Aarunikopanishat (आरुणिकोपनिषत्‌)

॥ श्री हरि ॥ ॥अथ आरुणिकोपनिषत् ॥ ॥ हरिः ॐ ॥ आरुणिकाख्योपनिषत्ख्यातसंन्यासिनोऽमलाः । यत्प्रबोधाद्यान्ति मुक्तिं तद्रामब्रह्म मे गतिः ॥ ॐ आप्यायन्त्विति शान्तिः ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ आरुणिकोपनिषत् ॥ आरुणिक उपनिषद ॐ आरुणिः प्राजापत्यः प्रजापतेर्लोकं जगाम । तं गत्वोवाच । केन भगवन्कर्माण्यशेषतो विसृजामीति । तं होवाच प्रजापतिस्तव पुत्रान्भ्रातॄन्बन्ध्वादीञ्छिखां यज्ञोपवीतं यागं स्वाध्यायं भूर्लोक भुवर्लोकस्वर्लोकमहर्लोकजनोलोकतपोलोकसत्यलोकं चातलतलातलवितलसुतलरसातलमहातलपातालं ब्रह्माण्डं च विसृजेत् । दण्डमाच्छादनं चैव कौपीनं च परिग्रहेत् । शेषं विसृजेदिति ॥ १॥ प्रजापति की उपासना करने वाले अरुण के पुत्र आरुणि ब्रह्मलोक में भगवान् ब्रह्माजी के समक्ष उपस्थित हुए तथा प्रार्थना करते हुए पूछा- हे भगवन् ! मैं सभी कर्मों का किस तरह से परित्याग कर सकता हूँ। तब ब्रह्माजी ने उनसे कहा- हे ऋषे ! अपने पुत्र, स्वजन-सम्बन्धी, बन्धु-बान्धव आदि को यज्ञोपवीत, यज्ञ, शिखा और स्वाध्याय को तथा भू लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, महः लोक, जन:लोक, तपःलोक, सत्यलोक और अतल, तलातल, वितल, सुतल, रसातल, महातल तथा पाताल आदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का परित्याग कर देना चाहिए। मात्र दण्ड, आच्छादन के लिए वस्त्र एवं कौपीन (लँगोटी) को धारण करना चाहिए। शेष अन्य सभी वस्तुओं का परित्याग कर देना चाहिए ॥१॥ गृहस्थो ब्रह्मचारी वा वानप्रस्थो वा उपवीतं भूमावप्सु वा विसृजेत् । लौकिकाग्नीनुदराग्नौ समारोपयेत् । गायत्रीं च स्ववाचाग्नौ समारोपयेत् । कुटीचरो ब्रह्मचारी कुटुंबं विसृजेत् । पात्रं विसृजेत् । पवित्रं विसृजेत् । दण्डा लोकांश्च विसृजेदिति होवाच । अत उर्ध्वममन्त्रवदाचरेत् । ऊर्ध्वगमनं विसृजेत् । औषधवदशनमाचरेत् । त्रिसन्ध्यादौ स्नानमाचरेत् । सन्धिं समाधावात्मन्याचरेत् । सर्वेषु वेदेष्वारण्यकमावर्तयेदुपनिषदमावर्तयेदुपनिषदमावर्तय् एदिति ॥ २॥ ब्रह्मचारी हो, गृहस्थ हो या वानप्रस्थी सभी को (अपने-अपने आश्रमों में विहित) दिव्य अग्नियों को अपने जठराग्नि में आरोपित कर लेना चाहिए। गायत्री को अपनी वाणी रूपी अग्नि में प्रतिष्ठित करे। यज्ञोपवीत को पृथ्वी पर अथवा जल में विसर्जित कर देना चाहिए। कुटी में निवास करने वाले ब्रह्मचारी को अपने परिवार (कुटुम्ब) का परित्याग कर देना चाहिए, पात्र का त्याग करे एवं पवित्री (कुशा) को भी त्याग दे। दण्ड और लौकिक अग्नि का भी त्याग करे, ऐसा ब्रह्माजी ने आरुणि से कहा। आगे उन्होंने कहा कि वह मंत्रहीन की तरह आचरण करे। ऊर्ध्व (स्वर्गादि) लोकों में जाने की इच्छा भी न करे। औषधि की भाँति अन्न ग्रहण करे तथा त्रिकाल संध्या-स्नान करे। संध्या काल में समाधिस्थ होकर परब्रह्म परमात्मा का अनुसंधान करे, सभी वेदों में आरण्यकों की आवृत्ति करे अर्थात् पढ़े और मनन करे तथा उपनिषदों का बार-बार अध्ययन करें ॥२॥ खल्वहं ब्रह्मसूचनात्सूत्रं ब्रह्मसूत्रमहमेव विद्वान्त्रिवृत्सूत्रं त्यजेद्विद्वान्य एवं वेद संन्यस्तं मया संन्यस्तं मया संन्यस्तं मयेति त्रिरुक्त्वाभयं सर्वभूतेभ्यो मत्तः सर्वं प्रवर्तते । सखामागोपायोजः सखायोऽसीन्द्रस्य वज्रोऽसि वार्त्रघ्नः शर्म मे भव यत्पापं तन्निवारयेति । अनेन मन्त्रेण कृतं वाइणवं दण्डं कौपीनं परिग्रहेदौषधवदशनमाचरेदौषधवदशनं प्राश्नीयाद्यथालाभमश्नीयात् । ब्रह्मचर्यमहिंसा चापरिग्रहं च सत्यं च यत्नेन हे रक्षत हे रक्षत हे रक्षत इति ॥ ३॥ निश्चय ही ब्रह्म का बोध कराने वाला सूत्र ब्रह्मसूत्र मैं स्वयं ही हूँ, ऐसा जानकर त्रिवृत्सूत्र (उपवीत) का भी परित्याग कर दे। ऐसा जानने वाला विद्वान् 'मया संन्यस्तम्' अर्थात् मैंने संन्यास ले लिया, मैंने सर्वस्व का त्याग कर दिया, सब कुछ छोड़ दिया, ऐसा तीन बार कहे। इसके पश्चात् 'अभयं सर्वभूतेभ्यो मत्तः सर्वं प्रवर्तते' (अर्थात् सभी हिंस्र और अहिंस्र प्राणियों को अभय प्राप्त हो, सम्पूर्ण जगत् मुझमें ही विद्यमान है।) इत्यादि मन्त्र से- हे दण्ड ! आप मेरे मित्र हैं, आप मेरे ओज की रक्षा करें। आप मेरे मित्र तथा आप ही वृत्रासुर का विनाश करने वाले देवराज इन्द्र के वज्र हैं। हे वज्र ! आप हमें सुख प्राप्त करायें तथा हमें संन्यास धर्म से पथभ्रष्ट करने वाला जो भी पाप हो, उसका निवारण करें; यह कहते हुए अभिमंत्रित बाँस का दण्ड और कौपीन (लँगोटी) धारण करे। औषधि की तरह से भोजन ग्रहण करे, जो कुछ भी मिल जाए, उसे अल्पमात्रा में औषधि समझ कर खाए। हे आरुणि! संन्यास धर्म को ग्रहण करने के उपरान्त ब्रह्मचर्य, अहिंसा, अपरिग्रह और सत्य का निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिए। हे वत्स ! उन (संन्यास के सभी अनुशासनों) की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करो, रक्षा करो, रक्षा करो॥३॥ अथातः परमहंसपरिव्राजकानामासनशयनादिकं भूमौ ब्र रह्मचर्यं मृत्पात्रमलाम्बुपात्रं दारुपात्रं वा यतीनां कामक्रोधहर्षरोषलोभमोहदम्भदर्पेच्छासूयाममत्वाहङ्क आरादीनपि परित्यजेत् । वर्षासु ध्रुवशीलोऽष्टौ मासानेकाकी यतिश्चरेत् द्वावेव वा विचरेद्द्वावेव वा विचरेदिति ॥ ४॥ तदनन्तर (ब्रह्माजी ने पुनः कहा) ब्रह्मभाव को प्राप्त परमहंस परिव्राजकों के लिए पृथ्वी पर ही आसन और शयन आदि का नियम है। मिट्टी के पात्र को या फिर तूंबी अथवा काष्ठ के कमण्डलु को अपने पास रखे। संन्यासियों को काम, क्रोध, हर्ष, शोक, रोष, लोभ, मोह, दम्भ, ईर्ष्या, इच्छा, परनिन्दा एवं ममता और अहंकार आदि का भी परित्याग पूर्ण रूप से कर देना चाहिए। उन्हें वर्षा ऋतु के चार माह तक एक ही स्थान पर स्थिर होकर रहना चाहिए, इसके अतिरिक्त शेष आठ माह एकाकी भ्रमण करे अथवा कम से कम दो माह तक एक ही स्थान में रहे ॥४॥ स खल्वेवं यो विद्वान्सोपनयनादूर्ध्वमेतानि प्राग्वा त्यजेत् । पित्रं पुत्रमग्युपवीतं कर्म कलत्रं चान्यदपीह यतयो भिक्षार्थं ग्रामं प्रविशन्ति पाणिपात्रमुदरपात्रं वा । ॐ हि ॐ हि ॐ हीत्येतदुपनिषदं विन्यसेत् ॥ खल्वेतदुपनिषदं विद्वान्य एवं वेद पालाशं बैल्वमाश्वत्थमौदुम्बरं दण्डं मौञ्जीं मेखलां यज्ञोपवीतं च त्यक्त्वा शूरो य एवं वेद । तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् । तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं पदमिति । एवं निर्वाणानुशासनं वेदानुशासनं वेदानुशासनमिति ॥ ५॥ इसके समस्त नियम-उपनियम की पूर्ण जानकारी रखने वाला विद्वान् यदि संन्यास धर्म को ग्रहण करना चाहे, तो उसे उपनयन के पश्चात् अथवा पूर्व में भी अपने माता-पिता, पुत्र, अग्नि, उपवीत, कर्म, पत्नी अथवा अन्य और जो भी कुछ हो उन समस्त वस्तुओं-पदार्थों का त्याग कर देना चाहिए। संन्यास धर्म ग्रहण करने वाले को चाहिए कि वह अपने हाथों को ही पात्र बना ले या फिर अपने उदर (पेट) को ही पात्र रूप में उपयोग कर भिक्षार्थ गाँव में गमन करे। ॐ हि ॐ हि ॐ हि - इस उपनिषद् मन्त्र का उच्चारण करते हुए (भिक्षार्थ गाँव में) प्रवेश करे। यह उपनिषद् है। जो (विद्वान्) इस उपनिषद् को पूर्णरूप से जानता है, वही विद्वान् है। पलाश (छिउल), बेल, पीपल या गूलर आदि में से किसी का दण्ड, पूँज की मेखला धारण कर एवं यज्ञोपवीत आदि का परित्याग कर जो इस (उपनिषद्) को भली प्रकार जान लेता है, वही श्रेष्ठ है, वही शूरवीर है। जो (परमात्मा) आकाश में प्रकाश युक्त सूर्य मण्डल की तरह परम व्योम में चिन्मय तेज के द्वारा सभी ओर संव्याप्त है, ऐसे भगवान् विष्णु के उस परमधाम का विद्वान् उपासक सदैव दर्शन करते हैं। साधना में सतत लगे रहने वाले निष्काम उपासक ब्राह्मण वहाँ पहुँच कर उस परमधाम को और भी प्रदीप्त किए रहते हैं, ऐसे उस पद को विष्णु का परमधाम कहते हैं। इस प्रकार यह निर्वाण (मुक्ति प्राप्ति) का अनुशासन है, वेद का अनुशासन है, यही उपनिषद् है॥५॥ ॥ हरि ॐ ॥ शान्तिपाठ ॐ आप्यायन्त्विति शान्तिः ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॥ इति सामवेदीय आरुणिकोपनिषत् ॥ ॥ सामवेदीय आरुणिक उपनिषद समात ॥

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