ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ५८

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ५८ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः देवता – आश्विनौ । छंद - त्रिष्टुप - धेनुः प्रत्नस्य काम्यं दुहानान्तः पुत्रश्चरति दक्षिणायाः । आ द्योतनिं वहति शुभ्रयामोषसः स्तोमो अश्विनावजीगः ॥१॥ उषा अग्निदेव के योग्य प्रकृति रस का दोहन करती हैं। उषा पुत्र सूर्य उनके मध्य विचरते हैं। शुभ दीप्ति। से देदीप्यमान सूर्यदेवप्रकाश फैलाते हुए जाते हैं। इसी उपाकाल में अश्विनीकुमारों के लिए स्त्रो- गान होता हैं॥१॥ सुयुग्वहन्ति प्रति वामृतेनोर्ध्वा भवन्ति पितरेव मेधाः । जरेथामस्मद्वि पणेर्मनीषां युवोरवश्चकृमा यातमर्वाक् ॥२॥ हे अश्विनीकुमारो ! श्रेष्ठ रथ में भली प्रकार से योजित अव आपको इस यज्ञ में लाने के लिए तैयार है। माता-पिता के पास पहुँचने वाले बच्चे की भाँति यज्ञ आपके पास पहुँचे। कुटिल बुद्धि वालों को हमसे दूर करें । हम आप दोनों के लिए हविष्यान्न तैयार करते हैं। आप हमारे पास आयें ॥२॥ सुयुग्भिरश्वः सुवृता रथेन दस्राविमं शृणुतं श्लोकमद्रेः । किमङ्ग वां प्रत्यवर्ति गमिष्ठाहुर्विप्रासो अश्विना पुराजाः ॥३॥ हे शत्रु-नाशक अश्विनीकुमारे! सुन्दर चक्रों से युक्त, उत्तम अवों द्वारा योजित रथ पर सवार होकर यज्ञशाला में पधारें। सोम अभिवण कर्ताओं के द्वारा गाये जाने वाले स्तोत्रों का श्रवण करें । पुरातन काल से ही मेधावगण आपकी पुष्टि के लिए सौम के साथ ऐसी स्तुतियाँ करते रहे हैं॥३॥ आ मन्येथामा गतं कच्चिदेवैर्विश्व जनासो अश्विना हवन्ते । इमा हि वां गोऋजीका मधूनि प्र मित्रासो न ददुरुस्रो अग्रे ॥४॥ हे अश्विनीकुमारों आप हमारी इन स्तुतियों को स्वीकार करें, अश्वों से युक्त होकर आएँ । स्तोतागण आपका आवाहन करते हैं। सूर्योदय के पूर्व दुग्ध मधुर मिश्रित सोम को ये मित्ररूप यजमान आपको निवेदित करते हैं ॥४॥ तिरः पुरू चिदश्विना रजांस्याङ्‌गुषो वां मघवाना जनेषु । एह यातं पथिभिर्देवयानैर्दस्राविमे वां निधयो मधूनाम् ॥५॥ हे ऐश्वर्यवान् अश्विनीकुमारो! बहुत से लोकों को पार करके आप यहाँ पधारें । सम्पूर्ण स्तोताजनों के स्तोत्र आपके निमित्त उच्चारित होते हैं । हे शत्रुओं के संहारक अश्विनकुमारो ! जिन मार्गों से देवगण गमन करते हैं, उन मार्गों से आप यहाँ आगमन करें, क्योंकि यह आपके निमित्त मधुर सोम के पात्र तैयार किये गये हैं॥५॥ पुराणमोकः सख्यं शिवं वां युवोर्नरा द्रविणं जह्वाव्याम् । पुनः कृण्वानाः सख्या शिवानि मध्वा मदेम सह नू समानाः ॥६॥ हे नेतृत्वकर्ता अश्विनीकुमारों! आप दोनों की पुरातन मिजता सबके लिए कल्याणकारी हैं। आपका धन सर्बदा हमारी ओर प्रवाहमान रहे । आप दोनों की हितकारी मित्रता से हुम बारम्बार लाभान्वित हों। मथुर सोम के द्वारा हम आपको तृप्त करते हुए प्रसन्न हो रहे हैं॥६॥ अश्विना वायुना युवं सुदक्षा नियुद्भिष्व सजोषसा युवाना । नासत्या तिरोअन्यं जुषाणा सोमं पिबतमस्रिधा सुदानू ॥७॥ हे अश्विनीकुमारों ! आप उत्तम, सामर्थ्यवान्, नित्य-तरुण, असत्य विहीन और उत्तम फलप्रदाता हैं। आप वायु के सदृश वेगवान् अश्यों से युक्त होकर अबाध गति से आगमन करें। यहाँ आकर दिवस के अन्त में अभिपुत सोम का प्रीतिपूर्वक पान करें ॥७॥ अश्विना परि वामिषः पुरूचीरीयुर्गीर्भिर्यतमाना अमृध्राः । रथो ह वामृतजा अद्रिजूतः परि द्यावापृथिवी याति सद्यः ॥८॥ हे अश्विनीकुमारो ! आपको सब ओर से प्रचुर मात्रा में हविष्यान्न प्राप्त होता है। कर्म-कुशल ऋत्विग्गण सब दोषों से रहित होकर अपनी स्तुतियों के साथ आपकी सेवा करते हैं। सोम यन्ती कूटने वाले पाषाण के शब्द सुनकर आपका रथ द्यावा-पृथिवी का परिभ्रमण करते हुए (सोमपान के लिए यज्ञस्थल पर प्रकट होता हैं॥८॥ अश्विना मधुषुत्तमो युवाकुः सोमस्तं पातमा गतं दुरोणे । रथो ह वां भूरि वर्पः करिक्रत्सुतावतो निष्कृतमागमिष्ठः ॥९॥ हे अश्विनीकुमारों! यह वांछित सोमरस अत्यन्त मधुर रसों से परिपूर्ण है, यहाँ आकर इसका पान करें। विपुल तेजस्विता विकीर्ण करता हुआ आपका रथ सोमाभिषवकारौ यजमान के घर बार-बार आगमन करता हैं॥९॥

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