ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ११०

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ११० ऋषि - कुत्स अंगिरसः: देवता- ऋभवः। छंद - जगती, ५९ त्रिष्टुप ततं मे अपस्तदु तायते पुनः स्वादिष्ठा धीतिरुचथाय शस्यते । अयं समुद्र इह विश्वदेव्यः स्वाहाकृतस्य समु तृप्णुत ऋभवः ॥१॥ हे ऋभुदेवो ! जो पूजनकृत्य हमने पहले किया था, उसे फिर से सम्पन्न करते हैं। यह मधुर स्तुति देवताओं का गुणगान करती है। समुद्र की तरह विस्तृत गुणवाला सोमरस सम्पूर्ण देवताओं के निमित्त यहाँ स्थिर है। स्वाहा के साथ आप इसे ग्रहण कर संतुष्टि प्राप्त करें ॥१॥ आभोगयं प्र यदिच्छन्त ऐतनापाकाः प्राञ्चो मम के चिदापयः । सौधन्वनासश्चरितस्य भूमनागच्छत सवितुर्दाशुषो गृहम् ॥२॥ हे सुधन्वापुत्रो ! अधिक प्राचीन हमारे प्रिय आप्तबन्धु के समान आप जब सुखोपभोग की कामना से आगे बढ़े, तब आप अपने निर्मल चरित्र के प्रभाव से उदार दानी सवितादेव के आश्रय को प्राप्त हुए ॥२॥ तत्सविता वोऽमृतत्वमासुवदगोह्यं यच्छ्रवयन्त ऐतन । त्यं चिच्चमसमसुरस्य भक्षणमेकं सन्तमकृणुता चतुर्वयम् ॥३॥ हे ऋभुदेवो! कभी न छिपने योग्य सवितादेव की कीर्ति का गान करते हुए जब आप उनके समीप गये, तब तत्काल उन्होंने आपको अमरता प्रदान की। त्वष्टा द्वारा निर्मित चमस (सोमपान का पात्र) को उन्होंने चार प्रकार का बना दिया ॥३॥ विष्टी शमी तरणित्वेन वाघतो मर्तासः सन्तो अमृतत्वमानशुः । सौधन्वना ऋभवः सूरचक्षसः संवत्सरे समपृच्यन्त धीतिभिः ॥४॥ मरणधर्मी मानवों ने निरन्तर उपासना और कर्मयोग की साधना से अमर कीर्ति को प्राप्त किया। सुधन्वा के पुत्र ऋभु सूर्यदेव की तरह ही तेजस्विता सम्पन्न होकर एक वर्ष के अन्तराल में ही सबके द्वारा प्रशंसनीय स्तवनों से पूज्यभाव को प्राप्त हुए । (अर्थात् पूजे जाने योग्य बन गये) ॥४॥ क्षेत्रमिव वि ममुस्तेजनेनँ एकं पात्रमृभवो जेहमानम् । उपस्तुता उपमं नाधमाना अमर्येषु श्रव इच्छमानाः ॥५॥ प्रशंसित ऋभुओं ने, अमर देवों की कीर्ति की उपमा के योग्य यश की इच्छा की और खेत तैयार करने की तरह तेजधार वाले शरत्र से बार-बार प्रयुक्त होने वाले तीक्षा-तेजस्वी संकल्प से देवों के समतुल्य पात्रता-व्यक्तित्व को विकसित किया ॥५॥ आ मनीषामन्तरिक्षस्य नृभ्यः सुचेव घृतं जुहवाम विद्मना । तरणित्वा ये पितुरस्य सश्चिर ऋभवो वाजमरुहन्दिवो रजः ॥६॥ अन्तरिक्ष में विचरणशील इन मनुष्य रूप धारी ऋभुओं के निमित्त मनोयोगपूर्वक की गई प्रार्थना के साथ हम चमस पात्र से घृताहुति समर्पित करें। ये ऋभुदेव अपने पिता के साथ सतत क्रियाशील रहकर दिव्यलोक और अन्तरिक्ष लोक से अन्न का उत्पादन करने में समर्थ हुए ॥६॥ ऋभुर्न इन्द्रः शवसा नवीयानृभुर्वाजभिर्वसुभिर्वसुर्ददिः । युष्माकं देवा अवसाहनि प्रियेऽभि तिष्ठेम पृत्सुतीरसुन्वताम् ॥७॥ सामर्थ्यवान् होने से ऋभुदेव सदा तरुण (नौजवान) जैसे ही दिखाई देते हैं और इन्द्रदेव की तरह ही सम्पन्न हैं। शक्तियों और धन सम्पदा से युक्त ये ऋभु हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हैं। हे देवो ! आपके स्मरणीय साधनों से संरक्षित हम किसी शुभ वेला में, यज्ञीय कर्मों से रहित रिपुदल पर विजय प्राप्त करें ॥७॥ निश्चर्मण ऋभवो गामपिंशत सं वत्सेनासृजता मातरं पुनः । सौधन्वनासः स्वपस्यया नरो जिव्री युवाना पितराकृणोतन ॥८॥ हे ऋभुदेव ! आपने जिसके चर्म ही शेष रह गये थे, ऐसी कृषकाय (दुर्बल शरीर वाली) गौ को फिर से सुन्दर हष्ट-पुष्ट बना दिया, तत्पश्चात् गोमाता को बछड़े से संयुक्त किया। हे सुधन्वा पुत्र वीरो ! आपने अपने सत्प्रयास से अति वृद्ध माता-पिता को भी युवा बना दिया ॥८॥ वाजेभिर्नो वाजसातावविड्डयृभुमाँ इन्द्र चित्रमा दर्षि राधः । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥९॥ हे ऋभुओं से युक्त इन्द्रदेव ! बलपूर्वक पराक्रम प्रधान समरक्षेत्र में अपने समर्थ साधनों के साथ आप प्रविष्ट हों। युद्ध से प्राप्त अद्भुत सम्पदाओं को हमें प्रदान करें। हमारी यह प्रिय कामना मित्र, वरुण, अदिति, समुद्र, पृथ्वी और द्युलोक आदि देवों द्वारा भी अनुमोदित हो ॥९॥

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