ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त २५

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त २५ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र । छंद - त्रिष्टुप, को अद्य नर्यो देवकाम उशन्निन्द्रस्य सख्यं जुजोष । को वा महेऽवसे पार्याय समिद्धे अग्नौ सुतसोम ईट्टे ॥१॥ देवताओं जैसी अभिलाषा करते हुए आज कौन मनुष्य इन्द्रदेव के साथ मित्रता करना चाहते हैं? सोम अभिषव करने वाले कौन याजक संकटों से पार होने के लिए तथा महान् सुरक्षा के लिए अग्नि के प्रदीप्त होने पर उनकी स्तुति करते हैं? ॥१॥ को नानाम वचसा सोम्याय मनायुर्वा भवति वस्त उस्राः । क इन्द्रस्य युज्यं कः सखित्वं को भ्रात्रं वष्टि कवये क ऊती ॥२॥ कौन याजक अपनी वाणी से सोमपान करने वाले इन्द्रदेव की स्तुति करते हैं ? कौन उनके द्वारा प्रदान की गयी गौओं का पालन करते हैं? कौन उनकी सहायता की कामना करते हैं? कौन उनके साथ मित्रता की कामना करते हैं। कौन उनके बन्धुत्व की कामना करते हैं? तथा कौन उन दूरदर्शी इन्द्रदेव के संरक्षण की कामना करते हैं? ॥२॥ को देवानामवो अद्या वृणीते क आदित्याँ अदितिं ज्योतिरीट्टे । कस्याश्विनाविन्द्रो अग्निः सुतस्यांशोः पिबन्ति मनसाविवेनम् ॥३॥ आज देवताओं का संरक्षण करने के लिए कौन कामना करते हैं? आदित्य, अदिति तथा प्रकाशरूपी उषा की कौन प्रार्थना करते हैं? इन्द्रदेव, अग्निदेव तथा अश्विनीकुमार प्रार्थना से हर्षित होकर किसे याजक के द्वारा अभिषुत सोमरस का इच्छानुसार पान करते हैं? ॥३॥ तस्मा अग्निर्भारतः शर्म यंसज्ज्योक्पश्यात्सूर्यमुच्चरन्तम् । य इन्द्राय सुनवामेत्याह नरे नर्याय नृतमाय नृणाम् ॥४॥ जो याजक मनुष्यों के मित्र तथा नायकों में सर्वश्रेष्ठ नायक इन्द्रदेव के निमित्त सोमरस अभिषव करेंगे, भरण-पोषण करने वाले अग्निदेव उस यज्ञक को सुख प्रदान करें तथा उदित होते हुए सूर्यदेव को वे योजक (चिरकाल तक) देखें ॥४॥ न तं जिनन्ति बहवो न दभ्रा उर्वस्मा अदितिः शर्म यंसत् । प्रियः सुकृत्प्रिय इन्द्रे मनायुः प्रियः सुप्रावीः प्रियो अस्य सोमी ॥५॥ जो याजक इन्द्रदेव के निमित्त सोम निचोड़ते हैं। वे शत्रुओं द्वारा पीड़ित नहीं होते। उन याजकों को माता अदिति अत्यधिक हर्ष प्रदान करती हैं। इन्द्रदेव के निमित्त श्रेष्ठ कर्म करने वाले, यज्ञ करने वाले, सन्मार्ग पर गमन करने वाले तथा सोम यज्ञ करने वाले याजक उनके स्नेहीं बनते हैं ॥५॥ सुप्राव्यः प्राशुषाळेष वीरः सुष्वेः पक्तिं कृणुते केवलेन्द्रः । नासुष्वेरापिर्न सखा न जामिर्दुष्प्राव्योऽवहन्तेदवाचः ॥६॥ रिपुओं का संहार करने वाले, पराक्रमी इन्द्रदेव केवल सन्मार्ग पर गमन करने वाले तथा सोम अभिषव करने वाले याजकों के ही पुरोड़ाश को ग्रहण करते हैं। वे सोम अभिषव न करने वाले याजकों के मित्र अथवा बन्धु नहीं होते। बुरे मार्ग पर गमन करने वालों तथा प्रार्थना न करने वालों के वे संहार करने वाले होते हैं ॥६॥ न रेवता पणिना सख्यमिन्द्रोऽसुन्वता सुतपाः सं गृणीते । आस्य वेदः खिदति हन्ति नग्नं वि सुष्वये पक्तये केवलो भूत् ॥७॥ सोमपान करने वाले इन्द्रदेव सोम अभिषव न करने वाले, ऐश्वर्य वाले तथा कंजूस व्यापारियों के साथ मित्रता स्थापित नहीं करते। वे उनको तथा उनके अनावश्यक ऐश्वर्य को नष्ट कर देते हैं। सोमरस निचोड़ने वाले तथा पुरोडाश पकाने वाले याजकों के ही वे मित्र होते हैं ॥७॥ इन्द्रं परेऽवरे मध्यमास इन्द्रं यान्तोऽवसितास इन्द्रम् । इन्द्रं क्षियन्त उत युध्यमाना इन्द्रं नरो वाजयन्तो हवन्ते ॥८॥ उत्कृष्ट, निकृष्ट तथा मध्यम प्रकार के मनुष्य इन्द्रदेव को आहूत करते हैं। गमन करने वाले तथा बैठे रहने वाले मनुष्य भी उनको आहूत करते हैं। घर में विद्यमान रहने वाले तथा युद्ध करने वाले मनुष्य भी उनका आवाहन करते हैं। इसके अलावा अन्न की कामना करने वाले मनुष्य भी उनका आवाहन करते हैं ॥८॥

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