ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ५१

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ५१ ऋषि - सव्य अंगीरस देवता- इन्द्र। छंद - जगती, १४-१५ त्रिष्टुप अभि त्यं मेषं पुरुहूतमृग्मियमिन्द्रं गीर्भिर्मदता वस्वो अर्णवम् । यस्य द्यावो न विचरन्ति मानुषा भुजे मंहिष्ठमभि विप्रमर्चत ॥१॥ हे याजको ! शत्रु को पराजित करने वाले, अनेकों द्वारा प्रशंसित, वैदिक ऋचाओं से स्तुति किये जाने योग्य, धन के सागर इन्द्रदेव की प्रार्थना करो। द्युलोक के विस्तार के समान जिनके कल्याणकारी कार्य चतुर्दिक संव्याप्त हैं, ऐसे ज्ञानवान् इन्द्रदेव की सुखों की प्राप्ति के लिए अर्चना करो ॥१॥ अभीमवन्वन्स्वभिष्टिमूतयोऽन्तरिक्षप्रां तविषीभिरावृतम् । इन्द्रं दक्षास ऋभवो मदच्युतं शतक्रतुं जवनी सूनृतारुहत् ॥२॥ सहायता करने वाले कर्मों में कुशल मरुत्देवों ने शत्रु के मद को चूर करने वाले, शतकर्मा, अभीष्ट पदार्थ देने वाले, अंतरिक्ष को तेज से पूर्ण करने वाले तथा अत्यन्त बलवान् इन्द्रदेव की स्तुति की । स्तोताओं की मधुर वाणी से इन्द्रदेव के उत्साह में अभिवृद्धि हुई ॥२॥ त्वं गोत्रमङ्गिरोभ्योऽवृणोरपोतात्रये शतदुरेषु गातुवित् । ससेन चिद्विमदायावहो वस्वाजावद्रिं वावसानस्य नर्तयन् ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! आपने अंगिरा ऋषि के लिए गौ समूह को छुड़ाया। अत्रि ऋषि के लिए शतद्वार वाली गुफा से मार्ग ढूंढ़ निकाला । विमद ऋषि के लिए अन्न से युक्त धन प्राप्त कराया और वज्र के द्वारा युद्धों में लोगों की रक्षा की, अतः आपकी महिमा का वर्णन कौन कर सकता है ? ॥३॥ त्वमपामपिधानावृणोरपाधारयः पर्वते दानुमद्वसु । वृत्रं यदिन्द्र शवसावधीरहिमादित्सूर्य दिव्यारोहयो दृशे ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आपने जलों से भरे हुए मेघों को मुक्त कराया। पर्वत के दस्यु वृत्र से धन को (अपहृत करके) धारण किया। बल से वृत्र और अहिरूप मेघों को विदीर्ण किया, जिससे सूर्यदेव आकाश में स्पष्ट दृष्टिगत होकर प्रकाशित हो सकें ॥४॥ त्वं मायाभिरप मायिनोऽधमः स्वधाभिर्ये अधि शुप्तावजुह्वत । त्वं पिप्रोर्नृमणः प्रारुजः पुरः प्र ऋजिश्वानं दस्युहत्येष्वाविथ ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! जो राक्षस यज्ञ की वियों को अपने मुँह में डाल लेते थे, उन प्रपंचियों को आपने अपनी माया से मार गिराया। हे मनुष्यों द्वारा स्तुत्य इन्द्रदेव ! आपने अपना ही पेट भरने वाले पित्रु नामक राक्षस के नगरों को ध्वस्त करके युद्ध में राक्षसों को विनष्ट करके 'अंजश्वा' ऋषि की रक्षा की ॥५॥ त्वं कुत्सं शुष्णहत्येष्वाविथारन्धयोऽतिथिग्वाय शम्बरम् । महान्तं चिदर्बुदं नि क्रमीः पदा सनादेव दस्युहत्याय जज्ञिषे ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! आपने युद्ध में 'शुष्ण' का नाश कर 'कुत्स' की रक्षा की । 'अतिथिग्व' अषि के लिये शम्बरासुर को पराजित किया। महान् बलशाली अर्बुद को अपने पैरों से कुचल डाला। आप चिरकाल से ही असुरों का नाश करने के लिए उत्पन्न हुए हैं॥६॥ त्वे विश्वा तविषी सध्यग्घिता तव राधः सोमपीथाय हर्षते । तव वज्रश्चिकिते बाह्वोर्हितो वृश्चा शत्रोरव विश्वानि वृष्ण्या ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! आपमें सम्पूर्ण बल समाविष्ट हैं। आपका मन सोमपान करने के लिए सदा हर्षित रहता है। आपकी बाहों में धारण किया हुआ वज्र सर्वत्र प्रसिद्ध है, जिससे आप शत्रुओं के सम्पूर्ण बलों को काट डालते हैं॥७॥ वि जानीह्यार्यान्ये च दस्यवो बर्हिष्मते रन्धया शासदव्रतान् । शाकी भव यजमानस्य चोदिता विश्वेत्ता ते सधमादेषु चाकन ॥८॥ हे इन्द्रदेव ! आप आर्यों को जाने और अनार्यों को भी जानें । व्रतहीनों को वशीभूत करके यज्ञ कर्म करने वालों के लिये उन्हें नष्ट करें। हे सामर्थ्यवान् इन्द्रदेव ! आप सभी यज्ञों में यजमान को प्रेरणा प्रदान करे, ऐसा हम चाहते हैं॥८॥ अनुव्रताय रन्धयन्नपव्रतानाभूभिरिन्द्रः श्वथयन्ननाभुवः । वृद्धस्य चिद्वर्धतो द्यामिनक्षतः स्तवानो वम्रो वि जघान संदिहः ॥९॥ ये इन्द्रदेव व्रतवानों के निमित्त व्रतहीनों को प्रताड़ित करने तथा आस्तिकों के निमित्त नास्तिकों को विनष्ट करते हैं। वे द्युलोक को क्षति पहुँचाने वाले असुरों को मार डालते हैं। ऐसे प्राचीन पुरुष इन्द्रदेव के बढ़ते हुए यश की 'वम्रषि' ने स्तुति की ॥९॥ तक्षद्यत्त उशना सहसा सहो वि रोदसी मज्मना बाधते शवः । आ त्वा वातस्य नृमणो मनोयुज आ पूर्यमाणमवहन्नभि श्रवः ॥१०॥ हे इन्द्रदेव ! 'उशना' अघ ने अपनी स्तुतियों से आपके बल को तीक्ष्ण किया। आपके उस बल की प्रचण्डता से द्युलोक और पृथ्वी भय से युक्त हुए । मनुष्यों से स्तुत्य हे इन्द्रदेव! इच्छा मात्र से योजित होने वाले अश्वों द्वारा हमारे निमित्त अन्नादि से पूर्ण होकर यशस्वी होने यहाँ आएँ ॥१०॥ मन्दिष्ट यदुशने काव्ये सचाँ इन्द्रो व‌ङ्क व‌ङ्कतराधि तिष्ठति । उग्रो ययिं निरपः स्रोतसासृजद्वि शुष्णस्य हंहिता ऐरयत्पुरः ॥११॥ 'उशना' की स्तुति से प्रसन्न होकर इन्द्रदेव अति वेग वाले अश्वों पर आरूढ़ हुए । तदनन्तर मेघ से जलप्रवाहों को बहाया और शुष्ण' (शोषण करने वाले) असुर के दृढ़ नगरों को ध्वस्त किया ॥११॥ आ स्मा रथं वृषपाणेषु तिष्ठसि शार्यातस्य प्रभृता येषु मन्दसे । इन्द्र यथा सुतसोमेषु चाकनोऽनर्वाणं श्लोकमा रोहसे दिवि ॥१२॥ हे इन्द्रदेव ! आप सोमरसों को पीने के निमित्त रथ पर अधिष्ठित होकर जाते हैं। जिन सोमरसों से आप प्रसन्न होते हैं, वे शायत द्वारा निष्पन्न हुए थे। आप जैसे ही सोमयज्ञों की कामना करते हैं, वैसे ही आपका उज्ज्वल यश वृद्धि को प्राप्त करता है॥१२॥ अददा अर्भा महते वचस्यवे कक्षीवते वृचयामिन्द्र सुन्वते । मेनाभवो वृषणश्वस्य सुक्रतो विश्ववेत्ता ते सवनेषु प्रवाच्या ॥१३॥ हे इन्द्रदेव ! आपने महान् स्तुति करने एवं सोम अभिषव करने वाले कक्षीवान् राजा के लिए अल्प विवेचन योग्य विद्याओं को अभिव्यक्त किया। हे उत्तम कर्मा इन्द्रदेव! आपने वृषणश्व राजा के निमित्त प्रेरक वाणियाँ प्रकट कीं। आपके ये सभी कर्म सोम सवनों में बताने योग्य हैं॥१३॥ इन्द्रो अश्रायि सुध्यो निरेके पत्रेषु स्तोमो दुर्यो न यूपः । अश्वयुर्गव्यू रथयुर्वसूयुरिन्द्र इद्रायः क्षयति प्रयन्ता ॥१४॥ निराश्रितों के लिए एकमात्र इन्द्रदेव ही आश्रय देने वाले हैं। द्वार में स्थिर स्तम्भ की भाँति इन्द्रदेव के आश्रय के लिए प्रजाओं में इन्द्रदेव की स्तुति अनवरत स्थिर रहती हैं। अश्वों, गायों, रथों और धनों के शासक इन्द्रदेव ही प्रजाओं को अभीष्ट ऐश्वर्य प्रदान करते रहते हैं॥१४॥ इदं नमो वृषभाय स्वराजे सत्यशुष्माय तवसेऽवाचि । अस्मिन्निन्द्र वृजने सर्ववीराः स्मत्सूरिभिस्तव शर्मन्त्स्याम ॥१५॥ हम बलशाली, स्वप्रकाशित, सत्यरूप सामर्थ्यवाले, श्रेष्ठ इन्द्रदेव का स्तुतियों सहित अभिवादन करते हैं। हे इन्द्रदेव ! इस संग्राम में हम सभी शूरवीरों सहित आपके आश्रय में उपस्थित हैं॥१५॥

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