ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ६१

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ६१ ऋषिः श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुत ५-८ तरंत महिषी शशीयसी, ९ वैददश्विः पुरमील्हः, १० वैददश्विसतरन्तः १७-१९ दाभ्यो रथवितिः । छंद - गायत्री, ३ निवृत, ५ अनुष्टुप सतोवृहती के ष्ठा नरः श्रेष्ठतमा य एकएक आयय । परमस्याः परावतः ॥१॥ हे श्रेष्ठ नेतृत्व कर्ता ! आप सब कौन हैं? जो अतिशय सुदूरवर्ती आकाश प्रदेशों से यहाँ आगमन करते हैं ॥१॥ क्व वोऽश्वाः क्वाभीशवः कथं शेक कथा यय । पृष्ठे सदो नसोर्यमः ॥२॥ हे मरुतो ! आपके अश्व कहाँ हैं? उनके लगाम कहाँ हैं? कैसे गमन में समर्थ होते हैं? कैसे गमन करते हैं? उनकी पीठ पर की जीन और नथुने में डाली जाने वाली रस्सी कहाँ स्थित है ? ॥२॥ जघने चोद एषां वि सक्थानि नरो यमुः । पुत्रकृथे न जनयः ॥३॥ अश्व नियामक मरुद्गण जब इन घोड़ों की जाँघों पर चाबुक लगाते हैं, तो घोड़े अपनी जाँघों को प्रसूति के समय नारियों की भाँति फैला लेते गतिशील हो जाते हैं ॥३॥ परा वीरास एतन मर्यासो भद्रजानयः । अग्नितपो यथासथ ॥४॥ हे वीर मरुद्गणो ! आप मनुष्यों के हितैषी, कल्याणरूप जन्म वाले, अग्नि में तपाये गये के सदृश तेजोमय हैं। आप जैसे स्थित हैं, वैसे ही हमारे अभिमुख आगमन करें ॥४॥ सनत्साव्यं पशुमुत गव्यं शतावयम् । श्यावाश्वस्तुताय या दोर्वीरायोपबबृहत् ॥५॥ श्यावाश्व के द्वारा स्तुत उन वीरों (मरुद्गणों) के अभिवादन के लिए उन तरन्त महिषी शशीयसी देवी ने अपनी दोनों भुजाओं को फैलाया । उस देवी ने (मुझ श्यावाश्व को) अश्व, गौ और सौ भेड़े (अवि) प्रदान कीं ॥५॥ उत त्वा स्त्री शशीयसी पुंसो भवति वस्यसी । अदेवत्रादराधसः ॥६॥ जो पुरुष देव की उपासना नहीं करता है, धनादि दान नहीं करता है, उसकी अपेक्षा स्त्री शशीयसी सब प्रकार से श्रेष्ठ है ॥६॥ वि या जानाति जसुरिं वि तृष्यन्तं वि कामिनम् । देवत्रा कृणुते मनः ॥७॥ वे शशीयसी देवी प्रताड़ितों को जानती हैं, प्यासों को भी जानती हैं, धन की कामना वालों को जानती हैं और वे चिरन्तन देव पूजा में अपने चित्त को लगाती हैं ॥७॥ उत घा नेमो अस्तुतः पुमाँ इति ब्रुवे पणिः । स वैरदेय इत्समः ॥८॥ उन शशीयसी के अर्धाग पुरुष तरत की स्तुति करके भी हम कहते हैं कि स्तुति ठीक प्रकार नहीं हुई, क्योंकि दान के क्रम में वे सदैव समान हैं ॥८॥ उत मेऽरपद्युवतिर्ममन्दुषी प्रति श्यावाय वर्तनिम् । वि रोहिता पुरुमीव्ळ्हाय येमतुर्विप्राय दीर्घयशसे ॥९॥ सर्वदा प्रमुदित रहने वाली युवती शशीयसी ने श्यावाश्व का मार्ग प्रदर्शित किया था। उनके रोहित वर्णवाले अश्व उन्हें बहुप्रशंसित, महान् यशस्वी विप्र के मार्ग की ओर वहन करते हैं ॥९॥ यो मे धेनूनां शतं वैददश्विर्यथा ददत् । तरन्त इव मंहना ॥१०॥ विददश्व के पुत्र ने भी हमें तरन्त के समान सौं गाय और तेजस्वी धन प्रदान किया ॥१०॥ य ईं वहन्त आशुभिः पिबन्तो मदिरं मधु । अत्र श्रवांसि दधिरे ॥११॥ वे मरुद्गण द्रुतगामी अश्वों पर अधिष्ठित होकर अत्यन्त हर्षप्रद मधुर सोमपान करने के निमित्त आते हैं। और हमें विपुल अन्न प्रदान करते हैं ॥११॥ येषां श्रियाधि रोदसी विभ्राजन्ते रथेष्वा । दिवि रुक्म इवोपरि ॥१२॥ जिन मरुतों की शोभा से द्यावा-पृथिवी भी परिव्याप्त होती हैं। वे मरुद्गण ऊपर आकाश में प्रकाशमान सूर्यदेव के सदृश रथों में विशिष्ट आभा विस्तारित करते हैं ॥१२॥ युवा स मारुतो गणस्त्वेषरथो अनेद्यः । शुभंयावाप्रतिष्कुतः ॥१३॥ यह मरुद्गणों का समुदाय सदा तरुण और अनिन्दनीय हैं। ये तेजस्वी रथ में विराजित होकर वृष्टि आदि शुभ कार्य के निमित्त अबाधगति से गमन करते हैं ॥ १३॥ को वेद नूनमेषां यत्रा मदन्ति धूतयः । ऋतजाता अरेपसः ॥१४॥ यज्ञादि कर्मों से उत्पन्न हुए ये मरुद्गण शत्रुओं को कॅपाने वाले और पाप रहित हैं। ये जहाँ हर्षित होते हैं, उस स्थान को कौन जानता है ? ॥१४॥ यूयं मर्तं विपन्यवः प्रणेतार इत्था धिया । श्रोतारो यामहूतिषु ॥१५॥ हे स्तुतियोग्य मरुतो ! आप मनुष्यों के प्रकृष्ट नियन्ता हैं। उनके बुद्धिपूर्वक किये गये आवाहन को सुनकर आप शीघ्र आगमन करते हैं ॥१५॥ ते नो वसूनि काम्या पुरुश्चन्द्रा रिशादसः । आ यज्ञियासो ववृत्तन ॥१६॥ विविध प्रकाशक धनों के स्वामी, शत्रुसंहारक, पूजनीय हे मरुतो ! हमें वाञ्छित धनादि प्रदान करें ॥१६॥ एतं मे स्तोममूर्ये दार्थाय परा वह । गिरो देवि रथीरिव ॥१७॥ हे रात्रिदेवि ! हमारे इन स्तोत्ररूप वाणियों को उन मरुद्गणों के निमित्त उसी प्रकार वहन करें, जैसे कोई रथी अपने गन्तव्य स्थान तक जाते हैं ॥१७॥ उत मे वोचतादिति सुतसोमे रथवीतौ । न कामो अप वेति मे ॥१८॥ हे रात्रि देवि ! रथवीति द्वारा सम्पादित सोमयाग में हमारी कामनाएँ विफल नहीं हुईं, ऐसे मेरे वचन उनसे कहें ॥१८॥ एष क्षेति रथवीतिर्मघवा गोमतीरनु । पर्वतेष्वपश्रितः ॥१९॥ यह धनवान् रथवीति गोमती नदी के किनारे निवास करते हैं और पर्वतों में भी उनका निवास है ॥१९॥

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