ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ८०

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ८० ऋषि – गौतमो राहुगणः: देवता- इन्द्र । छंद - पंक्तिः इत्था हि सोम इन्मदे ब्रह्मा चकार वर्धनम् । शविष्ठ वज्रिन्नोजसा पृथिव्या निः शशा अहिमर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥१॥ वज्र धारण करने वाले शक्तिशाली हे इन्द्रदेव! आपने ब्रह्मनिष्ठों द्वारा प्रदत्त दिव्य गुणों से सम्पन्न सोमरस का पान करके अपने उत्साह को बढ़ाया है। अपनी सामर्थ्य से देव समुदाय को हानि पहुँचाने वाले दुराचारियों को पृथ्वी पर से मारकर भगा दिया ॥१॥ स त्वामददृषा मदः सोमः श्येनाभृतः सुतः । येना वृत्रं निरुद्भयो जघन्थ वज्रिन्नोजसार्चन्ननु स्वराज्यम् ॥२॥ हे वज्रधारी इन्द्रदेव ! उस श्येन पक्षी द्वारा (तीव्रगति से) लाये हुए अभिषुत, बलवर्धक सोमरस ने आपके हर्ष को बढ़ाया । अनन्तर आपने अपने बल से वृत्र को मारकर जलों से दूर कर दिया। इस प्रकार अपने राज्य क्षेत्र अर्थात् देव समुदाय को सम्मानित किया ॥२॥ प्रेह्यभीहि धृष्णुहि न ते वज्रो नि यंसते । इन्द्र नृम्णं हि ते शवो हनो वृत्रं जया अपोऽर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! आप शत्रुओं पर चारों ओर से आक्रमण कर उन्हें विनष्ट करें । आपका वज्र अनुपम शक्तिशाली और शत्रुओं को तिरस्कृत करने वाला है। अपने अनुकूल स्वराज्य की कामना करते हुए आप वृत्र का वध करे और विजय प्राप्त कर जल प्राप्त करायें ॥३॥ निरिन्द्र भूम्या अधि वृत्रं जघन्थ निर्दिवः । सृजा मरुत्वतीरव जीवधन्या इमा अपोऽर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आपने वृत्र को पृथ्वी से खींचकर आकाश में उठाकर निःशेष होने तक नष्ट किया। आपने जीवन धारक इन मरुद्गणों से युक्त जलों को प्रवाहित होने के लिए छोड़ा और आत्म सामर्थ्य में प्रतिष्ठित हुए ॥४॥ इन्द्रो वृत्रस्य दोधतः सानुं वज्रेण हीळितः । अभिक्रम्याव जिघ्नतेऽपः सर्माय चोदयन्नर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥५॥ क्रोध में आकर इन्द्रदेव ने भय से काँपने वाले वृत्र की ठुड्डी पर वज्र से प्रहार किया। जल प्रवाहों को बहने के लिए प्रेरित किया। वे इन्द्रदेव इस प्रकार आत्म सामर्थ्य से प्रकाशित हुए ॥५॥ अधि सानौ नि जिघ्नते वज्रेण शतपर्वणा । मन्दान इन्द्रो अन्धसः सखिभ्यो गातुमिच्छत्यर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥६॥ सोम से आनन्दित हुए इन्द्रदेव सौ तीक्ष्ण शूल वाले वज्र से, वृत्र की ठुड्डी पर आघात करते हैं। मित्रों के आत्म सामर्थ्य से प्रकाशित होते हैं॥६॥ इन्द्र तुभ्यमिदद्रिवोऽनुत्तं वज्रिन्वीर्यम् । यद्ध त्यं मायिनं मृगं तमु त्वं माययावधीरर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥७॥ हे पर्वतवासी, स्वराज्य की अर्चना करने वालों के सहायक वज्रधारी इन्द्रदेव ! आपकी शक्ति शत्रुओं से अपराजेय है। छल-छद्मी मृग का रूप धारण करने वाले, वृत्र का हनन करने के लिए आप कूटनीति का भी सहारा लेते हैं ॥७॥ वि ते वज्रासो अस्थिरन्नवतिं नाव्या अनु । महत्त इन्द्र वीर्य बाह्वोस्ते बलं हितमर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥८॥ हे इन्द्रदेव ! आपका वज्र नब्बे नावों से घिरे वृत्र को विचलित करने में समर्थ हैं। आपका पराक्रम अति महान् है। आपकी भुजाओं का बल भी अपरिमित है। आप आत्म-सामर्थ्य से प्रकाशित हों ॥८ ॥ सहस्रं साकमर्चत परि ष्टोभत विंशतिः । शतैनमन्वनोनवुरिन्द्राय ब्रह्मोद्यतमर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥९॥ हे मनुष्यों ! आप सहस्रों की संख्या में मिलकर इन्द्रदेव का स्तवन करें। बीसों स्तोत्रों का गान करें। सैकड़ों अनुनय-अर्चनाएँ उनके निमित्त करें । इन्द्रदेव के लिए श्रेष्ठ मंत्रों का प्रयोग करें। ये इन्द्रदेव अपनी आत्म- सामर्थ्य से प्रकाशित हों ॥९॥ इन्द्रो वृत्रस्य तविषीं निरहन्त्सहसा सहः । महत्तदस्य पौंस्यं वृत्रं जघन्वाँ असृजदर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥१०॥ इन्द्रदेव ने अपनी सामर्थ्य से वृत्र की सेना के साथ संघर्ष कर उनके बल को क्षीण किया । वृत्र को मारकर वे अपनी आत्म सामर्थ्य से प्रकाशित हुए ॥१०॥ इमे चित्तव मन्यवे वेपेते भियसा मही । यदिन्द्र वज्रिन्नोजसा वृत्रं मरुत्वाँ अवधीरर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥११॥ हे वज्रधारी इन्द्रदेव ! आपने बलशाली मरुतों के सहयोग से वृत्र- असुर का वध किया। उस समय आपके मन्यु (दुष्टता के प्रति क्रोध) के सम्मुख व्यापक आकाश और पृथ्वी भय से प्रकम्पित हुए। आप अपनी आत्म सामर्थ्य से प्रकाशित हुए ॥११॥ न वेपसा न तन्यतेन्द्रं वृत्रो वि बीभयत् । अभ्येनं वज्र आयसः सहस्रभृष्टिरायतार्चन्ननु स्वराज्यम् ॥१२॥ वह असुर वृत्र इन्द्रदेव को अपनी सामर्थ्य से न कॅपा सका और न गर्जना से इरा सका । इन्द्रदेव ने उस वृत्र पर फौलादी, सहस्रों तीक्ष्ण धारों वाले वज्र से प्रहार किया। इस प्रकार इन्द्रदेव ने आत्म सामर्थ्य के अनुकूल कर्म सम्पन्न किया ॥१२॥ यदृत्रं तव चाशनिं वज्रेण समयोधयः । अहिमिन्द्र जिघांसतो दिवि ते बद्बधे शवोऽर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥१३॥ हे इन्द्रदेव ! वृत्र द्वारा फेंके गये तीक्ष्ण शस्त्र का सामना आपने अपने वज्र से किया। उस वृत्र को मारने की आपकी इच्छा से आपका बल आकाश में स्थापित हुआ। इस प्रकार आपने आत्म- सामर्थ्य के अनुरूप कर्तृत्व प्रदर्शित किया ॥१३॥ अभिष्टने ते अद्रिवो यत्स्था जगच्च रेजते । त्वष्टा चित्तव मन्यव इन्द्र वेविज्यते भियार्चन्ननु स्वराज्यम् ॥१४॥ हे वज्रधारी इन्द्रदेव ! आपकी गर्जना से जगत् के सभी स्थावर और जंगम काँप जाते हैं। आपके मन्यु (अनीति संघर्षक क्रोध) के आगे त्वष्टा देव भी काँपते हैं। अपनी सामर्थ्य के अनुकूल आप कर्तृत्व प्रस्तुत करते हैं॥१४॥ नहि नु यादधीमसीन्द्रं को वीर्या परः । तस्मिन्नृम्णमुत क्रतुं देवा ओजांसि सं दधुरर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥१५॥ उन इन्द्रदेव की सामर्थ्य को समझने में कोई समर्थ नहीं। उनके समान पराक्रम-पुरुषार्थ को करने वाला अन्यत्र कोई नहीं । देवों ने उनमें सभी बलों, ऐश्वर्यों और क्षमताओं को स्थापित किया है। अतः वे आत्मानुरूप सामर्थ्य से प्रकाशित हुए हैं॥१५॥ यामथर्वा मनुष्पिता दध्य‌ङ्घियमत्नत । तस्मिन्ब्रह्माणि पूर्वथेन्द्र उक्था समग्मतार्चन्ननु स्वराज्यम् ॥१६॥ ऋषि अथर्वा, पालन कर्ता मनु और दध्यङ्‌ ऋषि ने पूर्व की भाँति अपनी बुद्धि से उन इन्द्रदेव के निमित्त मंत्र रूप स्तुतियों का गान किया। वे इन्द्रदेव आत्म सामर्थ्य के प्रभाव से प्रकाशित (प्रसिद्ध) हुये ॥१६॥

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