ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ८७

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ८७ ऋषिः एवयामरूदात्रेयः देवता - मरुतः । छंद - अतिजगती प्र वो महे मतयो यन्तु विष्णवे मरुत्वते गिरिजा एवयामरुत् । प्र शर्धाय प्रयज्यवे सुखादये तवसे भन्ददिष्टये धुनिव्रताय शवसे ॥१॥ 'एवया' नामक ऋषि द्वारा की गई स्तुतियाँ महान् इन्द्रदेव आपको तथा मरुत् सहित विष्णुदेव को प्राप्त हों । उत्तम आभूषणों से अलंकृत, कल्याणकारी याज्ञिक को उन्नतिशील मरुतों का बल प्राप्त हो ॥१॥ प्र ये जाता महिना ये च नु स्वयं प्र विद्मना ब्रुवत एवयामरुत् । क्रत्वा तद्वो मरुतो नाधृषे शवो दाना मह्वा तदेषामधृष्टासो नाद्रयः ॥२॥ जो मरुद्गण अपनी महत्ता से प्रकट हुए और अपनी विद्या से विख्यात हुए, उन मरुद्गणों का वर्णन एवया मरुत् ऋषि करते हैं। हे मरुतो ! आपका बल अनेक विशिष्ट कर्तृत्वों, दान आदि से युक्त होने के कारण महान् हैं। आप शत्रु द्वारा अपराभूत तथा पर्वत के सदृश अटल हैं ॥२॥ प्र ये दिवो बृहतः शृण्विरे गिरा सुशुक्वानः सुभ्व एवयामरुत् । न येषामिरी सधस्थ ईष्ट आँ अग्नयो न स्वविद्युतः प्र स्यन्द्रासो धुनीनाम् ॥३॥ अत्यन्त दीप्तिमान् और प्रभावान् ये मरुद्गण विस्तृत आकाश से गमन करते हुए भी प्रजाओं के आमन्त्रण को सुनें। एवयामरुत् ऋषि उन मरुतों का वर्णन अपनी वाणियों से करते हैं। इन्हें कोई अपने स्थान से विचलित नहीं कर सकता। वे अग्नि के सदृश स्वयं प्रकाशमान हैं और घोर शब्दवान् भयंकर शत्रुओं को भी स्पन्दित कर डालते हैं ॥३॥ स चक्रमे महतो निरुरुक्रमः समानस्मात्सदस एवयामरुत् । यदायुक्त त्मना स्वादधि ष्णुभिर्विष्पर्धसो विमहसो जिगाति शेवृधो नृभिः ॥४॥ इन मरुद्गणों के स्वेच्छा से विचरणशील अश्व, जब इनके निवास के समीप रथ में नियोजित होते हैं, तब एवयामरुत् उनसे अपेक्षा रखते हैं। वे मरुत् अपने महान् संघ के साथ परस्पर स्पर्धारहित भाव से अपने समान निवास स्थान से बाहर आते हैं। वे विलक्षण तेजों से युक्त और सुखवर्द्धक हैं ॥४॥ स्वनो न वोऽमवात्रेजयदृषा त्वेषो ययिस्तविष एवयामरुत् । येना सहन्त ऋञ्जत स्वरोचिषः स्थारश्मानो हिरण्ययाः स्वायुधास इष्मिणः ॥५॥ हे मरुद्गणो ! आपका वह बल-सम्पन्न जलवर्षक, तेजस्वी, ममनशील, प्रभावकारी शब्द एवयामरुत् ऋषि को भयभीत न करे, जिस शब्द से आप शत्रुओं को पराभूत कर, वश में कर लेते हैं। हे मरुतो ! आप स्वयं दीप्तिमान्, स्थिर रश्मियों वाले, स्वर्णमय अलंकृत, उत्तम आयुधों से सज्जित और अन्न प्रदाता हैं ॥५॥ अपारो वो महिमा वृद्धशवसस्त्वेषं शवोऽवत्वेवयामरुत् । स्थातारो हि प्रसितौ संदृशि स्थन ते न उरुष्यता निदः शुशुक्वांसो नाग्नयः ॥६॥ हे प्रवर्द्धमान शक्तिशाली मरुतो ! आपकी महिमा निश्चय ही अपार है। आपका तेजस्वी बल एवयामरुत् ऋषि की रक्षा करे। शत्रुओं के आक्रमणों में आप स्थिर स्थान में अविचलित हुए दीखते हैं। आप अग्निदेव के सदृश तेजस्वी हैं। हमें अपने निंदकों से रक्षित करें ॥६॥ ते रुद्रासः सुमखा अग्नयो यथा तुविद्‌युम्ना अवन्त्वेवयामरुत् । दीर्घ पृथु पप्रथे सद्म पार्थिवं येषामज्मेष्वा महः शर्धास्यद्भुतैनसाम् ॥७॥ हे उत्तम पूजनीय, अग्निवत् अतिशय दीप्तिमान्, रुद्रपुत्र मरुद्गणो ! आप एवयामरुत् ऋषि को संरक्षित करें। आप अपने अत्यन्त दीर्घ और विस्तीर्ण निवास स्थान के कारण विख्यात हुए हैं। आप पापरहित हैं। गमन करते हुए महान् तेजों के साथ प्रकाशित होते हैं ॥७॥ अद्वेषो नो मरुतो गातुमेतन श्रोता हवं जरितुरेवयामरुत् । विष्णोर्महः समन्यवो युयोतन स्मद्रथ्यो न दंसनाप द्वेषांसि सनुतः ॥८॥ हे द्वेषरहित मरुद्गणो! आपके निमित्त काव्य स्तोत्रों के गान के समय आप यहाँ आगमन करें। स्तुतिकर्ता एवयामरुत् अंघ के स्तोत्रों का श्रवण करें। हे उत्कंठित मन वाले मरुतो! आप रथ से योजित होने वाले अश्वों के समान व्यापक विष्णुदेव की शक्तियों से प्रयोजित होकर हमारे स्तोत्रों से प्रशंसित हों। हे मरुतो! अपने पराक्रमों से हमारे गुप्त शत्रुओं को दूर हटायें ॥८॥ गन्ता नो यज्ञं यज्ञियाः सुशमि श्रोता हवमरक्ष एवयामरुत् । ज्येष्ठासो न पर्वतासो व्योमनि यूयं तस्य प्रचेतसः स्यात दुर्धर्तवो निदः ॥९॥ हे यजनीय मरुद्गणो ! हमारे यज्ञ की सिद्धि हेतु यज्ञ में आगमन करें। अरक्षित एवयामरुत् ऋषि की प्रार्थना सुनकर उन्हें संरक्षित करें । हमारे रक्षण कार्य में आप पर्वत की भाँति अडिग और महान् हैं। हे प्रकृष्ट ज्ञान-सम्पन्न मरुतो! आप हमारे निन्दकों के मध्य अजेय होकर उनके शासक बने ॥९॥ ॥ इति पंचम मण्डलं ॥

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