ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ८५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ८५ ऋषि – गौतमो राहुगणः: देवता- मरुतः । छंद - जगती ५१२ त्रिष्टुप प्र ये शुम्भन्ते जनयो न सप्तयो यामन्त्रुद्रस्य सूनवः सुदंससः । रोदसी हि मरुतश्चक्रिरे वृधे मदन्ति वीरा विदथेषु घृष्वयः ॥१॥ लोकहित में तीव्रगति से श्रेष्ठ कार्य करने वाले रुद्रदेव के पुत्र मरुद्गण रमणियों के समान सुसज्जित होकर बाहर जाते हैं। ये मरुद्गण शत्रुओं के साथ संघर्ष कर युद्ध क्षेत्र में हर्षित होते हैं। उन्होंने ही आकाश, पृथ्वी को स्थापित कर इसकी वृद्धि की है ॥१॥ त उक्षितासो महिमानमाशत दिवि रुद्रासो अधि चक्रिरे सदः । अर्चन्तो अर्क जनयन्त इन्द्रियमधि श्रियो दधिरे पृश्निमातरः ॥२॥ इन शोभावाने और महिमावान् रुद्रदेव के पुत्र मरुद्गणों ने आकाश में अपना श्रेष्ठ स्थान बनाया हैं। इन्द्रदेव के लिये स्तोत्रों का उच्चारण कर बलों को प्रकट किया है। वे पृथिवीपुत्र मरुद्गण अलंकारों को धारण कर शोभायमान हुए हैं॥२॥ गोमातरो यच्छुभयन्ते अज्ञ्जिभिस्तनूषु शुभ्रा दधिरे विरुक्मतः । बाधन्ते विश्वमभिमातिनमप वर्मान्येषामनु रीयते घृतम् ॥३॥ वे पृथिवीपुत्र मरुद्गण अलंकारों को शरीर पर विशेष रूप से धारण कर सुशोभित होते हैं। वे मार्ग के शत्रुओं को विदीर्ण करते हैं, जिससे घृत (पोषक सारतत्व) की उपलब्धि के मार्ग खुल जाते हैं॥३॥ वि ये भ्राजन्ते सुमखास ऋष्टिभिः प्रच्यावयन्तो अच्युता चिदोजसा । मनोजुवो यन्मरुतो रथेष्वा वृषव्रातासः पृषतीरयुग्ध्वम् ॥४॥ उत्तम युद्ध करने वाले वीर मरुद्गण दीप्तिमान् अस्त्रों से सज्जित होकर अडिग शत्रुओं को भी अपनी सामर्थ्य से प्रकम्पित करते हैं। हे मरुद्गणो ! आप मन के समान वेग वाले रथों में धब्बेदार मृगों को योजित कर संघबद्ध होकर चलने वाले हैं ॥४॥ प्र यद्रथेषु पृषतीरयुग्ध्वं वाजे अद्रिं मरुतो रंहयन्तः । उतारुषस्य वि ष्यन्ति धाराश्चर्मेवोदभिर्युन्दन्ति भूम ॥५॥ हे मरुद्गणो ! जब आप युद्ध में वज्र को प्रेरित करते हुए बिन्दुदार (चितकबरे) मृगों को रथ में योजित करते हैं, तब धूमिल (मटमैले) मेघों की जल-धाराएँ वेग से नीचे प्रवाहित होती हैं। वे भूमि को त्वचा के समान आई (नम) कर देती हैं॥५॥ आ वो वहन्तु सप्तयो रघुष्यदो रघुपत्वानः प्र जिगात बाहुभिः । सीदता बर्हिरुरु वः सदस्कृतं मादयध्वं मरुतो मध्वो अन्धसः ॥६॥ हे मरुद्गणो ! वेगवान् अश्व आपको इस यज्ञस्थल पर ले आयें। आप शीघ्रता पूर्वक दोनों हाथों में धन को धारण कर इधर आये । आपके निमित्त यहाँ बड़ा स्थान विनिर्मित किया है। यहाँ कुश आसनों पर अधिष्ठित होकर मधुर हवि रूप अन्नों का सेवन कर हर्षित हों ॥६॥ तेऽवर्धन्त स्वतवसो महित्वना नाकं तस्थुरुरु चक्रिरे सदः । विष्णुर्यद्धावदृषणं मदच्युतं वयो न सीदन्नधि बर्हिषि प्रिये ॥७॥ वे मरुद्गण अपनी सामर्थ्य से स्वयं वृद्धि को प्राप्त होते हैं। उन्होंने अपनी महत्ता के अनुरूप स्वर्ग में बड़े विस्तृत स्थान को तैयार किया है। इन इष्टवर्धक और हर्ष प्रदायक मरुतों की रक्षा स्वयं परमात्मा विष्णु करते हैं। हे मरुद्गणो! हमारे प्रिय यज्ञ स्थान में पक्षियों की भाँति पंक्ति बद्ध होकर पधारें ॥७॥ शूरा इवेयुयुधयो न जग्मयः श्रवस्यवो न पृतनासु येतिरे । भयन्ते विश्वा भुवना मरुद्भयो राजान इव त्वेषसंदृशो नरः ॥८॥ वीरों के समान संघर्षशील, योद्धाओं के समान आक्रामक, यश के इच्छुक, वीरों के समान अग्रणी, युद्धों में अति प्रयत्नशील ये मरुद्गण राजाओं के समान विशेष तेजस्वी रूप में शोभायमान हैं। इनसे सारे लोक भयभीत हो उठते हैं॥८॥ त्वष्टा यद्वत्रं सुकृतं हिरण्ययं सहस्रभृष्टिं स्वपा अवर्तयत् । धत्त इन्द्रो नर्यपांसि कर्तवेऽहन्वृत्रं निरपामौब्जदर्णवम् ॥९॥ अत्यन्त कुशल कर्मवाले त्वष्टादेव ने इन्द्रदेव के लिए स्वर्णमय सहस्र धारों से युक्त वज्र को बनाकर दिया। इन्द्रदेव ने उसे धारण कर मनुष्यों के हितार्थ उससे वीरोचित कर्मों को सम्पन्न किया। जल को बाधित करने वाले वृत्र को मारकर जलों को मुक्त किया ॥९॥ ऊर्ध्वं नुनुद्रेऽवतं त ओजसा दादृहाणं चिद्विभिदुर्वि पर्वतम् । धमन्तो वाणं मरुतः सुदानवो मदे सोमस्य रण्यानि चक्रिरे ॥१०॥ उन मरुद्गणों ने अपने बल से भूमि के जलों को ऊपर की ओर प्रेरित किया और दृढ़ मेघों को विशेष रूप से भेदन किया, तदनन्तर उत्तम दानी पुरुष मरुद्गणों ने सोमों से हर्षित होकर वाद्ययंत्रों से ध्वनि करते हुए उत्तम गान भी किया ॥१०॥ जिह्यं नुनुद्रेऽवतं तया दिशासिञ्चन्नुत्सं गोतमाय तृष्णजे । आ गच्छन्तीमवसा चित्रभानवः कामं विप्रस्य तर्पयन्त धामभिः ॥११॥ मरुद्गणों ने जलाशय के जल को तिरछा करके प्रवाहित किया। प्यास से व्याकुल गोतम ऋषि के वंशजों के लिए झरने से सिंचन किया। थे अद्भुत दीप्ति वाले संरक्षण साधनों से युक्त होकर उनकी रक्षा के लिये गये, और अषि की पिपासा को तृप्त किया ॥११॥ या वः शर्म शशमानाय सन्ति त्रिधातूनि दाशुषे यच्छताधि । अस्मभ्यं तानि मरुतो वि यन्त रयिं नो धत्त वृषणः सुवीरम् ॥१२॥ हे मरुद्गणो ! स्तोताओं और दाताओं को जो आप उनकी कामना से तीन गुना अधिक देकर सुखी करते हैं, वह हमें भी दें। हे बलवान् वीरो ! आप उत्तम सन्तान से युक्त धन हमें प्रदान करें ॥१२॥

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