ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त ५

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त ५ ऋषिः - सोमाहुतिभार्गव देवता - अग्नि । छंद- त्रिष्टुप, होताजनिष्ट चेतनः पिता पितृभ्य ऊतये । प्रयक्षञ्जन्यं वसु शकेम वाजिनो यमम् ॥१॥ शरीर में चेतना उत्पन्न करने वाले ये होता एवं पिता रूप अग्निदेव पितरों की रक्षा के लिए उत्पन्न हुए ये हमें भी बलशाली, पूजनीय, रक्षा साधन से सम्पन्न तथा विजय दिलाने योग्य धन प्रदान करने में समर्थ हों ॥१॥ आ यस्मिन्त्सप्त रश्मयस्तता यज्ञस्य नेतरि । मनुष्वदैव्यमष्टमं पोता विश्वं तदिन्वति ॥२॥ यज्ञ के नायक रूप अग्निदेव में सात रश्मियाँ व्याप्त हैं। पवित्र बनाने वाले वे अग्निदेव मनुष्य की तरह यज्ञ के आठवें (दीर्घायु प्रदान करने वाले होकर) स्थान में पूर्ण रूप से व्याप्त होते हैं । ॥२॥ दधन्वे वा यदीमनु वोचद्ब्रह्माणि वेरु तत् । परि विश्वानि काव्या नेमिश्चक्रमिवाभवत् ॥३॥ अग्निदेव को लक्ष्य करके इस यज्ञ में मन्त्रोच्चारण के साथ जो हविष्यान्न समर्पित किया जाता है, उसे ये अग्निदेव जानते हैं। जिस तरह धुरी के चारों ओर चक्र घूमते हैं, उसी तरह सभी स्तुतियाँ इन अग्निदेव के चारों ओर घूमती हैं॥३॥ साकं हि शुचिना शुचिः प्रशास्ता क्रतुनाजनि । विद्वाँ अस्य व्रता ध्रुवा वया इवानु रोहते ॥४॥ उत्तम प्रकार से शासन करने वाले ये अग्निदेव शुद्ध करने वाले पवित्र कर्मों के साथ ही उत्पन्न हुए। जों (व्यक्ति) अग्निदेव के इस सनातन स्वरूप को जानता है, वह वृक्ष की शाखाओं के समान बराबर वृद्धि को प्राप्त होता है और क्रम से ऊँचे-ही-ऊँचे चढ़ता है॥४॥ ता अस्य वर्णमायुवो नेष्टुः सचन्त धेनवः । कुवित्तिसृभ्य आ वरं स्वसारो या इदं ययुः ॥५॥ नेता रूप अग्निदेव के तीनों रूपों को उत्तम प्रकार से तेजस्वी बनाने वाली, बहनों के समान परस्पर प्रेम करने वाली अँगुलियाँ प्रज्वलित करती हैं, ये अग्निदेव मनुष्यों को दुधारू गौ के समान सुखी बनाते हैं॥५॥ यदी मातुरुप स्वसा घृतं भरन्त्यस्थित । तासामध्वर्युरागतौ यवो वृष्टीव मोदते ॥६॥ जब माता रूपी वेदी के पास बहन रूपी अँगुलियाँ घृत भरकर (जुहूपात्र लेकर) जाती हैं, तब अध्वर्यु अग्निदेव के समीप अँगुलियों के आने पर उसी प्रकार प्रसन्न होते हैं जैसे वर्षा के जल को पाकर अन्न ॥६॥ स्वः स्वाय धायसे कृणुतामृत्विगृत्विजम् । स्तो तोमं यज्ञं चादरं वनेमा ररिमा वयम् ॥७॥ ये अग्निदेव श्रेष्ठ कार्यों के निमित्त सामर्थ्य प्रदान करने हेतु ऋत्विक् के समान हैं। हम उन ऋत्विक् रूप अग्निदेव के निमित्त स्तोत्रों का उच्चारण करते हुए हविष्यान्न समर्पित करते हुए यज्ञ करें ॥७॥ यथा विद्वाँ अरं करद्विश्वेभ्यो यजतेभ्यः । अयमग्ने त्वे अपि यं यज्ञं चकृमा वयम् ॥८॥ हे अग्निदेव ! जिस प्रकार ज्ञानी जन भली-भाँति सभी देवों को संतुष्टि प्रदान करते हैं, उसी प्रकार हमारे द्वारा जो भी यज्ञीय कार्य सम्पन्न हों, वह आपकी तृप्ति के लिए ही हों ॥८॥

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