्टुतः स युधि ब्रह्मणस्पतिः । चाक्ष्मो यद्वाजं भरते मती धनादित्सूर्यस्तपति तप्यतुर्वृथा ॥९॥ वे स्तुत्य ब्रह्मणस्पतिदेव युद्ध में अग्रणी होकर संगठित रूप से आक्रमण करते हैं। सर्वदर्शी ब्रह्मणस्पतिदेव जब अन्न और धन को धारण करते हैं, तब स्वाभाविक रूप से सूर्य उदित हो जाता है ॥९॥ विभु प्रभु प्रथमं मेहनावतो बृहस्पतेः सुविदत्राणि राध्या । इमा सातानि वेन्यस्य वाजिनो येन जना उभये भुञ्जते विशः ॥१०॥ व्यापक सामर्थ्य प्रदान करने वाला, सब प्रकार सुखदायी, सिद्धिदायीं यह धन महाबलशाली बृहस्पतिदेव ने सबके द्वारा चाहे जाने पर बरसाया है । जिसका भोग दोनों प्रकार की (ज्ञानी और अज्ञानी) प्रजायें करती हैं॥१०॥ योऽवरे वृजने विश्वथा विभुर्महामु रण्वः शवसा ववक्षिथ । स देवो देवान्प्रति पप्रथे पृथु विश्वेदु ता परिभूर्ब्रह्मणस्पतिः ॥११॥ सर्वव्यापी, आनन्ददायी ब्रह्मणस्पतिदेव प्रत्येक युद्ध में अपनी सामर्थ्य से अपनी महत्ता को प्रकट करते हैं। सभी देवों से श्रेष्ठ ब्रह्मणस्पतिदेव समस्त विश्व में संव्याप्त रहते हैं॥११॥ विश्वं सत्यं मघवाना युवोरिदापश्चन प्र मिनन्ति व्रतं वाम् । अच्छेन्द्राब्रह्मणस्पती हविर्नोऽन्नं युजेव वाजिना जिगातम् ॥१२॥ हे ऐश्वर्यसम्पन्न इन्द्रदेव और हे ब्रह्मणस्पतिदेव ! आप दोनों सत्यव्रत धारी हैं। आप दोनों के कर्तव्य और नियम अडिग हैं। जुए में जुड़े अश्वों के समान आप दोनों हमारे हविष्यान्न को ग्रहण करने के लिए (यज्ञ स्थल में) आयें ॥१२॥ उताशिष्ठा अनु शृण्वन्ति वह्नयः सभेयो विप्रो भरते मती धना । वीळुद्वेषा अनु वश ऋणमाददिः स ह वाजी समिथे ब्रह्मणस्पतिः ॥१३॥ युद्ध में बलशाली ब्रह्मणस्पतिदेव सभ्य ज्ञानी जनों के उत्तम धन को ही स्वीकार करते हैं और बलशाली शत्रुओं से द्वेष करते हैं। द्रुतगति से जाने वाले अश्व भी (उनकी बात सुनते हैं। वे ऋण से उऋण करते हैं॥१३॥ ब्रह्मणस्पतेरभवद्यथावशं सत्यो मन्युर्महि कर्मा करिष्यतः । यो गा उदाजत्स दिवे वि चाभजन्महीव रीतिः शवसासरत्पृथक् ॥१४॥ महान् कार्य में निरत ब्रह्मणस्पतिदेव का कार्य उनकी अभिलाषा के अनुसार सफल होता है। ब्रह्मणस्पतिदेव ने गौओं को बाहर निकाल कर विजय प्राप्त की। सतत प्रवाहित नदियों की भाँति ये गौएँ स्वतंत्र रूप से चली गयीं ॥ १४॥ ब्रह्मणस्पते सुयमस्य विश्वहा रायः स्याम रथ्यो वयस्वतः । वीरेषु वीराँ उप पृद्धि नस्त्वं यदीशानो ब्रह्मणा वेषि मे हवम् ॥१५॥ हे ब्रह्मणस्पतिदेव ! हम सभी व्रतों के पालक तथा अन्न युक्त धन के सदैव अधिपति रहें। आप सभी के नियन्ता हैं, अतः ज्ञान पूर्वक की गयी हमारी स्तुतियों को स्वीकार करके हमें पराक्रमी सन्तति प्रदान करें ॥१५॥ ब्रह्मणस्पते त्वमस्य यन्ता सूक्तस्य बोधि तनयं च जिन्व । विश्वं तद्भद्रं यदवन्ति देवा बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥१६॥ हे संसार के नियन्ता ब्रह्मणस्पतिदेव ! देवगण जिसे अपना संरक्षण प्रदान करते हैं, उसका हर प्रकार से कल्याण होता है; अतः आप हमारे सूक्त को जानकर हमारे पुत्रों को परिपुष्ट बनायें, ताकि उत्तम सन्तति से युक्त होकर हम यज्ञ में आपकी महिमा का गान कर सकें ॥१६॥

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