ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ४८

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त ४८ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - वायु। छंद -अनुष्टुप विहि होत्रा अवीता विपो न रायो अर्यः । वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये ॥१॥ हे वायुदेव ! रिपुओं को प्रकम्पित करने वाले योद्धा की तरह अन्यों के द्वारा न पिये गये सोमरस का आप पान करें तथा स्तोताओं के ऐश्वर्य की वृद्धि करें । हे वायुदेव ! आप सोमरस पीने के लिए शीतलतादायक रथ द्वारा आगमन करें ॥१॥ निर्युवाणो अशस्तीर्नियुत्वाँ इन्द्रसारथिः । वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये ॥२॥ हे वायुदेव ! आप वर्णन न किये जाने योग्य, तरुणता से युक्त अश्वों को नियोजित करते हैं। इन्द्रदेवता आपके सारथि हैं। हे वायुदेव ! आप सोमरस पीने के लिए तेजस्वी रथ द्वारा पधारें ॥२॥ अनु कृष्णे वसुधिती येमाते विश्वपेशसा । वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये ॥३॥ हे वायुदेव ! काले रंगों वाली, ऐश्वर्यों को धारण करने वाली, बहुत रूपों वाली द्यावा-पृथिवी आपका ही अनुगमन करती हैं। आप सोमरस पान के निमित्त तेजस्वी रथ द्वारा पधारें ॥३॥ वहन्तु त्वा मनोयुजो युक्तासो नवतिर्नव । वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये ॥४॥ हे वायुदेव ! मन के समान वेग वाले, परस्पर नियोजित होने वाले निन्यानवे घोड़े आपको ले जाते हैं। हे वायुदेव! आप तेजस्वी रथ द्वारा सोमपान के निमित्त पधारें ॥४॥ वायो शतं हरीणां युवस्व पोष्याणाम् । उत वा ते सहस्रिणो रथ आ यातु पाजसा ॥५॥ हे वायुदेव ! आप अपने सैकड़ों संख्या वाले पोषण योग्य अश्वों को रथ में नियोजित करें। आपके हजारों अश्वों वाले रथ वेगपूर्वक पधारें ॥५॥

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