ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ६३

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ६३ ऋषि-नोधा गौतम देवता- इन्द्र । छंद - त्रिष्टुप त्वं महाँ इन्द्र यो ह शुष्मैर्घावा जज्ञानः पृथिवी अमे धाः । यद्ध ते विश्वा गिरयश्चिदभ्वा भिया दृव्हासः किरणा नैजन् ॥१॥ हे इन्द्रदेव ! आप महान् हैं। आपने उत्पन्न होते ही इस द्यावा-पृथिवी को अपने बल से धारण किया। आपके भय से सुदृढ़ पर्वतों के समूह भी किरणों के सदृश काँपते हैं॥१॥ आ यद्धरी इन्द्र विव्रता वेरा ते वज्र जरिता बाह्वोर्धात् । येनाविहर्यतक्रतो अमित्रान्पुर इष्णासि पुरुहूत पूर्वीः ॥२॥ निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्म करने वाले तथा बहुतों के द्वारा स्तुत्य हे इन्द्रदेव ! आप जब अपने रथ से विविध कर्म वाले अखों द्वारा आते हैं, तब स्तोता आपके हाथों में वज्र को स्थापित करते हैं। आप उसी वज्र से शत्रुओं के असंख्य नगरों को ध्वस्त करते हैं॥२॥ त्वं सत्य इन्द्र धृष्णुरेतान्त्वमृभुक्षा नर्यस्त्वं षाट् । त्वं शुष्णं वृजने पृक्ष आणौ यूने कुत्साय द्युमते सचाहन् ॥३॥ हे सत्यवान् इन्द्रदेव ! आप ऋभुओं और मनुष्यों के कुशल नायक हैं। शत्रुओं को वश में करने वाले, विजेतारूप हैं। आपने महान् संग्राम में तेजस्वी, युवा कुत्स के सहायक होकर 'शुष्ण' को मारी ॥३॥ त्वं ह त्यदिन्द्र चोदीः सखा वृत्रं यद्वज्रिन्वृषकर्मन्त्रुभ्नाः । यद्ध शूर वृषमणः पराचैर्वि दस्यूँर्योनावकृतो वृथाषाट् ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आपने कुत्स की सहायता कर, प्रसिद्ध विजयरूपी धन प्राप्त किया। जल वर्षण करने वाले, शत्रु विनाशक, वज्रधारी हे इन्द्रदेव ! आपने संग्राम में जब कुत्स के विरोधी वृत्र तथा अन्य शत्रुओं को मार भगाया, तब कुत्स को सम्पूर्ण यश प्राप्त हुआ ॥४॥ त्वं ह त्यदिन्द्रारिषण्यन्दृव्ळ्हस्य चिन्मर्तानामजुष्टौ । व्यस्मदा काष्ठा अर्वते वर्धनेव वज्रिञ्छनथिह्यमित्रान् ॥५॥ हे वज्रधारी इन्द्रदेव ! मनुष्यों पर क्रोध करने वाले सुदृढ़ शत्रु भी आप पर प्रहार नहीं कर पाते। हे इन्द्रदेव! जैसे हथौड़े से लोहे को पीटते हैं, वैसे ही आप हमारे शत्रुओं पर आघात कर उन्हें मारे। हमारे अश्वों के मार्ग को मुक्त करें अर्थात् हमारी प्रगति का मार्ग बाधाओं से रहित हो॥५॥ त्वां ह त्यदिन्द्रार्णसातौ स्वर्मीळ्हे नर आजा हवन्ते । तव स्वधाव इयमा समर्य ऊतिर्वाजेष्वतसाय्या भूत् ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! धन-प्राप्ति और सुख-प्राप्ति के निमित्त किये जाने वाले युद्ध में मनुष्य अपनी सहायता के लिए आपका आवाहन करते हैं। हे बलों के धारक इन्द्रदेव! संग्राम में योद्धाओं को आपकी सामर्थ्य प्राप्त होती है॥६॥ त्वं ह त्यदिन्द्र सप्त युध्यन्पुरो वज्रिन्पुरुकुत्साय दर्दः । बर्हिर्न यत्सुदासे वृथा वर्गहो राजन्वरिवः पूरवे कः ॥७॥ हे वज्रधारी इन्द्रदेव ! आपने 'पुरुकुत्स' के लिए युद्ध करते हुये शत्रु के सात नगरों को तोड़ा और सुदास के लिए शत्रुओं को कुश के समान अनायास काट दिया। आपने ही पुरु के लिए धन प्रदान किया ॥७॥ त्वं त्यां न इन्द्र देव चित्रामिषमापो न पीपयः परिज्मन् । यया शूर प्रत्यस्मभ्यं यंसि त्मनमूर्ज न विश्वध क्षरध्यै ॥८॥ हे महान् बलशाली इन्द्रदेव! जल को बढ़ाने के सदृश हमारी भूमि में चारों ओर अन्नों की वृद्धि करें। जलों को सर्वत्र बहाने के समान हमें अत्रों को प्रदान करें ॥८॥ अकारि त इन्द्र गोतमेभिर्ब्रह्माण्योक्ता नमसा हरिभ्याम् । सुपेशसं वाजमा भरा नः प्रातर्मक्षु धियावसुर्जगम्यात् ॥९॥ हे इन्द्रदेव ! गौतम वंशजों ने अश्वों से सम्पन्न आपके निमित्त स्तुति मंत्रों की रचना की। इन श्रेष्ठ स्तोत्रों को गाकर आपका सत्कार किया। हे इन्द्रदेव ! आप हमें श्रेष्ठ बल दें और धनों को प्राप्त करने की बुद्धि दें। प्रातः (यज्ञ की वेला में) हमें आप शीघ्र प्राप्त हों ॥९॥

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