ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त २४

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त २४ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र । छंद - त्रिष्टुप, १० अनुष्टुप का सुष्टुतिः शवसः सूनुमिन्द्रमर्वाचीनं राधस आ ववर्तत् । ददिर्हि वीरो गृणते वसूनि स गोपतिर्निष्षिधां नो जनासः ॥१॥ बल के पुत्र तथा हमारी ओर पधारने वाले इन्द्रदेव को कौन सी प्रार्थना ऐश्वर्य प्रदान करने के लिए प्रवृत्त करेगी? हे याजको ! पराक्रमी तथा गौओं के पालक इन्द्रदेव हम मनुष्यों को रिपुओं का ऐश्वर्य प्रदान करें। हम उनकी प्रार्थना करते हैं ॥१॥ स वृत्रहत्ये हव्यः स ईड्यः स सुष्टुत इन्द्रः सत्यराधाः । स यामन्ना मघवा मर्त्याय ब्रह्मण्यते सुष्वये वरिवो धात् ॥२॥ वृत्र का संहार करने वाले इन्द्रदेव युद्ध में बुलाये जाते हैं। वे प्रशंसनीय हैं। श्रेष्ठ रीति से प्रार्थना किये जाने पर वे यथार्थ ऐश्वर्य के प्रदाता बनते हैं। वे धनवान् इन्द्रदेव स्तोताओं तथा सोमाभिषव करने वाले याजकों को ऐश्वर्य प्रदान करते हैं ॥२॥ तमिन्नरो वि हृयन्ते समीके रिरिक्वांसस्तन्वः कृण्वत त्राम् । मिथो यत्त्यागमुभयासो अग्मन्नरस्तोकस्य तनयस्य सातौ ॥३॥ अपनी सहायता के लिए सभी मनुष्य उन इन्द्रदेव को ही आहूत करते हैं। याजकगण तप द्वारा शरीर को क्षीण करके उनको ही अपना संरक्षक बनाते हैं। याजक तथा स्तोता दोनों मिलकर पुत्र-पौत्रादि प्राप्ति के निमित्त उनके समीप जाते हैं ॥३॥ क्रतूयन्ति क्षितयो योग उग्राशुषाणासो मिथो अर्णसातौ । सं यद्विशोऽववृत्रन्त युध्मा आदिन्नेम इन्द्रयन्ते अभीके ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आप बलशाली हैं। समस्त दिशाओं में विद्यमान मनुष्य, जल (पोषक रस) प्राप्त करने के लिए संयुक्तरूप से यजन करते हैं। जब युद्ध करने वाले मनुष्य संग्राम में एकत्रित होते हैं, तब सभी उन इन्द्रदेव की इच्छा करते हैं ॥४॥ आदिद्ध नेम इन्द्रियं यजन्त आदित्पक्तिः पुरोळाशं रिरिच्यात् । आदित्सोमो वि पपृच्यादसुष्वीनादिज्जुजोष वृषभं यजध्यै ॥५॥ इसके बाद युद्ध में योद्धागण बलशाली इन्द्रदेव का पूजन करते हैं तथा पकाने वाले पुरोडाश पकाकर उनको प्रदान करते हैं। सोम अभिषव करने वाले याजक, सोम अभिषव न करने वाले याजकों को ऐश्वर्य से दूर करते हैं। अन्य लोग कामनाओं की पूर्ति करने वाले बलशाली इन्द्रदेव के निमित्त आहुतियाँ समर्पित करते हैं ॥५॥ कृणोत्यस्मै वरिवो य इत्थेन्द्राय सोममुशते सुनोति । सध्रीचीनेन मनसाविवेनन्तमित्सखायं कृणुते समत्सु ॥६॥ कल्याण करने की अभिलाषा करने वाले इन्द्रदेव के निमित्त जो मनुष्य सोम अभिषव करते हैं, उन्हें वे ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। श्रेष्ठ मानस से उनकी इच्छा करने वाले तथा सोम निचोड़ने वाले याजकों के साथ वे इन्द्रदेव युद्धों में मित्रता की भावना से सम्बन्ध स्थापित करते हैं ॥६॥ य इन्द्राय सुनवत्सोममद्य पचात्पक्तीरुत भृज्जाति धानाः । प्रति मनायोरुचथानि हर्यन्तस्मिन्दधदृषणं शुष्ममिन्द्रः ॥७॥ आज जो मनुष्य इन्द्रदेव के लिए सोम रस निचोड़ते हैं, पुरोडाश पकाते हैं, धान की खीलों को भूनते हैं; उनकी स्तुतियों का श्रवण करके इन्द्रदेव उन्हें अत्यधिक सामर्थ्य प्रदान करते हैं ॥७॥ यदा समर्यं व्यचेदृघावा दीर्घ यदाजिमभ्यख्यदर्यः । अचिक्रददृषणं पत्यच्छा दुरोण आ निशितं सोमसुद्भिः ॥८॥ जब रिपुओं का संहार करने वाले इन्द्रदेव रिषुओं को विशेष प्रकार से जानते हैं तथा बड़े युद्ध में विद्यमान रहते हैं, तब उनकी पत्नी सौम अभिषव करने वालों द्वारा प्रोत्साहित किये गये तथा कामनाओं की वर्षा करने वाले इन्द्रदेव के यश का वर्णन करती हैं ॥८॥ भूयसा वस्त्रमचरत्कनीयोऽविक्रीतो अकानिषं पुनर्यन् । स भूयसा कनीयो नारिरेचीद्दीना दक्षा वि दुहन्ति प्र वाणम् ॥९॥ किसी ने प्रचुर ऐश्वर्य (धन) प्रदान करके थोड़ी सी वस्तु प्राप्त कर ली । जब उस वस्तु का विक्रय नहीं हुआ, तब वह पुनः जाकर अपने धन की माँग करता है। बाद में विक्रेता प्रचुर ऐश्वर्य प्रदान करके थोड़ी सी वस्तु लेने के लिए तैयार नहीं हुआ। उसने कहा-चाहे आप सक्षम हों या अक्षम, विक्रय के समय आपने जो बोल दिया है, अब वही रहेगा ॥९॥ क इमं दशभिर्ममेन्द्रं क्रीणाति धेनुभिः । यदा वृत्राणि जङ्घनदथैनं मे पुनर्ददत् ॥१०॥ दस गौओं द्वारा हमारे इन्द्रदेव को कौन खरीदेगा (दस इन्द्रियजन्य कामनाओं को समर्पित करके आत्मशक्ति कौन प्राप्त करेगा) ? जब वे (इन्द्र) रिपुओं का संहार करेंगे, तब उनको पुनः हमें वापस दें ॥१०॥ नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो न पीपेः । अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः ॥११॥ है इन्द्रदेव! आप प्राचीन ऋषियों द्वारा स्तुत होकर तथा हमारे द्वारा प्रशंसित होकर हमें नदियों के सदृश अन्नों से परिपूर्ण करें। हे अश्ववान् इन्द्रदेव ! हम अपनी बुद्धि द्वारा आपके लिए अभिनव स्तोत्रों का गान करते हैं, जिससे हम रथों तथा दासों से सम्पन्न हों ॥११॥

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