ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ११

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ११ ऋषि – जेता माधुछन्दसः देवता- इन्द्र । छंद- अनुष्टुप इन्द्रं विश्वा अवीवृधन्त्समुद्रव्यचसं गिरः । रथीतमं रथीनां वाजानां सत्पतिं पतिम् ॥१॥ समुद्र के तुल्य व्यापक, सब रथियों में महानतम, अन्नों के स्वामी और सत्प्रवृत्तियों के पालक इन्द्रदेव को समस्त स्तुतियाँ अभिवृद्धि प्रदान करती हैं॥१॥ सख्ये त इन्द्र वाजिनो मा भेम शवसस्पते । त्वामभि प्र णोनुमो जेतारमपराजितम् ॥२॥ हे बलरक्षक इन्द्रदेव! आपकी मित्रता से हम बलशाली होकर किसी - से न डरें। हे अपराजेय विजयी इन्द्रदेव! हम साधकगण आपको प्रणाम करते हैं॥२॥ पूर्वीरिन्द्रस्य रातयो न वि दस्यन्त्यूतयः । यदी वाजस्य गोमतः स्तोतृभ्यो मंहते मघम् ॥३॥ देवराज इन्द्र की दानशीलता सनातन हैं। ऐसी स्थिति में आज के यजमान भी यदि स्तोताओं को गवादि सहित अन्न दान करते हैं, तो इन्द्रदेव द्वारा की गई सुरक्षा अक्षुण्ण रहती है ॥३॥ पुरां भिन्दुर्युवा कविरमितौजा अजायत । इन्द्रो विश्वस्य कर्मणो धर्ता वज्री पुरुष्टुतः ॥४॥ शत्रु के नगरों को विनष्ट करने वाले वे इन्द्रदेव युवा, ज्ञाता, अतिशक्तिशाली, शुभ कार्यों के आश्रयदाता तथा सर्वाधिक कीर्ति - युक्त होकर विविधगुण सम्पन्न हुए हैं॥४॥ त्वं वलस्य गोमतोऽपावरद्रिवो बिलम् । त्वां देवा अबिभ्युषस्तुज्यमानास आविषुः ॥५॥ हे वज्रधारी इन्द्रदेव ! आपने गौओं (सूर्य-किरणा) को चुराने वाले असुरों के व्यूह को नष्ट किया, तब असुरों से पराजित हुए देवगण आपके साथ आकर संगठित हुए ॥५॥ तवाहं शूर रातिभिः प्रत्यायं सिन्धुमावदन् । उपातिष्ठन्त गिर्वणो विदुष्टे तस्य कारवः ॥६॥ संग्रामशूर हे इन्द्रदेव ! आपकी दानशीलता से आकृष्ट होकर हम होतागण पुनः आपके पास आये हैं। हे स्तुत्य इन्द्रदेव ! सोमयाग में आपकी प्रशंसा करते हुए ये ऋत्विज़ एवं यजमान आपकी दानशीलता को जानते हैं ॥६॥ मायाभिरिन्द्र मायिनं त्वं शुष्णमवातिरः । विदुष्टे तस्य मेधिरास्तेषां श्रवांस्युत्तिर ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! अपनी माया द्वारा आपने 'शुष्ण' (एक राक्षस) को पराजित किया। जो बुद्धिमान् आपकी इस माया को जानते हैं, उन्हें यश और बल देकर वृद्धि प्रदान करें ॥७॥ इन्द्रमीशानमोजसाभि स्तोमा अनूषत । सहस्रं यस्य रातय उत वा सन्ति भूयसीः ॥८॥ स्तोतागण, असंख्यों अनुदान देने वाले, ओजस् (बल-पराक्रम) के कारण जगत् के नियन्ता इन्द्रदेव की स्तुति करने लगे ॥८॥

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