Shandilyopanishad Chapter 1 Part 1 (शाण्डिल्योपानिषद प्रथम अध्याय - प्रथम खण्ड)

॥ श्री हरि ॥ ॥ शाण्डिल्योपानिषद ॥ ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्तुवासस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥ गुरुके यहाँ अध्ययन करने वाले शिष्य अपने गुरु, सहपाठी तथा मानवमात्र का कल्याण-चिन्तन करते हुए देवताओं से प्रार्थना करते है कि: हे देवगण ! हम भगवान का आराधन करते हुए कानों से कल्याणमय वचन सुनें। नेत्रों से कल्याण ही देखें। सुदृढः अंगों एवं शरीर से भगवान की स्तुति करते हुए हमलोग; जो आयु आराध्य देव परमात्मा के काम आ सके, उसका उपभोग करें। स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्थ्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ जिनका सुयश सभी ओर फैला हुआ है, वह इन्द्रदेव हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें, सम्पूर्ण विश्व का ज्ञान रखने वाले पूषा हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें, हमारे जीवन से अरिष्टों को मिटाने के लिए चक्र सदृश्य, शक्तिशाली गरुड़देव हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें तथा बुद्धि के स्वामी बृहस्पति भी हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॥ श्री हरि ॥ ॥ शाण्डिल्योपानिषद ॥ अथ प्रथमाध्याये - प्रथमं खण्डः प्रथम अध्याय - प्रथम खण्ड शाण्डिल्यो ह वा अथर्वाणं पप्रच्छ आत्मलाभोपायभूतमष्टाङ्गयोगमनुबूहीति । महर्षि शाण्डिल्य अथर्वा मुनि से पूछते हैं कि 'हे मुने! आत्मतत्त्व की प्राप्ति के उपाय स्वरूप अष्टांग योग का वर्णन करने की कृपा करें। स होवाचाथर्वा यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टाङ्गानि । ऐसा निवेदन सुनकर अथर्वा मुनि ने कहा- हे महर्षे! यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि-ये ही योग के आठ अंग कहे गये हैं। तत्र दश यमाः। तथा नियमाः। आसनान्यष्टौ । त्रयः प्राणायामाः। पञ्च प्रत्याहाराः। तथा धारणा। द्विप्रकारं ध्यानम्। समाधिस्त्वेकरूपः। 'यम' एवं 'नियम' की संख्या दस दस है, 'आसन' आठ प्रकार के हैं, 'प्राणायाम' की संख्या तीन है, 'प्रत्याहार' एवं 'धारणा' दोनों के पाँच पाँच भेद हैं, 'ध्यान' दो प्रकार के होते हैं तथा 'समाधि' का एक ही भेद है। तत्राहिंसांसत्यास्तेयब्रह्मचर्यदयार्जवक्षमाधृतिमिताहारशौचानि चेति यमा दश। इसमें यम के दस भेद इस प्रकार हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, दया, सरलता, क्षमा, धैर्य, अल्प-आहार ग्रहण करना तथा पवित्रता। तत्राहिंसा नाम मनोवाक्कायकर्मभिः सर्वभूतेषु सर्वदाऽक्लेशजननम्। अहिंसा का तात्पर्य है-मन, वचन, शरीर एवं अपने कार्य के द्वारा किसी भी प्राणी को कभी भी दुःख न देना। सत्यं नाम मनोवाक्कायकर्मभिर्भूतहितयथार्थाभिभाषणम् । सत्य का अर्थ है कि मन, वचन, शरीर एवं कर्म से जो हितकारी हो, वही वाणी प्राणियों के समक्ष बोलना। अस्तेयं नाम मनोवाक्कायकर्मभिः परद्रव्येषु निःस्पृहता। अस्तेय अर्थात् मन, वचन, शरीर एवं अपने कार्य के द्वारा दूसरों के धन-साधनों के प्रति निस्पृह रहना। ब्रह्मचर्यं नाम सर्वावस्थासु मनोवाक्कायकर्मभिः सर्वत्र मैथुनत्यागः। ब्रह्मचर्य का तात्पर्य है कि सभी अवस्थाओं में मन, वचन, शरीर एवं कर्म के द्वारा सभी तरह के मैथुन का परित्याग करना। दया नाम सर्वभूतेषु सर्वत्रानुग्रहः। दया अर्थात् समस्त प्राणियों पर सदैव अपना अनुग्रह बनाये रखना। आर्जवं नाम मनोवाक्कायकर्मणां विहिताविहितेषु जनेषु प्रवृत्तौ निवृत्तौ वा एकरूपत्वम् । आर्जव अर्थात् मन, वचन, शरीर एवं कर्म से लोगों के द्वारा उचित अथवा अनुचित व्यवहार करने अथवा न करने पर भी समभाव बनाये रखना। क्षमा नाम प्रियाप्रियेषु सर्वेषु ताडनपूजनेषु सहनम् । क्षमा का तात्पर्य है-सदैव प्रिय-अप्रिय, पूजा अथवा ताड़ना आदि का बर्ताव किया जाए, तब भी उसे सहन करना। धृतिर्नामार्थहानौ स्वेष्ट बन्धुवियोगे तत्प्राप्तौ सर्वत्र चेतःस्थापनम् । धृति अर्थात् धन हानि हो, अपने इष्ट मित्रों का वियोग अथवा संयोग हो, हर स्थिति में चित्त को स्थिर रखना। मिताहारो नाम चतुर्थांशावशेषक सुस्निग्धमधुराहारः । अल्पाहार अर्थात् पेट में चौथा भाग खाली रहे, इस प्रकार अपने आहार में श्रेष्ठ घी, दुग्ध वाले मधुर पदार्थों का समावेश रखना। शौचं नाम द्विविधं बाह्यमान्तरं चेति। शौच का तात्पर्य है-बाह्य एवं अन्तः दोनों प्रकार की शुद्धि रखना। तत्र मृजलाभ्यां बाह्यम्। मनःशुद्धिरान्तरम्। तदध्यात्मविद्यया लभ्यम् ॥१॥ मिट्टी तथा जल के द्वारा बाहर की पवित्रता होती है तथा मन की शुद्धि आन्तरिक है जो अध्यात्म विद्या से होती है ॥१॥

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