ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त २९

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त २९ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता – अग्निः, ५ ऋत्विजो। छंद त्रिष्टुप, १, ४, १०, १२ अनुष्टुप, ६, ११, १४, १५, जगती अस्तीदमधिमन्थनमस्ति प्रजननं कृतम् । एतां विश्पत्नीमा भराग्निं मन्थाम पूर्वथा ॥१॥ सम्पूर्ण जगत् का पालन करने वाली यह अरणी, मंथन करने का साधन हैं। इसके द्वारा ही अग्निदेव प्रकट होते हैं। इस अरणी को ले आयें। पूर्व की तरह हम मन्थन करके अग्निदेव को प्रकट करें ॥१॥ अरण्योर्निहितो जातवेदा गर्भ इव सुधितो गर्भिणीषु । दिवेदिव ईड्यो जागृवद्भिर्हविष्मद्भिर्मनुष्येभिरग्निः ॥२॥ गर्भिणी के पेट में सुरक्षित गर्भ की तरह ये सर्वज्ञ अग्निदेव अरणियों में समाहित रहते हैं। यज्ञ के लिए जागरूक रहने वाले होताओं द्वारा नित्य ही वन्दनीय हैं॥२॥ उत्तानायामव भरा चिकित्वान्त्सद्यः प्रवीता वृषणं जजान । अरुषस्तूपो रुशदस्य पाज इळायास्पुत्रो वयुनेऽजनिष्ट ॥३॥ हे प्रतिभा-सम्पन्न (अध्वर्यु ! आप उत्तान (ऊर्ध्व मुख सीधी वेदिका अथवा पृथ्वी) को भरें (पूरित करें)। पूरित होकर यह शीघ्र ही अभीष्ट वर्षा में समर्थ (यज्ञीय प्रवाह) को उत्पन्न करे । इसका तेज़ प्रकाशित होता है। इस प्रकार उज्ज्वल प्रकाश से युक्त इला (पृथ्वी) का पुत्र उत्पन्न होता है॥३॥ इळायास्त्वा पदे वयं नाभा पृथिव्या अधि । जातवेदो नि धीमह्यग्ने हव्याय वोळ्हवे ॥४॥ हे सर्वज्ञाता अग्निदेव ! पृथ्वी के केन्द्रीय स्थल उत्तरवेदी के मध्य में हम आपको स्थापित करते हैं। हमारे द्वारा समर्पित हवियों को आप ग्रहण करें ॥४॥ मन्थता नरः कविमद्वयन्तं प्रचेतसममृतं सुप्रतीकम् । यज्ञस्य केतुं प्रथमं पुरस्तादग्निं नरो जनयता सुशेवम् ॥५॥ हे याजकगणो ! मेधावी, प्रपंचरहित, प्रकृष्ट ज्ञानवान्, अमर और सुन्दर शरीर वाले अग्निदेव को मंथन द्वारा उत्पन्न करें । समाज का नेतृत्व करने वाले हे याजको ! सर्वप्रथम यज्ञ के पताका रूप प्रथम पूज्य, उत्तम सुखकारी अग्निदेव को प्रकट करें ॥५॥ यदी मन्थन्ति बाहुभिर्वि रोचतेऽश्वो न वाज्यरुषो वनेष्वा । चित्रो न यामन्नश्विनोरनिवृतः परि वृणक्त्यश्मनस्तृणा दहन् ॥६॥ जिस समय हाथों से अरणि-मंथन किया जाता है, उस समय शीघ्रगामी अश्व की भाँति गमनशील अग्निदेव काष्ठों पर अरुणिम वर्ग से विशेष प्रकाशमान होते हैं। अश्विनीकुमारों के शीघ्रगामी रथ की भाँति विशिष्ट शोभायमान होते हैं। वे अग्निदेव अबाध गति से तृणों को जलाते हुए, दहन-स्थान से आगे बढ़ते जाते हैं॥६॥ जातो अग्नी रोचते चेकितानो वाजी विप्रः कविशस्तः सुदानुः । यं देवास ईड्यं विश्वविदं हव्यवाहमदधुरध्वरेषु ॥७॥ उत्पन्न अग्निदेव ज्ञानवान्, वेगवान् और मेधावान् हैं, अतएव मेधावी जन उनकी प्रशंसा करते हैं। उत्तम कर्मफल प्रदायक वे अग्निदेव सर्वत्र शोभायमान होते हैं। देवों ने उन स्तुत्य और सर्वज्ञाता अग्निदेव को यज्ञ में हव्य-हवनकर्ता के रूप में स्थापित किया ॥७॥ सीद होतः स्व उ लोके चिकित्वान्त्सादया यज्ञं सुकृतस्य योनौ । देवावीर्देवान्हविषा यजास्यग्ने बृहद्यजमाने वयो धाः ॥८॥ हे होता रूप अग्निदेव ! सब कर्मों के ज्ञाता आप अपने प्रतिष्ठित स्थान को सुशोभित करें और श्रेष्ठ कर्मरूपी यज्ञ को सम्पन्न करें। देवों को तृप्त करने वाले हे अग्निदेव ! आप याजकों द्वारा प्रदत्त आहुतियों से देवताओं को आनन्दित करते हुए, याजकों को धन-धान्य एवं दीर्घायुष्य प्रदान करें ॥८॥ कृणोत धूमं वृषणं सखायोऽस्रेधन्त इतन वाजमच्छ । अयमग्निः पृतनाषाट् सुवीरो येन देवासो असहन्त दस्यून् ॥९॥ हे मित्रो ! पहले आप धूम्र युक्त बलशाली अग्नि को उत्पन्न करें, फिर शक्तिशाली होकर युद्ध में आगे आएँ। ये (उत्पन्न) अग्निदेव श्रेष्ठवीर एवं शत्रु विजेता हैं, इन्हीं की सहायता से देवगणों ने असुरों को पराजित किया ॥९॥ अयं ते योनिर्ऋत्वियो यतो जातो अरोचथाः । तं जानन्नग्न आ सीदाथा नो वर्धया गिरः ॥१०॥ हे अग्निदेव ! यह अरणि ही आपकी उत्पत्ति का हेतु है, जिसके द्वारा आप प्रकट होकर शोभायमान होते हैं। उस अपने मूल को जानते हुए आप उस पर प्रतिष्ठित हों और हमारी स्तुतियों (वाणी की सामर्थ्य) को बढ़ायें ॥१०॥ तनूनपादुच्यते गर्भ आसुरो नराशंसो भवति यद्विजायते । मातरिश्वा यदमिमीत मातरि वातस्य सर्गो अभवत्सरीमणि ॥११॥ गर्भ में विद्यमान अग्निदेव को 'तनूनपात्' कहते हैं। जब, यह अत्यधिक बलशाली (प्रकट) होते हैं, तब 'नराशंस' कहे जाते हैं। जब अन्तरिक्ष में वे अपने तेज को विस्तारित करते हैं, तब 'मातरिश्वा' होते हैं। इनके शीघ्र गमन करने पर वायु की उत्पत्ति होती है॥११॥ सुनिर्मथा निर्मथितः सुनिधा निहितः कविः । अग्ने स्वध्वरा कृणु देवान्देवयते यज ॥१२॥ मेधावान् हे अग्निदेव ! आप उत्तम मथनी द्वारा मंथन से उत्पन्न होते हैं। आपको सर्वोत्तम स्थान में स्थापित किया गया है। हमारे यज्ञ को आप भली-भाँति सम्पन्न करें और देवत्व की कामना करने वाले हम याजकों के लिए देवों का यजन करें ॥१२॥ अजीजनन्नमृतं मर्त्यासोऽ सेमाणं तरणिं वीलुजम्भम् । दश स्वसारो अग्रुवः समीचीः पुमांसं जातमभि सं रभन्ते ॥१३॥ मर्थ्य अवजों ने अमर, अक्षय, सुदृढ़ दाँतों वाले, पापों से मुक्ति प्रदान करने वाले अग्निदेव को उत्पन्न किया। पुत्र की उत्पत्ति से प्रसन्न होने की तरह अग्नि के उत्पन्न होने पर दसों अँगुलियाँ परस्पर मिलकर अतिशय प्रसन्न होकर, शब्दायमान होते हुए प्रसन्नता व्यक्त करती हैं॥१३॥ प्र सप्तहोता सनकादरोचत मातुरुपस्थे यदशोचदूधनि । न नि मिषति सुरणो दिवेदिवे यदसुरस्य जठरादजायत ॥१४॥ यह सनातन अग्निदेव सात होताओं द्वारा दीप्तिमान् होते हैं। जब ये माता पृथ्वी के अंक में जल-स्थान के समीप शोभायमान होते हैं, तो वे आकर्षक दिखाई देते हैं। वे प्रतिदिन निद्रा न लेकर भी सदैव चैतन्य होते हैं; क्योंकि वे अत्यन्त बलवान् गर्भ से उत्पन्न हुए हैं॥१४॥ अमित्रायुधो मरुतामिव प्रयाः प्रथमजा ब्रह्मणो विश्वमिद्विदुः । द्युम्नवद्ब्रह्म कुशिकास एरिर एकएको दमे अग्निं समीधिरे ॥१५॥ मरुतों की सेना के समान शत्रुओं के साथ युद्ध करने वाले और ब्रह्मा के पुत्रों में अग्रज कुशिक वंशज ऋषिगण विश्व को जानते हैं। वे तेजस्वी हविष्यान्न सहित स्तोत्रों से अग्निदेव की स्तुति करते हैं। अपने-अपने घरों में उन्हें नित्य यज्ञार्थ प्रदीप्त करते हैं॥१५॥ यदद्य त्वा प्रयति यज्ञे अस्मिन्होतश्चिकित्वोऽवृणीमहीह । ध्रुवमया ध्रुवमुताशमिष्ठाः प्रजानन्विद्वाँ उप याहि सोमम् ॥१६॥ यज्ञादिक श्रेष्ठ कर्मों के सम्पादक, सर्वज्ञ हे अग्निदेव ! आज के इस यज्ञ में हम आपका वरण करते हैं। आप यहीं यज्ञ में सुदृढ़तापूर्वक स्थापित हों और सर्वत्र शान्तिकारक हों। हे विद्वान् अग्निदेव ! सोम को अभिषुत हुआ जानकर, आप उसके समीप पहुँचकर उसे ग्रहण करें ॥१६॥

Recommendations