ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त १७

ऋग्वेद–चतुर्थ मंडल सूक्त १७ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र । छंद - त्रिष्टुप, त्वं महाँ इन्द्र तुभ्यं ह क्षा अनु क्षत्रं मंहना मन्यत द्यौः । त्वं वृत्रं शवसा जघन्वान्त्सृजः सिन्धूरहिना जग्रसानान् ॥१॥ हे महान् इन्द्रदेव ! आपके क्षात्र-बल का धरती अनुसरण करती है तथा आपके महत्त्व को महिमावान् द्युलोक स्वीकार करता हैं । आपने अपनी सामर्थ्य से वृत्र का संहार किया तथा 'अहि' द्वारा अवरुद्ध की गयी सरिताओं को प्रवाहित किया । १॥ तव त्विषो जनिमत्रेजत द्यौ रेजभूमिर्भियसा स्वस्य मन्योः । ऋघायन्त सुभ्वः पर्वतास आर्दन्धन्वानि सरयन्त आपः ॥२॥ महान् तेजस्विता से सम्पन्न हे इन्द्रदेव! आपके पैदा होते ही, आपके मन्यु से भयभीत होकर आकाश-पृथिवी काँपने लगे तथा बृहत् मेघों के समूह भयभीत होने लगे। इन मेघों ने जीवों की प्यास को बुझाते हुए मरुस्थल में भी जल को प्रेरित किया (बरसाया) ॥२॥ भिनगिरिं शवसा वज्रमिष्णन्नाविष्कृण्वानः सहसान ओजः । वधीवृत्रं वज्रेण मन्दसानः सरन्नापो जवसा हतवृष्णीः ॥३॥ रिपुओं को परास्त करने वाले इन्द्रदेव ने अपने ओज को प्रकट करके अपनी शक्ति से वज्र को प्रेरित किया और मेघों को विदीर्ण किया। उन्होंने सोमपान से हर्षित होकर अपने वज्र द्वारा वृत्र का संहार किया। वृत्र के नष्ट हो जाने पर जल आवरण (अवरोध) रहित होकर वेग के साथ प्रवाहित होने लगा ॥३॥ सुवीरस्ते जनिता मन्यत द्यौरिन्द्रस्य कर्ता स्वपस्तमो भूत् । य ईं जजान स्वर्यं सुवज्रमनपच्युतं सदसो न भूम ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आप प्रशंसनीय श्रेष्ठ वज्र को धारण करने वाले, अपने स्थान से च्युत न होने वाले तथा ऐश्वर्य से सम्पन्न हैं। आपको पैदा करने वाले प्रकाशमान प्रजापति ने स्वयं को श्रेष्ठ सन्तानवान् स्वीकारा। आपको जन्म देने वाले प्रजापति, श्रेष्ठ कर्म करने वाले थे ॥४॥ य एक इच्च्यावयति प्र भूमा राजा कृष्टीनां पुरुहूत इन्द्रः । सत्यमेनमनु विश्वे मदन्ति रातिं देवस्य गृणतो मघोनः ॥५॥ समस्त मनुष्यों के राजा, अनेकों द्वारा आवाहन किये जाने वाले इन्द्रदेव अकेले होकर भी अनेकों रिषुओं को अपने स्थान से च्युत कर देते हैं। समस्त धनवान् मनुष्य उन इन्द्रदेव को आनन्दित करते हैं, जो महान् गुणों से सम्पन्न तथा याजकों को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हैं ॥५॥ सत्रा सोमा अभवन्नस्य विश्वे सत्रा मदासो बृहतो मदिष्ठाः । सत्राभवो वसुपतिर्वसूनां दत्रे विश्वा अधिथा इन्द्र कृष्टीः ॥६॥ समस्त सोमरस उन इन्द्रदेव के निमित्त है। यह हर्षप्रदायक सोमरस उनको तृप्त करता हैं। वे समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी हैं। हे इन्द्रदेव ! आप समस्त मनुष्यों का पोषण करते हुए उन्हें उत्तम ऐश्वर्य प्रदान करते हैं ॥६॥ त्वमध प्रथमं जायमानोऽमे विश्वा अधिथा इन्द्र कृष्टीः । त्वं प्रति प्रवत आशयानमहिं वज्रेण मघवन्वि वृश्चः ॥७॥ हे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! पैदा होते ही सर्वप्रथम आपने समस्त मनुष्यों को वृत्र के प्रकोप से बचाया। प्रवाहशील जल को अवरुद्ध करके सोने वाले 'अहि' को आपने अपने वज्र से विनष्ट किया ॥७॥ सत्राहणं दाधृषिं तुम्रमिन्द्रं महामपारं वृषभं सुवज्रम् । हन्ता यो वृत्रं सनितोत वाजं दाता मघानि मघवा सुराधाः ॥८॥ शत्रु समूह के संहारक, उन्हें भयभीत करने वाले, (पराजित करके) भगा देने वाले, अत्यधिक शक्तियुक्त, श्रेष्ठ वज्रधारक, वृत्रहन्ता, अन्नदायक, धनरक्षक इन्द्रदेव अपने उपासकों को धन प्रदान करने वाले हैं ॥८ ॥ अयं वृतश्चातयते समीचीर्य आजिषु मघवा शृण्व एकः । अयं वाजं भरति यं सनोत्यस्य प्रियासः सख्ये स्याम ॥९॥ जो संग्राम में अकेले ही विजय प्राप्त करने वाले के रूप में विख्यात हैं, ऐसे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ने एकत्रित हुए रिपुओं को विनष्ट कर दिया। वे इन्द्रदेव जिस व्यक्ति को अन्न प्रदान करने की कामना करते हैं, उसे देते ही रहते हैं। उनके साथ हमारी मित्रता प्रीतियुक्त हो ॥९॥ अयं शृण्वे अध जयन्नुत प्घ्नन्नयमुत प्र कृणुते युधा गाः । यदा सत्यं कृणुते मन्युमिन्द्रो विश्वं दृव्हं भयत एजदस्मात् ॥१०॥ वे इन्द्रदेव रिपुओं को युद्ध में जीतकर उनका विनाश करते हुए ख्याति प्राप्त करते हैं। वे शत्रुओं से गौएँ छीनकर लाते हैं। वे इन्द्रदेव जब सचमुच क्रोध करते हैं, तब समस्त स्थावर-जंगम जगत् उनसे भयभीत होने लगता है ॥१०॥ समिन्द्रो गा अजयत्सं हिरण्या समश्विया मघवा यो ह पूर्वीः । एभिर्नृभिर्वृतमो अस्य शाकै रायो विभक्ता सम्भरश्च वस्वः ॥११॥ जिन्होंने शत्रुओं से युद्ध करके उनके स्वर्ण भण्डार, गौओं, अश्वों तथा उनकी विशाल सेनाओं को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया। सभी शक्तिशाली, धनवान् तथा श्रेष्ठ मनुष्यों द्वारा उन इन्द्रदेव की स्तुति की जाती है। वे इन्द्रदेव सभी को अपना ऐश्वर्य वितरित कर देते हैं, फिर भी सभी ऐश्वर्यों से सम्पन्न बने रहते हैं ॥११॥ कियत्स्विदिन्द्रो अध्येति मातुः कियत्पितुर्जनितुर्यो जजान । यो अस्य शुष्मं मुहुकैरियर्ति वातो न जूतः स्तनयद्भिरभैः ॥१२॥ वे इन्द्रदेव अपने माता-पिता के पास से कितनी शक्ति प्राप्त करते हैं ? जिन्होंने अपने उत्पन्न करने वाले प्रजापति के पास से इस दिखायी पड़ने वाले जगत् को प्रकट किया तथा उन्हीं के पास से इस जगत् को बारम्बार सामर्थ्य प्रदान किया, वे इन्द्रदेव गर्जना करने वाले मेघों द्वारा प्रेरित वायु के समान बुलाये जाते हैं ॥१२॥ क्षियन्तं त्वमक्षियन्तं कृणोतीयर्ति रेणुं मघवा समोहम् । विभञ्जनुरशनिमाँ इव द्यौरुत स्तोतारं मघवा वसौ धात् ॥१३॥ हे धनवान् इन्द्रदेव ! आप निराश्रितों को आश्रय प्रदान करते हैं तथा किये गये पापों को विनष्ट करते हैं। आप द्युलोक के सदृश सुदृढ़ वज्र धारण करने वाले हैं और रिपुओं का संहार करने वाले हैं। आप धनवान् हैं, इसलिए स्तोताओं को भी धन प्रदान करते हैं ॥१३॥ अयं चक्रमिषणत्सूर्यस्य न्येतशं रीरमत्ससृमाणम् । आ कृष्ण ईं जुहुराणो जिघर्ति त्वचो बुने रजसो अस्य योनौ ॥१४॥ उन इन्द्रदेव ने आदित्य के चक्र को प्रेरित किया और संग्राम के निमित्त गमन करने वाले 'एतश' को लौटाया। कुटिल चाल वाले और काले रंग वाले मेघों ने तेजस्वी जल के मूल स्थान आकाश में विद्यमान इन्द्रदेव को अभिषिक्त किया ॥१४॥ असिक्यां यजमानो न होता ॥१५॥ रात्रि के समय याजकगण सोमरस के द्वारा इन्द्रदेव का अभिषेक करते हैं। वे भी रात्रि में ही सभी मनुष्यों को परम ऐश्वर्य प्रदान करते हैं ॥१५॥ गव्यन्त इन्द्रं सख्याय विप्रा अश्वायन्तो वृषणं वाजयन्तः । जनीयन्तो जनिदामक्षितोतिमा च्यावयामोऽवते न कोशम् ॥१६॥ हम ज्ञानी याजक गौओं, घोड़ों, अन्नों तथा स्त्रियों की कामना करते हैं । जिस प्रकार पिपासु जल-कुण्ड में से जलपूर्ण पात्र को निकालते हैं, उसी प्रकार हम भी सृजनात्मक क्षमता प्रदान करने वाले तथा कभी नष्ट न होने वाले रक्षण-साधनों से सम्पन्न उन इन्द्रदेव को अपनी ओर बुलाते हैं ॥१६॥ त्राता नो बोधि ददृशान आपिरभिख्याता मर्डिता सोम्यानाम् । सखा पिता पितृतमः पितॄणां कर्तेमु लोकमुशते वयोधाः ॥१७॥ हे इन्द्रदेव ! आप रक्षक की तरह सबका अवलोकन करते हुए हमारी सुरक्षा करें । सोम अभिषवकर्ता साधकों के लिए आप हर्षित करने वाले सखा हैं। प्रजापति की तरह आपकी प्रसिद्धि है। आप पालन करने वालों में सर्वश्रेष्ठ पालक हैं। आप इस लोक के स्रष्टा हैं और याजकों के अन्नप्रदाता हैं ॥१७॥ सखीयतामविता बोधि सखा गृणान इन्द्र स्तुवते वयो धाः । वयं ह्या ते चकृमा सबाध आभिः शमीभिर्महयन्त इन्द्र ॥१८॥ हे प्रशंसनीय इन्द्रदेव! हम आपकी मित्रता की कामना करते हैं। आप हमारे संरक्षक और हमारे मित्र हो। आप याजकों के निमित्त अन्न धारण करें। हे इन्द्रदेव! हम संकटग्रस्त होकर इन स्तोत्रों द्वारा आपकी प्रार्थना करते हुए आपको आहूत करते हैं ॥१८॥ स्तुत इन्द्रो मघवा यद्ध वृत्रा भूरीण्येको अप्रतीनि हन्ति । अस्य प्रियो जरिता यस्य शर्मन्नकिर्देवा वारयन्ते न मर्ताः ॥१९॥ जब धनवान् इन्द्रदेव हम मनुष्यों के द्वारा प्रशंसित होते हैं, तब वे पीछे न हटने वाले अनेक रिपुओं को अकेले ही विनष्ट कर देते हैं। उन इन्द्रदेव की शरण में रहने वाले प्रिय याजक को न तो देवता नष्ट कर सकते हैं और न ही मनुष्य नष्ट कर सकते हैं ॥१९॥ एवा न इन्द्रो मघवा विरप्शी करत्सत्या चर्षणीधृदनर्वा । त्वं राजा जनुषां धेह्यस्मे अधि श्रवो माहिनं यज्जरित्रे ॥२०॥ अनेक प्रकार के शब्द करने वाले, मनुष्यों के धारणकर्ता, रिपुरहित तथा ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव हमारी सत्य अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले हैं। हे इन्द्रदेव ! आप सम्पूर्ण जन्मधारियों के सम्राट् हैं। स्तुति करने वाले लोग जिस महान् कीर्ति को आप से प्राप्त करते हैं, उस कीर्ति को आप हम मनुष्यों को प्रचुर परिमाण में प्रदान करें ॥२०॥ नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो न पीपेः । अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः ॥२१॥ हे इन्द्रदेव ! जिस तरह सरिताओं को जल प्रवाह पूर्ण करते हैं, उसी प्रकार आप प्राचीन ऋषियों द्वारा प्रशंसित होकर तथा हमारे द्वारा स्तुत होकर हम याजकों को अन्न से पूर्ण करें। हे अश्ववान् इन्द्रदेव ! हमने अपनी बुद्धि द्वारा आपके निमित्त स्तोत्र तैयार किया है, अतः हम रथवान् हों और आपकी सेवा करें ॥२१॥

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