ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ७६

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ७६ ऋषि – गौतमो राहुगणः: देवता - अग्नि । छंद - त्रिष्टुप का त उपेतिर्मनसो वराय भुवदग्ने शंतमा का मनीषा । को वा यज्ञैः परि दक्षं त आप केन वा ते मनसा दाशेम ॥१॥ हे अग्निदेव ! आपके मन को सन्तुष्ट करने का हम क्या उपाय करें ? किस यज्ञ से यजमान बल वृद्धि करें ? कौन सी स्तुति आपके लिए सुखप्रद हैं? किस मन से हम आपको हवि प्रदान करें ॥१॥ एह्यग्न इह होता नि षीदादब्धः सु पुरएता भवा नः । अवतां त्वा रोदसी विश्वमिन्वे यजा महे सौमनसाय देवान् ॥२॥ हे अग्निदेव ! आप हमारे इस यज्ञ में आकर होता रूप में अधिष्ठित हों । आप अविचलित होकर इसमें अग्रणी हों। सर्वव्यापक आकाश और पृथ्वी आपकी रक्षा करें। हमारे लिए अभीष्ट फल- प्राप्ति के निमित्त आप देवकार्य (यज्ञ) सम्पन्न कराये ॥२॥ प्र सु विश्वात्रक्षसो धक्ष्यग्ने भवा यज्ञानामभिशस्तिपावा । अथा वह सोमपतिं हरिभ्यामातिथ्यमस्मै चकृमा सुदाने ॥३॥ हे अग्निदेव ! आप श्रेष्ठ कार्यों में बाधा डालने वाले सम्पूर्ण राक्षसों का भली प्रकार दहन करें। हमारे यज्ञ की हिंसा करने वालों से रक्षा करें । अनन्तर सोम पीने वाले इन्द्रदेव को अपने अश्वों सहित यज्ञ में लायें, जिससे हम उन उत्तम दानदाता इन्द्रदेव का अतिथि सत्कार कर सकें ॥३॥ प्रजावता वचसा वह्निरासा च हुवे नि च सत्सीह देवैः । वेषि होत्रमुत पोत्रं यजत्र बोधि प्रयन्तर्जनितर्वसूनाम् ॥४॥ हवि भक्षक अग्निदेव का हम प्रजाजन स्तोत्रों से आवाहन करते हैं। यजन के योग्य हे अग्निदेव! आप यज्ञ में प्रतिष्ठित और 'पोता' रूप में पोषित किये जाने वाले हैं। आप धनों को उत्पन्न करने वाले हैं। धन के निमित्त हमारी कामना को जाने और उसे पूर्ण करें ॥४॥ यथा विप्रस्य मनुषो हविर्भिर्देवाँ अयजः कविभिः कविः सन् । एवा होतः सत्यतर त्वमद्याग्ने मन्द्रया जुह्वा यजस्व ॥५॥ हे अग्निदेव ! आप होतारूप और सत्य-स्वरूप हैं। आप मेधावियों में श्रेष्ठ मेधावी रूप में ज्ञानी मनुष्यों की हवियों द्वारा देवों के साथ पूजे जाते हैं। आप प्रसन्नता देने वाली आहुतियों को ग्रहण करते हैं॥५॥

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