ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त २३

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त २३ ऋषि - मेधातिथिः काण्वः देवता- १ वायु, २-३ इन्द्रवायु, ४-६ मित्रवरुणो, ७-९ इन्द्रो मरुत्वान, १०-१२, विश्वे देवा, १३-१५ पूषा, १६-२३ आपः, २४, अग्नि । छंद- १- १८ गायत्री, १९ पुर उषणिक, २०- अनुष्टुप, २१- प्रतिष्ठा, २२-२४ अनुष्टुप तीव्राः सोमास आ गह्याशीर्वन्तः सुता इमे । वायो तान्प्रस्थितान्पिब ॥१॥ हे वायुदेव ! अभिषुत सोमरस तीखा होने से दुग्ध मिश्रित करके तैयार किया गया है, आप आएँ और उत्तर वेदी के पास लाये गये इस सोमरस का पान करें ॥१॥ उभा देवा दिविस्पृशेन्द्रवायू हवामहे । अस्य सोमस्य पीतये ॥२॥ जिनका यश दिव्यलोक तक विस्तृत है, ऐसे इन्द्र और वायु देवों को हम सोमरस पीने के लिए आमंत्रित करते हैं॥२॥ इन्द्रवायू मनोजुवा विप्रा हवन्त ऊतये । सहस्राक्षा धियस्पती ॥३॥ मन के तुल्य वेग वाले, सहस्र चक्षु वाले, बुद्धि के अधीश्वर इन्द्र एवं वायु देवों का ज्ञानीजन अपनी सुरक्षा के लिए आवाहन करते हैं॥३॥ मित्रं वयं हवामहे वरुणं सोमपीतये । जज्ञाना पूतदक्षसा ॥४॥ सोमरस पीने के लिए यज्ञस्थल पर प्रकट होने वाले परमपवित्र एवं बलशाली मित्र और वरुणदेवों का हम आवाहन करते हैं॥४॥ ऋतेन यावृतावृधावृतस्य ज्योतिषस्पती । ता मित्रावरुणा हुवे ॥५॥ सत्यमार्ग पर चलने वालों का उत्साह बढ़ाने वाले, तेजस्वी मित्रावरुणों का हम आवाहन करते हैं॥५॥ वरुणः प्राविता भुवन्मित्रो विश्वाभिरूतिभिः । करतां नः सुराधसः ॥६॥ वरुण एवं मित्र देवता अपने समस्त रक्षा साधनों से हम सबकी हर प्रकार से रक्षा करते हैं। वे हमें महान् वैभव सम्पन्न करें ॥६॥ मरुत्वन्तं हवामह इन्द्रमा सोमपीतये । सजूर्गणेन तृम्पतु ॥७॥ मरुद्गणों के सहित इन्द्रदेव को सोमरस पान के निमित्त बुलाते हैं। वे मरुद्गणों के साथ आकर तृप्त हों ॥७॥ इन्द्रज्येष्ठा मरुद्गणा देवासः पूषरातयः । विश्वे मम श्रुता हवम् ॥८॥ दानी पूषादेव के समान इन्द्रदेव दान देने में श्रेष्ठ हैं। वे सब मरुद्गणों के साथ हमारे आवाहन को सुनें ॥८॥ हत वृत्रं सुदानव इन्द्रेण सहसा युजा । मा नो दुःशंस ईशत ॥९॥ हे उत्तम दानदाता मरुतो ! आप अपने उत्तम साथी और बलवान् इन्द्रदेव के साथ दुष्टों का हनन करें। दुष्टता हमारा अतिक्रमण न कर सके ॥९॥ विश्वान्देवान्हवामहे मरुतः सोमपीतये । उग्रा हि पृश्निमातरः ॥१०॥ सभी मरुद्गणों को हम सोमपान के निमित्त बुलाते हैं। वे सभी अनेक रंगों वाली पृथ्वी के पुत्र महान् वीर एवं पराक्रमी हैं॥१०॥ जयतामिव तन्यतुर्मरुतामेति धृष्णुया । यच्छुभं याथना नरः ॥११॥ वेग से प्रवाहित होने वाले मरुतों का शब्द विजयनाद के सदृश गुंजित होता है, उससे सभी मनुष्यों का मंगल होता है॥११॥ हस्काराद्विद्युतस्पर्यतो जाता अवन्तु नः । मरुतो मृळयन्तु नः ॥१२॥ चमकने वाली विद्युत् से उत्पन्न हुए मरुद्गण हमारी रक्षा करें और प्रसन्नता प्रदान करें ॥१२॥ आ पूषञ्चित्रबर्हिषमाघृणे धरुणं दिवः । आजा नष्टं यथा पशुम् ॥१३॥ हे दीप्तिमान् पूषादेव आप अद्भुत तेजों से युक्त एवं धारण – शक्ति से सम्पन्न हैं। अतः सोम को द्युलोक से वैसे हीं लाएँ, जैसे खोये हुए पशु को ढूंढकर लाते हैं॥१३॥ पूषा राजानमाघृणिरपगूळ्ळ्हं गुहा हितम् । अविन्दच्चित्रबर्हिषम् ॥१४॥ दीप्तिमान् पूषादेव ने अंतरिक्ष गुहा में छिपे हुए शुभ्र तेजों से युक्त सोमराजा को प्राप्त किया ॥१४॥ उतो स मह्यमिन्दुभिः षड्युक्ताँ अनुसेषिधत् । गोभिर्यवं न चकृषत् ॥१५॥ वे पूषादेव हमारे लिए, याग के हेतुभूत सोमों के साथ वसंतादि घट्ऋतुओं को क्रमशः वैसे ही प्राप्त कराते हैं, जैसे यवों (अनाजों) के लिए कृषक बार-बार खेत जोतता है॥१५॥ अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम् । पृञ्चतीर्मधुना पयः ॥१६॥ यज्ञ की इच्छा करने वालों के सहायक, मधुर रसरूप जल – प्रवाह, माताओं के सदृश पुष्टिप्रद हैं। वे दुग्ध को पुष्ट करते हुए यज्ञमार्ग से गमन करते हैं॥१६॥ अमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह । ता नो हिन्वन्त्वध्वरम् ॥१७॥ जो ये जल सूर्य में (सूर्य किरणों में) समाहित हैं अथवा जिन जलों के साथ सूर्य का सानिध्य है, ऐसे वे पवित्र जल हमारे यज्ञ को उपलब्ध हों ॥१७॥ अपो देवीरुप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः । सिन्धुभ्यः कर्वं हविः ॥१८॥ हमारी गायें जिस जल का सेवन करती हैं, उन जलों को हम स्तुतिगान करते हैं । (अन्तरिक्ष एवं भूमि पर) प्रवहमान उन जलों के निमित्त हम हवि अर्पित करते हैं ॥ १८ ॥ अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये । देवा भवत वाजिनः ॥१९॥ जल में अमृतोपम गुण हैं, जल में औषधीय गुण है। हे देवो! ऐसे जल की प्रशंसा से आप उत्साह प्राप्त करें ॥१९॥ अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा । अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः ॥२०॥ मुझ (मंत्र द्रष्टा मुनि) से सोमदेव ने कहा है कि जल समूह में सभी ओषधियाँ समाहित हैं। जल में ही सर्व सुख प्रदायक अग्नितत्त्व समाहित है। सभी ओषधियाँ जलों से ही प्राप्त होती हैं॥२०॥ आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे मम । ज्योक्च सूर्य दृशे ॥२१॥ हे जल समूह ! जीवन रक्षक ओषधियों को हमारे शरीर में स्थित करें, जिससे हम नीरोग होकर चिरकाल तक सूर्यदेव का दर्शन करते रहें ॥२१॥ इदमापः प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि । यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेप उतानृतम् ॥२२॥ हे जल देवो ! हम याजकों ने अज्ञानवश जो दुष्कृत्य किये हों, जान- बूझकर किसी से द्रोह किया हो, सत्पुरुषों पर आक्रोश किया है। या असत्य आचरण किया हो तथा इस प्रकार के मारे जो भी दोष हों, उन सबको बहाकर दूर करें ॥२२॥ आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि । पयस्वानग्न आ गहि तं मा सं सृज वर्चसा ॥२३॥ आज हमने जल में प्रविष्ट होकर अवभृथ स्नान किया है, इस प्रकार जल में प्रवेश करके हम रस से आप्लावित हुए हैं। हे पयस्वान् ! हे अग्निदेव ! आप हमें वर्चस्वी बनाएँ, हम आपका स्वागत करते हैं॥२३॥ सं माग्ने वर्चसा सृज सं प्रजया समायुषा । अस्य देवा इन्द्रो विद्यात्सह ऋषिभिः ॥२४॥ हे अग्निदेव ! आप हमें तेजस्विता प्रदान करें। हमें प्रजा और दीर्घ आयु से युक्त करें । देवगण हमारे अनुष्ठान को जानें और इन्द्रदेव ऋषियों के साथ इसे जानें ॥ २४॥

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